"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 57": अवतरणों में अंतर

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जब अर्जुन का लम्बा विषाद फलीभूत होता है, तब उेस पता चलता है कि परमात्मा की इच्छा में ही उसकी शान्ति निहित है।<ref>18, 73</ref> परमात्मा के नियन्त्रण के अधीन रहकर प्रकृति अपना काम करती रहती है। व्यक्ति की बुद्धि मन और इन्द्रियां महान् सार्वभौम प्रयोजन के लिए और उसी के प्रकाश में कार्य करती हैं। जय या पराजय उसे विचलित नहीं करती, क्योंकि वह सार्वभौम आत्मा की इच्छा से ही होती है। जो भी कुछ घटित होता है, उसे व्यक्ति राग या द्वेष के बिना स्वीकार कर लेता है। वह द्वैतों से ऊपर उठ चुका होता है (द्वन्द्वातीत)। वह उस कत्र्तव्य को, जिसकी उससे आशा की जाती है, कत्र्तव्य कर्म, व्यथा के बिना और स्वतन्त्रता तथा स्वतःस्फूर्ति के साथ करता है। सांसारिक मनुष्य संसार की विविध गतिविधियों में खोया रहता है। वह अपने-आप को परिवर्तनशील (क्षर) संसार में छोड़ देता है। निश्चलतावादी मनुष्य पीछे हटता हुआ परम ब्रह्म (अक्षर) की निःशब्दता में पहुँच जाता है।<br />
जब अर्जुन का लम्बा विषाद फलीभूत होता है, तब उेस पता चलता है कि परमात्मा की इच्छा में ही उसकी शान्ति निहित है।<ref>18, 73</ref> परमात्मा के नियन्त्रण के अधीन रहकर प्रकृति अपना काम करती रहती है। व्यक्ति की बुद्धि मन और इन्द्रियां महान् सार्वभौम प्रयोजन के लिए और उसी के प्रकाश में कार्य करती हैं। जय या पराजय उसे विचलित नहीं करती, क्योंकि वह सार्वभौम आत्मा की इच्छा से ही होती है। जो भी कुछ घटित होता है, उसे व्यक्ति राग या द्वेष के बिना स्वीकार कर लेता है। वह द्वैतों से ऊपर उठ चुका होता है (द्वन्द्वातीत)। वह उस कत्र्तव्य को, जिसकी उससे आशा की जाती है, कत्र्तव्य कर्म, व्यथा के बिना और स्वतन्त्रता तथा स्वतःस्फूर्ति के साथ करता है। सांसारिक मनुष्य संसार की विविध गतिविधियों में खोया रहता है। वह अपने-आप को परिवर्तनशील (क्षर) संसार में छोड़ देता है। निश्चलतावादी मनुष्य पीछे हटता हुआ परम ब्रह्म (अक्षर) की निःशब्दता में पहुँच जाता है।<br />
परन्तु गीता का आदर्श मनुष्य इन दोनों चरम सीमाओं से आगे पहुँचता है और पुरूषोत्तम की भाँति काम करता है, जो इस संसार में फंसे बिना इसकी सब सम्भावनाओं में मेल बिठाता है। वह कर्मो का करने वाला है और फिर भी करने वाला नहीं है, कर्तारम् अकर्तारम्। भगवान् अश्रान्त और सक्रिय कार्य करने वाले का आदर्श है, जो अपने कर्म द्वारा अपनी आत्मा की अखण्डता को खो नहीं बैठता। मुक्त आत्मा कृष्ण और जनक की भाँति शाश्वत रूप से स्वतन्त्र है।<ref>ईशोपनिषद् हमसे कहती है कि हम सारे संसार को भगवान् के निवास स्थान के रूप में देखें और कर्म करते रहें, क्योंकि इस प्रकार के कर्म हमें बन्धन में नहीं डालतेः न कर्म लिप्यते नरे।<br />
परन्तु गीता का आदर्श मनुष्य इन दोनों चरम सीमाओं से आगे पहुँचता है और पुरूषोत्तम की भाँति काम करता है, जो इस संसार में फंसे बिना इसकी सब सम्भावनाओं में मेल बिठाता है। वह कर्मो का करने वाला है और फिर भी करने वाला नहीं है, कर्तारम् अकर्तारम्। भगवान् अश्रान्त और सक्रिय कार्य करने वाले का आदर्श है, जो अपने कर्म द्वारा अपनी आत्मा की अखण्डता को खो नहीं बैठता। मुक्त आत्मा कृष्ण और जनक की भाँति शाश्वत रूप से स्वतन्त्र है।<ref>ईशोपनिषद् हमसे कहती है कि हम सारे संसार को भगवान् के निवास स्थान के रूप में देखें और कर्म करते रहें, क्योंकि इस प्रकार के कर्म हमें बन्धन में नहीं डालतेः न कर्म लिप्यते नरे।<br />
