"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 5": अवतरणों में अंतर
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शंकराचार्य की टीका (ईसवी सन् 788-820) इस समय विद्यमान टीकाओं मे सबसे प्राचीन है। इससे पुरानी भी अन्य टीकाएं थी, जिनका निर्देश शंकराचार्य ने अपनी भूमिका में किया है, परन्तु वे इस समय प्राप्त नहीं होती।<ref>1. आनन्दगिरि शंकराचार्य की भगवद्गीता की टीका पर अपनी टीका में, दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक में, कहता है कि वृत्तिकार ने, जिसने ब्रह्मसूत्र पर बड़ी विशाल टीका लिखी है, गीता पर भी एक वृत्ति या टीका लिखी थी, जिसमें यह बताया गया था कि न तो अकेला ज्ञान और न अकेला कर्म आध्यात्मिक मुक्ति तक ले जा सकता है, अपितु इन दोनों के सम्मिलित अभ्यास से हम उस लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। </ref> शंकराचार्य ने इस बात को ज़ोर देकर कहा है कि वास्वविकता या ब्रह्म एक ही है और उससे भिन्न दूसरी वस्तु कोई नहीं है। यह दिखाई पड़ने वाला विविध-रूप संसार अपने-आप में वास्तविक नहीं है; यह केवल उन लोगों को वास्तविक प्रतीत होता है, जो अज्ञान में (अविद्या) में जीवन बिताते हैं। इस संसार में फंस जाना एक बन्धन है, जिसमें हम सब फंसे हुए हैं। यह दुर्दशा हमारे अपने प्रयत्नों से नहीं हटाई जा सकती। कर्म व्यर्थ हैं और वे हमें इस अवास्ताविक विश्व-प्रक्रिया (संसार) से, कारण और कार्य की अन्तहीन परम्परा से मज़बूती से जकड़ देते हैं। केवल इस ज्ञान से, कि विश्वव्यापी ब्रह्म और व्यक्ति की आत्मा एक ही वस्तु है, हमे मुक्ति मिल सकती है। जब यह ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तब जीव विलीन हो जाता है; भटकना समाप्त हो जाता है और हमें पूर्ण आनन्द और परम सुख प्राप्त होता है। | शंकराचार्य की टीका (ईसवी सन् 788-820) इस समय विद्यमान टीकाओं मे सबसे प्राचीन है। इससे पुरानी भी अन्य टीकाएं थी, जिनका निर्देश शंकराचार्य ने अपनी भूमिका में किया है, परन्तु वे इस समय प्राप्त नहीं होती।<ref>1. आनन्दगिरि शंकराचार्य की भगवद्गीता की टीका पर अपनी टीका में, दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक में, कहता है कि वृत्तिकार ने, जिसने ब्रह्मसूत्र पर बड़ी विशाल टीका लिखी है, गीता पर भी एक वृत्ति या टीका लिखी थी, जिसमें यह बताया गया था कि न तो अकेला ज्ञान और न अकेला कर्म आध्यात्मिक मुक्ति तक ले जा सकता है, अपितु इन दोनों के सम्मिलित अभ्यास से हम उस लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। </ref> शंकराचार्य ने इस बात को ज़ोर देकर कहा है कि वास्वविकता या ब्रह्म एक ही है और उससे भिन्न दूसरी वस्तु कोई नहीं है। यह दिखाई पड़ने वाला विविध-रूप संसार अपने-आप में वास्तविक नहीं है; यह केवल उन लोगों को वास्तविक प्रतीत होता है, जो अज्ञान में (अविद्या) में जीवन बिताते हैं। इस संसार में फंस जाना एक बन्धन है, जिसमें हम सब फंसे हुए हैं। यह दुर्दशा हमारे अपने प्रयत्नों से नहीं हटाई जा सकती। कर्म व्यर्थ हैं और वे हमें इस अवास्ताविक विश्व-प्रक्रिया (संसार) से, कारण और कार्य की अन्तहीन परम्परा से मज़बूती से जकड़ देते हैं। केवल इस ज्ञान से, कि विश्वव्यापी ब्रह्म और व्यक्ति की आत्मा एक ही वस्तु है, हमे मुक्ति मिल सकती है। जब यह ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तब जीव विलीन हो जाता है; भटकना समाप्त हो जाता है और हमें पूर्ण आनन्द और परम सुख प्राप्त होता है। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१०:४४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
