"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 50-66": अवतरणों में अंतर
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==त्रयस्त्रिंश (33) | ==त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 50-66 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
इस जगत् में क्षमा वशीकरण रूप है। भला, क्षमासे क्या नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथ में शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरूष क्या कर लेंगे? तृणरहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरूष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है। समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथ्वी में ये दो प्रकार के अधम पुरूष हैं- अकर्मण्य गृहस्थ और कर्मों में लगा हुआ संन्यासी।। बिल में रहने वाले जीवों को जैसे सांप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश सेवन न करने वाले ब्राह्मण- इन दोनों को खा जाती है। जरा भी कठोरन बोलना और दुष्ट पुरूषों का आदर न करना- इन दो कर्मों का करने वाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरूष की कामना करने वाली स्त्रियां तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरूष- ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने-वाले होते हैं। जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है- ये दोनों ही अपने लिये तीक्ष्ण कांटों के समान हैं एवं अपने शरीर को सुखाने वाले हैं। दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते-अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपञ्च में लगा हुआ संन्यासी। राजन्! ये दो प्रकार के पुरूष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला। | इस जगत् में क्षमा वशीकरण रूप है। भला, क्षमासे क्या नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथ में शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरूष क्या कर लेंगे? तृणरहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरूष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है। समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथ्वी में ये दो प्रकार के अधम पुरूष हैं- अकर्मण्य गृहस्थ और कर्मों में लगा हुआ संन्यासी।। बिल में रहने वाले जीवों को जैसे सांप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश सेवन न करने वाले ब्राह्मण- इन दोनों को खा जाती है। जरा भी कठोरन बोलना और दुष्ट पुरूषों का आदर न करना- इन दो कर्मों का करने वाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरूष की कामना करने वाली स्त्रियां तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरूष- ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने-वाले होते हैं। जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है- ये दोनों ही अपने लिये तीक्ष्ण कांटों के समान हैं एवं अपने शरीर को सुखाने वाले हैं। दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते-अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपञ्च में लगा हुआ संन्यासी। राजन्! ये दो प्रकार के पुरूष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला। |
०७:२३, १७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
इस जगत् में क्षमा वशीकरण रूप है। भला, क्षमासे क्या नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथ में शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरूष क्या कर लेंगे? तृणरहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरूष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है। समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथ्वी में ये दो प्रकार के अधम पुरूष हैं- अकर्मण्य गृहस्थ और कर्मों में लगा हुआ संन्यासी।। बिल में रहने वाले जीवों को जैसे सांप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश सेवन न करने वाले ब्राह्मण- इन दोनों को खा जाती है। जरा भी कठोरन बोलना और दुष्ट पुरूषों का आदर न करना- इन दो कर्मों का करने वाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरूष की कामना करने वाली स्त्रियां तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले पुरूष- ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने-वाले होते हैं। जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है- ये दोनों ही अपने लिये तीक्ष्ण कांटों के समान हैं एवं अपने शरीर को सुखाने वाले हैं। दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते-अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपञ्च में लगा हुआ संन्यासी। राजन्! ये दो प्रकार के पुरूष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला। न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरूपयोग समझने चाहिये- अपात्र को देना और सत्पात्र को न देना। जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन नकर सके- इन दो प्रकार के मनुष्यों को गले में मजबूत पत्थर बांधकर पानी में डूबा देना चाहिये। पुरूषश्रेष्ठ! ये दो प्रकार के पुरूष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति प्राप्त होते हैं- योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में शत्रओं के सम्मुख युद्ध करके मारा गया योद्धा। भरतश्रेष्ठ! मनुष्यों की कार्यसिद्धि के लिये उत्तम, मध्यम और अधम- ये तीन प्रकार के न्यायानूकूल उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान् जानते हैं ।।६२।। राजन्! उत्तम, मध्यम और अधम- ये तीन प्रकार के पुरूष होते है; इनको यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में लगाना चाहिये। राजन्! तीन ही धन के अधिकारी नहीं माने जाते- स्त्री, पुत्र तथा दास। ये जो कुछ कमाते हैं, वह धन उसी का होता है, जिसके अधीन ये रहते हैं। दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग- ये तीनों ही दोष (मनुष्य के आयु, धर्म तथा कीर्ति का) क्षय करने वाले होते हैं। काम, क्रोध और लोभ- ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे है; अत: इन तीनों को त्याग देना चाहिये।
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