तुलना कीजिएः यः क्रियावान् स पण्डितः। महाभारत, वनपर्व, 312, 108। आनन्दगिरि ने कठोपनिषद् पर शंकराचार्य के भाष्य पर टिप्पणी करते हुए कहा है, 2, 19: <poem style="text-align:center">
तुलना कीजिएः यः क्रियावान् स पण्डितः। महाभारत, वनपर्व, 312, 108। आनन्दगिरि ने कठोपनिषद् पर शंकराचार्य के भाष्य पर टिप्पणी करते हुए कहा है, 2, 19:<poem> विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वती नास्ति कर्तृता।  
विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वती नास्ति कर्तृता।  
अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनकौ यथा।।</poem>
अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनकौ यथा।।
‘अध्यात्म रामायण’ में राम लक्ष्मण से कहता हैः ”जो व्यक्ति इस संसार की धारा में गिर पड़ा है, वह अदूषित रहता है; भले ही बाह्म रूप से वह सब प्रकार के कर्म करता भी रहे।”<poem>प्रवाहपतितः कार्य कुर्वन्नपि न लिप्यते।
</poem>‘अध्यात्म रामायण’ में राम लक्ष्मण से कहता हैः ”जो व्यक्ति इस संसार की धारा में गिर पड़ा है, वह अदूषित रहता है; भले ही बाह्म रूप से वह सब प्रकार के कर्म करता भी रहे।” <poem style="text-align:center">
बाह्मे सर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नति राघव।।</poem>
प्रवाहपतितः कार्य कुर्वन्नपि न लिप्यते।
</poem></ref> जनक अपने कत्र्तव्यों का पालन करता था और संसार की घटनाओं से क्षुब्ध नहीं होता था।<ref>“सचमुच मेरी वह सम्पत्ति असीम है, जिसमें मेरा कुछ भी नहीं है। यदि मिथिला जलकर राख हो जाए, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलेगा।” <poem>अनन्तं वत् में यस्य मे नास्ति किंचन।  
बाह्मे सर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नति राघव।।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचित् प्रदाह्मते।।</poem> --महाभारत, शान्तिपर्व, 7, 1</ref> मुक्त आत्माएं उन लोगों के पथ-प्रदर्शन के लिए कार्य करती है, जो विचारशील लोगों द्वारा स्थापित किए गए प्रमापों का अनुगमन करते हैं। वे इस संसार में रहती हैं, किन्तु अरपिचितों की तरह। वे शरीर में रहते हुए सब कठिनाइयों को सहती है।<ref>भागवत से तुलना कीजिएः भले आदमी संसार के दुःखों के लिए कष्ट सहते हैं ‘प्रायशो लोकतापेन तप्यन्ते साधवो जनाः’। वे अपने-आप को जलाते हैं, जिससे वे संसार को प्रकाशित कर सकें।</ref>
</poem></ref> जनक अपने कत्र्तव्यों का पालन करता था और संसार की घटनाओं से क्षुब्ध नहीं होता था।<ref>“सचमुच मेरी वह सम्पत्ति असीम है, जिसमें मेरा कुछ भी नहीं है। यदि मिथिला जलकर राख हो जाए, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलेगा।” <poem style="text-align:center">
अनन्तं वत् में यस्य मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचित् प्रदाह्मते।।
</poem>
--महाभारत, शान्तिपर्व, 7, 1</ref> मुक्त आत्माएं उन लोगों के पथ-प्रदर्शन के लिए कार्य करती है, जो विचारशील लोगों द्वारा स्थापित किए गए प्रमापों का अनुगमन करते हैं। वे इस संसार में रहती हैं, किन्तु अरपिचितों की तरह। वे शरीर में रहते हुए सब कठिनाइयों को सहती है।<ref>भागवत से तुलना कीजिएः भले आदमी संसार के दुःखों के लिए कष्ट सहते हैं ‘प्रायशो लोकतापेन तप्यन्ते साधवो जनाः’। वे अपने-आप को जलाते हैं, जिससे वे संसार को प्रकाशित कर सकें।</ref>