गीता शताब्दियों से हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्म ग्रन्थ मानी जाती रही है, जिसकी प्रामाणिकता उपनिषदों और ‘ब्रह्मसूत्र’ के बराबर है और ये तीनों मिलकर प्रामाणिक ग्रन्थत्रयी (प्रस्थानत्रय) कहलाती हैं। वेदान्त के आचार्यों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे अपने विशेष सिद्धान्तों को इन तीन प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर उचित ठहराएं और इसीलिए उन्होंने इन पर टीकाएं लिखी, जिनमें उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि किस प्रकार ये मूलग्रन्थ उनके विशिष्ट दृष्टिकोण की शिक्षा देते हैं। उपनिषदों में परब्रह्म के स्वभाव के सम्बनध में और संसार के साथ उसके सम्बन्ध के बारे में विभिन्न प्रकार के सुझाव विद्यमान हैं। ब्रह्मसूत्र इतना सामाजिक और अस्पष्ट है कि उसमें से अनेक प्रकार के अर्थ निकाल लिए गये हैं। गीता में अपेक्षाकृत अधिक सुसंगत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है, इसलिए उन टीकाकारों का काम अपेक्षाकृतअधिक कठिन हो जाता है, जो उसकी व्याख्या अपना मतलब निकालने के लिए करना चाहते है, भारत में बौद्ध धर्म के ह्मस के बाद विभिन्न मत उठ खड़े हुए, जिनमें से प्रमुख अद्वैत अर्थात् द्वैत का न होना विशिष्टाद्वैत अर्थात् सोपाधिक अद्वैत, द्वैत अर्थात् दो की सत्ता को स्वीकार करना और शुद्ध द्वैत अर्थात् विशुद्ध अद्वैत थे। गीता की विभिन्न टीकाएं आचार्यों द्वारा उनके अपने सम्प्रदायों के समर्थन और दूसरे सम्प्रदायों के खण्डन के लिए लिखी गई। ये सब लेखक गीता में अपने-अपने धार्मिक विचारों और अधिविद्या की प्रणालियों को ढूंढ़ पाने में समर्थ हुए, क्योंकि गीता के लेखक ने यह सुझाव प्रस्तुत किया है कि यह शाश्वत सत्य, जिसे हम खोज रहे हैं और जिससे अन्य सब सत्य निकले हैं, किसी एक अकेले गुर में बांधकर बन्द नहीं किया जा सकता।
फिर, इस धर्मग्रन्थ के अध्ययन और मनन से हमें उतना ही अधिक जीवित सत्य और आध्यात्मिक प्रभाव प्राप्त हो सकता है, जितना ग्रहण कर पाने में हम समर्थ हैं।
शंकराचार्य की टीका (ईसवी सन् 788-820) इस समय विद्यमान टीकाओं मे सबसे प्राचीन है। इससे पुरानी भी अन्य टीकाएं थी, जिनका निर्देश शंकराचार्य ने अपनी भूमिका में किया है, परन्तु वे इस समय प्राप्त नहीं होती।[१] शंकराचार्य ने इस बात को ज़ोर देकर कहा है कि वास्वविकता या ब्रह्म एक ही है और उससे भिन्न दूसरी वस्तु कोई नहीं है। यह दिखाई पड़ने वाला विविध-रूप संसार अपने-आप में वास्तविक नहीं है; यह केवल उन लोगों को वास्तविक प्रतीत होता है, जो अज्ञान में (अविद्या) में जीवन बिताते हैं। इस संसार में फंस जाना एक बन्धन है, जिसमें हम सब फंसे हुए हैं। यह दुर्दशा हमारे अपने प्रयत्नों से नहीं हटाई जा सकती। कर्म व्यर्थ हैं और वे हमें इस अवास्ताविक विश्व-प्रक्रिया (संसार) से, कारण और कार्य की अन्तहीन परम्परा से मज़बूती से जकड़ देते हैं। केवल इस ज्ञान से, कि विश्वव्यापी ब्रह्म और व्यक्ति की आत्मा एक ही वस्तु है, हमे मुक्ति मिल सकती है। जब यह ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तब जीव विलीन हो जाता है; भटकना समाप्त हो जाता है और हमें पूर्ण आनन्द और परम सुख प्राप्त होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1. आनन्दगिरि शंकराचार्य की भगवद्गीता की टीका पर अपनी टीका में, दूसरे अध्याय के दसवें श्लोक में, कहता है कि वृत्तिकार ने, जिसने ब्रह्मसूत्र पर बड़ी विशाल टीका लिखी है, गीता पर भी एक वृत्ति या टीका लिखी थी, जिसमें यह बताया गया था कि न तो अकेला ज्ञान और न अकेला कर्म आध्यात्मिक मुक्ति तक ले जा सकता है, अपितु इन दोनों के सम्मिलित अभ्यास से हम उस लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं।