"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 11": अवतरणों में अंतर
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यो ओषधिषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमोनमः।</poem></ref>“यदि यह सर्वोच्च आनन्द आकाश में न होता, तो कौन परिश्रम करता और कौन जीवित रहता?”<ref>को ह्नेवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्?</ref>ईश्वरवादी यह स्वर श्वेताश्वतर उपनिषद् में और भी प्रमुख हो उठता है। “वह जो एक है और जिसका कोई रूप-रंग नहीं है, अपनी बहुविध शक्ति को धारण करके किसी गुप्त उद्देश्य से अनेक रूप-रंगों को बनाता है और आदि में और अन्त में विश्व उसी में विलीन हो जाता है। वह परमात्मा है। वह हमें ऐसा ज्ञान प्रदान करे, जो शुभ कर्मों की ओर ले जाता है।”<ref>4, 1</ref>फिर “तू स्त्री है, तू ही पुरूष हैः तू ही युवक है और युवती भी है; तू ही वृद्ध पुरूष है, जो लाठी लेकर लड़खड़ाता चलता है; तू ही नवजात शिशु है; तू सब दिशाओं की ओर मुख किए हुए है।”<ref>4, 3</ref>फिर, “उसका रूप देखा नहीं जा सकता। आँख से उसे कोई नहीं देखता। जो लोग उसे इस प्रकार हृदय द्वारा और मन द्वारा जान लेते हैं कि उसका निवास हृदय में है, वे अमर हो जाते हैं।”<ref>4, 20</ref>वह सार्वभौम परमात्मा है, जो अपने-आप ही यह विश्व भी है, जिसे उसने अपने ही अन्दर धारण किया हुआ है। वह हमारे अन्दर विद्यमान प्रकाश है, ‘हृद्यन्तर्ज्योतिः’। वह भगवान् है, जीवन और मृत्यु जिसकी छाया हैं।<ref>ऋग्वेद 10, 121, 2: साथ ही देखिए कठोपनिषद् 3, 1। ड्यूटरोनोमी से तुलना कीजिएः“मैं मारता हूँ और जिलाता हूँ।” 32, 39 </ref> | यो ओषधिषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमोनमः।</poem></ref>“यदि यह सर्वोच्च आनन्द आकाश में न होता, तो कौन परिश्रम करता और कौन जीवित रहता?”<ref>को ह्नेवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्?</ref>ईश्वरवादी यह स्वर श्वेताश्वतर उपनिषद् में और भी प्रमुख हो उठता है। “वह जो एक है और जिसका कोई रूप-रंग नहीं है, अपनी बहुविध शक्ति को धारण करके किसी गुप्त उद्देश्य से अनेक रूप-रंगों को बनाता है और आदि में और अन्त में विश्व उसी में विलीन हो जाता है। वह परमात्मा है। वह हमें ऐसा ज्ञान प्रदान करे, जो शुभ कर्मों की ओर ले जाता है।”<ref>4, 1</ref>फिर “तू स्त्री है, तू ही पुरूष हैः तू ही युवक है और युवती भी है; तू ही वृद्ध पुरूष है, जो लाठी लेकर लड़खड़ाता चलता है; तू ही नवजात शिशु है; तू सब दिशाओं की ओर मुख किए हुए है।”<ref>4, 3</ref>फिर, “उसका रूप देखा नहीं जा सकता। आँख से उसे कोई नहीं देखता। जो लोग उसे इस प्रकार हृदय द्वारा और मन द्वारा जान लेते हैं कि उसका निवास हृदय में है, वे अमर हो जाते हैं।”<ref>4, 20</ref>वह सार्वभौम परमात्मा है, जो अपने-आप ही यह विश्व भी है, जिसे उसने अपने ही अन्दर धारण किया हुआ है। वह हमारे अन्दर विद्यमान प्रकाश है, ‘हृद्यन्तर्ज्योतिः’। वह भगवान् है, जीवन और मृत्यु जिसकी छाया हैं।<ref>ऋग्वेद 10, 121, 2: साथ ही देखिए कठोपनिषद् 3, 1। ड्यूटरोनोमी से तुलना कीजिएः“मैं मारता हूँ और जिलाता हूँ।” 32, 39 </ref> | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१०:१६, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
जिस जिज्ञासा के कारण प्लेटो को अकादेमी के ज्योतिषियों को यह आदेश देने की प्रेरणा मिली कि वे प्रकट दीख पड़ने वाली वस्तुओं (प्रतीतियों) से बचें, उसी रूचि के कारण उपनिषदों के ऋषियों को संसार को अर्थ पूर्ण समझने की प्रेरणा मिली। तैत्तिरीय उपनिषद् के शब्दों में— वह गुणों से रहित हैं, अंगों से रहित है, अजात (जो उत्पन्न नहीं हुआ) है, शाश्वत है, नित्य है और निष्कर्म है।” देखिए शान्तिपर्व 339, 21-38। यह “अज्ञान का बादल है” या जिसे एरियोपेगाइट ने ‘अत्यन्त दीप्तिमान अन्धकार’ कहा है, या ऐकहार्ट के शब्दों में, “दिव्यता का निःशब्द मरूस्थल... जो ठीक-ठीक कोई अस्तित्व नहीं है।”ऐंगेलस सिलेसियस से तुलना कीजिएः “परमात्मा केवल कुछ नहीं है। उसका सम्बन्ध न इस काल से और न इस स्थान से है।” प्लौटिनस से भी तुलना कीजिएः “वह सबका जनक होते हुए भी उन सबमें से कोई नहीं है। न वह वस्तु है, न गुण, न बुद्धि, न आत्माः वह न गति में है, न स्थिरता में है, न देश में है, न काल में है; वह अपनी परिभाषा आप ही है। उसका रूप निराला ही है, या और ठीक कहा जाए, तो वह रूपहीन है; वह उससे पहले विद्यमान था, जब रूप या गति या विश्राम उत्पन्न हुआ। ये सब वस्तुएं अस्तित्व से सम्बन्धित हैं और अस्तित्व को बहुविध बनाती है।” (ऐनीड्स, मैक्कैना-कृत अंग्रेज़ी अनुवाद 6, 9)। “भगवान् वह है, जिससे ये सब वस्तुएं उत्पन्न होती हैं, जिससे ये सब जीवित रहती हैं और जिसमें विदा होते समय ये सब विलीन हो जाती हैं।” वेद के अनुसार “परमात्मा वह है, जो अग्नि में है और जो जल में है, जिसने लिखित विश्व को व्याप्त किया हुआ है। उसे, जो कि पौधों में और पेड़ों में है, हम बारम्बार प्रणाम करते हैं।” [१]“यदि यह सर्वोच्च आनन्द आकाश में न होता, तो कौन परिश्रम करता और कौन जीवित रहता?”[२]ईश्वरवादी यह स्वर श्वेताश्वतर उपनिषद् में और भी प्रमुख हो उठता है। “वह जो एक है और जिसका कोई रूप-रंग नहीं है, अपनी बहुविध शक्ति को धारण करके किसी गुप्त उद्देश्य से अनेक रूप-रंगों को बनाता है और आदि में और अन्त में विश्व उसी में विलीन हो जाता है। वह परमात्मा है। वह हमें ऐसा ज्ञान प्रदान करे, जो शुभ कर्मों की ओर ले जाता है।”[३]फिर “तू स्त्री है, तू ही पुरूष हैः तू ही युवक है और युवती भी है; तू ही वृद्ध पुरूष है, जो लाठी लेकर लड़खड़ाता चलता है; तू ही नवजात शिशु है; तू सब दिशाओं की ओर मुख किए हुए है।”[४]फिर, “उसका रूप देखा नहीं जा सकता। आँख से उसे कोई नहीं देखता। जो लोग उसे इस प्रकार हृदय द्वारा और मन द्वारा जान लेते हैं कि उसका निवास हृदय में है, वे अमर हो जाते हैं।”[५]वह सार्वभौम परमात्मा है, जो अपने-आप ही यह विश्व भी है, जिसे उसने अपने ही अन्दर धारण किया हुआ है। वह हमारे अन्दर विद्यमान प्रकाश है, ‘हृद्यन्तर्ज्योतिः’। वह भगवान् है, जीवन और मृत्यु जिसकी छाया हैं।[६]
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