"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 56": अवतरणों में अंतर
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सारा ज्ञान, सारा प्रयत्न परम ज्ञान को, उस अन्तिम सरलता को प्राप्त करने का साधन है। प्रत्येक कर्म या उपलब्धि इस अस्तित्वमान् होने के कर्म की अपेक्षा कम है। सारा कर्म संदोष है।<ref>न्यायसूत्र, 1, 1, 18</ref>शकराचार्य ने इस बात को स्वीकार किया है कि ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी मृत्युपर्यन्त कार्य करते रहने में कोई ऐतराज़ की बात नहीं है।<ref>ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य, 3, 3, 32; भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2, 11; 3, 8 और 20। जिन लोगों को यह भय लगा रहता है कि उनका ध्यान भगवान् के चिन्तन से विचलित होकर इधन-उधर न चला जाए, वे स्वभावतः बाह्म कर्मों को करने से हिचकते हैं।</ref> इस प्रकार के व्यक्ति को केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से सब कत्र्तव्यों से ऊपर कहा जाता है।<ref>अलंकारों ह्ममस्माकं यद्ब्रह्मात्मावगतौ सत्यां सर्वकर्तव्यताहानिः। ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य 1, 1, 4</ref> इसका अर्थ है कि सिद्धान्ततः आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और व्यावहारिक कार्य के बीच कोई विरोध नहीं है।<br /> | सारा ज्ञान, सारा प्रयत्न परम ज्ञान को, उस अन्तिम सरलता को प्राप्त करने का साधन है। प्रत्येक कर्म या उपलब्धि इस अस्तित्वमान् होने के कर्म की अपेक्षा कम है। सारा कर्म संदोष है।<ref>न्यायसूत्र, 1, 1, 18</ref>शकराचार्य ने इस बात को स्वीकार किया है कि ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी मृत्युपर्यन्त कार्य करते रहने में कोई ऐतराज़ की बात नहीं है।<ref>ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य, 3, 3, 32; भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2, 11; 3, 8 और 20। जिन लोगों को यह भय लगा रहता है कि उनका ध्यान भगवान् के चिन्तन से विचलित होकर इधन-उधर न चला जाए, वे स्वभावतः बाह्म कर्मों को करने से हिचकते हैं।</ref> इस प्रकार के व्यक्ति को केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से सब कत्र्तव्यों से ऊपर कहा जाता है।<ref>अलंकारों ह्ममस्माकं यद्ब्रह्मात्मावगतौ सत्यां सर्वकर्तव्यताहानिः। ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य 1, 1, 4</ref> इसका अर्थ है कि सिद्धान्ततः आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और व्यावहारिक कार्य के बीच कोई विरोध नहीं है।<br /> |
१२:५१, २० अगस्त २०१५ का अवतरण
सारा ज्ञान, सारा प्रयत्न परम ज्ञान को, उस अन्तिम सरलता को प्राप्त करने का साधन है। प्रत्येक कर्म या उपलब्धि इस अस्तित्वमान् होने के कर्म की अपेक्षा कम है। सारा कर्म संदोष है।[१]शकराचार्य ने इस बात को स्वीकार किया है कि ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी मृत्युपर्यन्त कार्य करते रहने में कोई ऐतराज़ की बात नहीं है।[२] इस प्रकार के व्यक्ति को केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से सब कत्र्तव्यों से ऊपर कहा जाता है।[३] इसका अर्थ है कि सिद्धान्ततः आध्यात्मिक स्वतन्त्रता और व्यावहारिक कार्य के बीच कोई विरोध नहीं है।
यद्यपि अगर ठीक-ठीक कहा जाए, तो ज्ञानी ऋषि को करने के लिए कुछ बाक़ी नहीं बचता, ठीक वैसे ही, जैसे परमात्मा को करने के लिए कुछ बाक़ी नहीं है, फिर भी ज्ञानी ऋषि और परमात्मा दोनों ही के निर्वाह और प्रगति , लोकसंग्रह, के लिए कार्य करते है। हम यह भी कह सकते है, कि कार्य करने वाला परमात्मा है, क्योंकि व्यक्ति तो अपनी सब इच्छाओं से अपने-आप को ख़ाली कर चुका है।[४] वह कुद नहीं करता न किंचित् करोति। क्योंकि उसका कोई बाह्म प्रयोजन नहीं होता, इसलिए वह किसी वस्तु पर दावा नहीं करता और अपने-आप को स्वतःप्रवृत्ति के सम्मुख समर्पित कर देता है। परमात्मा उसके द्वारा कार्य करता है और यद्यपि इस प्रकार के व्यक्ति के लिए कोई भी पाप कर पाना असम्भव है, फिर भी उसके बारे में पाप और पुण्य का प्रश्न ही नहीं उठता।[५] आत्म की शान्ति में स्थिर होकर वह सब कर्मों का करने वाला, कृत्स्नकर्मकृत्, बन जाता है। उसे ज्ञात रहता है कि वह परमात्मा के कार्य का केवल साधन-मात्र है, निमित्तमात्रम्।[६]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न्यायसूत्र, 1, 1, 18
- ↑ ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य, 3, 3, 32; भगवद्गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2, 11; 3, 8 और 20। जिन लोगों को यह भय लगा रहता है कि उनका ध्यान भगवान् के चिन्तन से विचलित होकर इधन-उधर न चला जाए, वे स्वभावतः बाह्म कर्मों को करने से हिचकते हैं।
- ↑ अलंकारों ह्ममस्माकं यद्ब्रह्मात्मावगतौ सत्यां सर्वकर्तव्यताहानिः। ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य 1, 1, 4
- ↑ जैमिनीय उपनिषद्ः तू (परमात्मा) उसका करने वाला हैः त्वं बै तस्य् कर्तासि। “हमारे अन्दर ईसा का मन है।” (कोरिन्थियिन्स 2, 16); “अब मैं जीवित नहीं हूँ, परन्तु मेरे रूप में ईसा जी रहा है।” (गैलेशियन्स 2, 20)। टॉलरः “अपने कार्यो द्वारा वे फिर नहीं जा सकते...यदि किसी व्यक्ति को परमात्मा के पास आना हो, तो उसे अपने-आप को सब कर्मों से रिक्त करना होगा।
अकेले परमात्मा को कर्म करने देना होगा।” फ़ालोइंग आफ़ क्राइस्ट, 16, 17 सेण्ट टॉमस ऐक्वाइनासः “जिस मनुष्य का नेतृत्व पवित्र आत्मा कर रही है; उसके कार्य उसके अपने न होकर पवित्र आत्मा के कार्य हैं।”--सम्मा थियोलोजिया, 2, 1, 93-6 और 1। - ↑ सेण्ट जॉन के इन शब्दों से तुलना कीजिएः “जो भी कोई परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, वह पाप नहीं करता।”
- ↑ 11, 33