"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 139": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
पंक्ति ५: पंक्ति ५:
जैसे भगवान की परम सत्ता अपनी व्यक्त् सत्ता की सब परस्पर - विभिन्न और विरोधी शक्तियों और तत्वों का समनवय कर उन्हें अपने अंदर एक कर लेती है वैसे ही इस योग में भी सब योगमार्ग मिलकर एक हो जाते हैं। इसलिये गीता का यह योग केवल कर्मयोग नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है और जो इसे तीन मार्गो में से सबसे कनिष्ठ मार्ग बतलाते हैं, बल्कि यह परम योग है, पूर्ण समनवयात्मक और अखंड है, जिसमें जीव के अंग - प्रत्यंगों की सारी शक्तियों भागवन्मुखी की जाती हैं । इस योग को विस्वासनीय आदि को लिये जाने वाकी बात को अर्जुन ने अत्यंत स्थूलन अर्थ में ग्रहण किया (इस बात को दूसरे अर्थ में भी लिया जा सकता है) और पूछा कि सूर्यदेव जो जीव - सृष्टि में अग्रजन्माओं में से एक हैं, जो सूर्यवंश के आदिपुरूष हैं उन्होनें मनुष्य रूप श्री कृष्ण से, जो अभी - अभी जगत् में उत्पन्न हुए यह योग कैसे ग्रहण किया । इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण यह दे सकते थे कि संपूर्ण ज्ञान के मूलस्वरूप जो भगवान् हैं उस भगवदरूप से मैंने यह उपदेश उन सविता को दिया था जो भगवान् के ही ज्ञान के व्यक्ति रूप और जो समस्त अंतब्राह्म दोनों ही प्रकाशों के देने वाले हैं- परंतु यह उत्तर उन्होनें नहीं दिया ।
जैसे भगवान की परम सत्ता अपनी व्यक्त् सत्ता की सब परस्पर - विभिन्न और विरोधी शक्तियों और तत्वों का समनवय कर उन्हें अपने अंदर एक कर लेती है वैसे ही इस योग में भी सब योगमार्ग मिलकर एक हो जाते हैं। इसलिये गीता का यह योग केवल कर्मयोग नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है और जो इसे तीन मार्गो में से सबसे कनिष्ठ मार्ग बतलाते हैं, बल्कि यह परम योग है, पूर्ण समनवयात्मक और अखंड है, जिसमें जीव के अंग - प्रत्यंगों की सारी शक्तियों भागवन्मुखी की जाती हैं । इस योग को विस्वासनीय आदि को लिये जाने वाकी बात को अर्जुन ने अत्यंत स्थूलन अर्थ में ग्रहण किया (इस बात को दूसरे अर्थ में भी लिया जा सकता है) और पूछा कि सूर्यदेव जो जीव - सृष्टि में अग्रजन्माओं में से एक हैं, जो सूर्यवंश के आदिपुरूष हैं उन्होनें मनुष्य रूप श्री कृष्ण से, जो अभी - अभी जगत् में उत्पन्न हुए यह योग कैसे ग्रहण किया । इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण यह दे सकते थे कि संपूर्ण ज्ञान के मूलस्वरूप जो भगवान् हैं उस भगवदरूप से मैंने यह उपदेश उन सविता को दिया था जो भगवान् के ही ज्ञान के व्यक्ति रूप और जो समस्त अंतब्राह्म दोनों ही प्रकाशों के देने वाले हैं- परंतु यह उत्तर उन्होनें नहीं दिया ।


{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-138|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-140}}
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 138|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 140}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

०७:२५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

जिस योग में कर्म और ज्ञान एक हो जाते है, कर्मयज्ञ योग और ज्ञानयोग एक हो जाते हैं, जिस योग में कर्म की परिपूणर्ता ज्ञान में होती है और ज्ञान कर्म का पोषण करता है , उसका रूप बदल देता और ऐसे आलोकित कर देता है और फिर ज्ञान और कर्म दोनों ही उन परम भगवान् पुरूषोत्तम को समर्पित किये जाते हैं जो हमारे अंदर नारायण-रूप से सदा हमारे हृदयों में गुप्त भाव से विराजमान हैं, जो मानव - आकार में भी अतारूप से प्रकट होते हैं और दिव्य जन्म ग्रहण करके हमारी मानवता को अपने अधिकार में लेते हैं, उस योग का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण बातों - बातों में यह कह गये कि यही वह सनातन आदियोग है जो मैंने सूर्यदेव विवस्वान् को प्रदान किया और विवस्वान् ने जिसे मनुष्यों के जनक मनु को और मनु ने सूर्यवंश के आदिपुरूष इक्ष्वाकु को दिया और इस प्रकार यह योग एक राजर्षि से दूसरे राजर्षि को मिलता रहा और इसकी परंपरा चलती रही, फिर काल की गति में यह खो गया । भगवान अर्जुन से कहते हैं आज वही योग मैं तुझे दे रहा हूं, क्योंकि तू मेरा प्रेमी, भक्त, सखा और साथी है भवान् ने इस योग को परम रहस्य कहकर दइसे नये सब योगों से श्रेष्ठ बताया ,क्योंकि अन्य योग या तो निर्गुण ब्रह्म को या सगुण साकार इष्टदेव ही प्राप्त कराने वाले, या निष्कर्मस्वरूप मोक्ष अथवा आनंदनिमग्न मुक्ति के ही दिलाने वाले हैं, किंतु यह योग परम रहस्य और संपूर्ण रहस्य को खोलकर दिखाने - वाला , दिव्य शक्ति और दिव्य कर्म को प्राप्त कराने वाला तथा पूर्ण स्वतंत्रता से युक्त दिव्य ज्ञान, कर्म और परमानंद को देने वाला है।
जैसे भगवान की परम सत्ता अपनी व्यक्त् सत्ता की सब परस्पर - विभिन्न और विरोधी शक्तियों और तत्वों का समनवय कर उन्हें अपने अंदर एक कर लेती है वैसे ही इस योग में भी सब योगमार्ग मिलकर एक हो जाते हैं। इसलिये गीता का यह योग केवल कर्मयोग नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है और जो इसे तीन मार्गो में से सबसे कनिष्ठ मार्ग बतलाते हैं, बल्कि यह परम योग है, पूर्ण समनवयात्मक और अखंड है, जिसमें जीव के अंग - प्रत्यंगों की सारी शक्तियों भागवन्मुखी की जाती हैं । इस योग को विस्वासनीय आदि को लिये जाने वाकी बात को अर्जुन ने अत्यंत स्थूलन अर्थ में ग्रहण किया (इस बात को दूसरे अर्थ में भी लिया जा सकता है) और पूछा कि सूर्यदेव जो जीव - सृष्टि में अग्रजन्माओं में से एक हैं, जो सूर्यवंश के आदिपुरूष हैं उन्होनें मनुष्य रूप श्री कृष्ण से, जो अभी - अभी जगत् में उत्पन्न हुए यह योग कैसे ग्रहण किया । इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण यह दे सकते थे कि संपूर्ण ज्ञान के मूलस्वरूप जो भगवान् हैं उस भगवदरूप से मैंने यह उपदेश उन सविता को दिया था जो भगवान् के ही ज्ञान के व्यक्ति रूप और जो समस्त अंतब्राह्म दोनों ही प्रकाशों के देने वाले हैं- परंतु यह उत्तर उन्होनें नहीं दिया ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध