"महाभारत विराट पर्व अध्याय 11 श्लोक 9-14": अवतरणों में अंतर

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==दशम (11) अध्‍याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)==
==एकादशम (11) अध्‍याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: अष्टम अध्‍याय:  श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: विराट पर्व: एकादशम अध्‍याय:  श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद</div>


मेरा ऐसा रूप जिस कारण से हुआ है, उसे आपके सामने कहने से क्या लाभ है ? वह अधिक शोभा बढ़ाने वाली बात है। राजन् ! आप मुझे बृहन्नला समझें और पिता-माता से रहित पुत्र या पुत्री मान लें। विराट बोले - बृहन्नले ! में तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम मेरी पुत्री को तथा उसके समान अवस्था वाली अन्य राजकुमारियों को नृत्यकला सिखलाओं। परंतु मुझे यह कर्म तुम्हारे योग्य नहीं जान पड़ता। तुम तो समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी के शासक होने योग्य हो। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर मत्स्यनरेश ने बृहन्नला की गीत, नृत्य और बाजे बजाने की कलाओं में परीक्षा करके अपने अनेक मन्त्रियों से यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुर में रखना चाहिये या नहीं। फिर तरुणी स्त्रियो द्वारा शीघ्र ही उनके नपुंसक होने की जाँच करायी। जब सक तरह से उनका नपुंसक होना ठीक प्रमाणित हो गया, तब यह सुन-समझकर उनहोंने बृहन्नला को कन्या के अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दी। शक्तिशाली अर्जुन विराटकन्या उत्तरा, उसकी सखियों तथा सेविकाओं को भी गीत, वाद्य एवं नृत्यकला की शिक्षा देने लगे। इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। छद्मवेश में कन्याओं के साथ रहते हुए भी अर्जुन अपने मन को सदा पूर्णरूप से वश में रखते और उन सबको प्रिय लगने वाले कार्य करते थे। इस रूप में वहाँ रहते हुए अर्जुन को बाहर अथवा अन्तःपुर के कोई भी मनुष्य पहवान न सके।
मेरा ऐसा रूप जिस कारण से हुआ है, उसे आपके सामने कहने से क्या लाभ है ? वह अधिक शोभा बढ़ाने वाली बात है। राजन् ! आप मुझे बृहन्नला समझें और पिता-माता से रहित पुत्र या पुत्री मान लें। विराट बोले - बृहन्नले ! में तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम मेरी पुत्री को तथा उसके समान अवस्था वाली अन्य राजकुमारियों को नृत्यकला सिखलाओं। परंतु मुझे यह कर्म तुम्हारे योग्य नहीं जान पड़ता। तुम तो समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी के शासक होने योग्य हो। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर मत्स्यनरेश ने बृहन्नला की गीत, नृत्य और बाजे बजाने की कलाओं में परीक्षा करके अपने अनेक मन्त्रियों से यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुर में रखना चाहिये या नहीं। फिर तरुणी स्त्रियो द्वारा शीघ्र ही उनके नपुंसक होने की जाँच करायी। जब सक तरह से उनका नपुंसक होना ठीक प्रमाणित हो गया, तब यह सुन-समझकर उनहोंने बृहन्नला को कन्या के अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दी। शक्तिशाली अर्जुन विराटकन्या उत्तरा, उसकी सखियों तथा सेविकाओं को भी गीत, वाद्य एवं नृत्यकला की शिक्षा देने लगे। इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। छद्मवेश में कन्याओं के साथ रहते हुए भी अर्जुन अपने मन को सदा पूर्णरूप से वश में रखते और उन सबको प्रिय लगने वाले कार्य करते थे। इस रूप में वहाँ रहते हुए अर्जुन को बाहर अथवा अन्तःपुर के कोई भी मनुष्य पहवान न सके।

०९:४७, १८ अगस्त २०१५ का अवतरण

एकादशम (11) अध्‍याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

महाभारत: विराट पर्व: एकादशम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

मेरा ऐसा रूप जिस कारण से हुआ है, उसे आपके सामने कहने से क्या लाभ है ? वह अधिक शोभा बढ़ाने वाली बात है। राजन् ! आप मुझे बृहन्नला समझें और पिता-माता से रहित पुत्र या पुत्री मान लें। विराट बोले - बृहन्नले ! में तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम मेरी पुत्री को तथा उसके समान अवस्था वाली अन्य राजकुमारियों को नृत्यकला सिखलाओं। परंतु मुझे यह कर्म तुम्हारे योग्य नहीं जान पड़ता। तुम तो समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी के शासक होने योग्य हो। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर मत्स्यनरेश ने बृहन्नला की गीत, नृत्य और बाजे बजाने की कलाओं में परीक्षा करके अपने अनेक मन्त्रियों से यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुर में रखना चाहिये या नहीं। फिर तरुणी स्त्रियो द्वारा शीघ्र ही उनके नपुंसक होने की जाँच करायी। जब सक तरह से उनका नपुंसक होना ठीक प्रमाणित हो गया, तब यह सुन-समझकर उनहोंने बृहन्नला को कन्या के अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दी। शक्तिशाली अर्जुन विराटकन्या उत्तरा, उसकी सखियों तथा सेविकाओं को भी गीत, वाद्य एवं नृत्यकला की शिक्षा देने लगे। इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। छद्मवेश में कन्याओं के साथ रहते हुए भी अर्जुन अपने मन को सदा पूर्णरूप से वश में रखते और उन सबको प्रिय लगने वाले कार्य करते थे। इस रूप में वहाँ रहते हुए अर्जुन को बाहर अथवा अन्तःपुर के कोई भी मनुष्य पहवान न सके।

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में अर्जुनप्रवेश विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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