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०८:२१, २१ अगस्त २०१५ का अवतरण

12.कर्ममार्ग

जब अर्जुन का लम्बा विषाद फलीभूत होता है, तब उेस पता चलता है कि परमात्मा की इच्छा में ही उसकी शान्ति निहित है।[१] परमात्मा के नियन्त्रण के अधीन रहकर प्रकृति अपना काम करती रहती है। व्यक्ति की बुद्धि मन और इन्द्रियां महान् सार्वभौम प्रयोजन के लिए और उसी के प्रकाश में कार्य करती हैं। जय या पराजय उसे विचलित नहीं करती, क्योंकि वह सार्वभौम आत्मा की इच्छा से ही होती है। जो भी कुछ घटित होता है, उसे व्यक्ति राग या द्वेष के बिना स्वीकार कर लेता है। वह द्वैतों से ऊपर उठ चुका होता है (द्वन्द्वातीत)। वह उस कत्र्तव्य को, जिसकी उससे आशा की जाती है, कत्र्तव्य कर्म, व्यथा के बिना और स्वतन्त्रता तथा स्वतःस्फूर्ति के साथ करता है। सांसारिक मनुष्य संसार की विविध गतिविधियों में खोया रहता है। वह अपने-आप को परिवर्तनशील (क्षर) संसार में छोड़ देता है। निश्चलतावादी मनुष्य पीछे हटता हुआ परम ब्रह्म (अक्षर) की निःशब्दता में पहुँच जाता है।
परन्तु गीता का आदर्श मनुष्य इन दोनों चरम सीमाओं से आगे पहुँचता है और पुरूषोत्तम की भाँति काम करता है, जो इस संसार में फंसे बिना इसकी सब सम्भावनाओं में मेल बिठाता है। वह कर्मो का करने वाला है और फिर भी करने वाला नहीं है, कर्तारम् अकर्तारम्। भगवान् अश्रान्त और सक्रिय कार्य करने वाले का आदर्श है, जो अपने कर्म द्वारा अपनी आत्मा की अखण्डता को खो नहीं बैठता। मुक्त आत्मा कृष्ण और जनक की भाँति शाश्वत रूप से स्वतन्त्र है।[२] जनक अपने कत्र्तव्यों का पालन करता था और संसार की घटनाओं से क्षुब्ध नहीं होता था।[३] मुक्त आत्माएं उन लोगों के पथ-प्रदर्शन के लिए कार्य करती है, जो विचारशील लोगों द्वारा स्थापित किए गए प्रमापों का अनुगमन करते हैं। वे इस संसार में रहती हैं, किन्तु अरपिचितों की तरह। वे शरीर में रहते हुए सब कठिनाइयों को सहती है।[४]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18, 73
  2. ईशोपनिषद् हमसे कहती है कि हम सारे संसार को भगवान् के निवास स्थान के रूप में देखें और कर्म करते रहें, क्योंकि इस प्रकार के कर्म हमें बन्धन में नहीं डालतेः न कर्म लिप्यते नरे।
    तुलना कीजिएः यः क्रियावान् स पण्डितः। महाभारत, वनपर्व, 312, 108। आनन्दगिरि ने कठोपनिषद् पर शंकराचार्य के भाष्य पर टिप्पणी करते हुए कहा है, 2, 19:

     विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वती नास्ति कर्तृता।
    अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनकौ यथा।।

    ‘अध्यात्म रामायण’ में राम लक्ष्मण से कहता हैः ”जो व्यक्ति इस संसार की धारा में गिर पड़ा है, वह अदूषित रहता है; भले ही बाह्म रूप से वह सब प्रकार के कर्म करता भी रहे।”

    प्रवाहपतितः कार्य कुर्वन्नपि न लिप्यते।
    बाह्मे सर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नति राघव।।

    </poem>

  3. “सचमुच मेरी वह सम्पत्ति असीम है, जिसमें मेरा कुछ भी नहीं है। यदि मिथिला जलकर राख हो जाए, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलेगा।”

    अनन्तं वत् में यस्य मे नास्ति किंचन।
    मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचित् प्रदाह्मते।।

    --महाभारत, शान्तिपर्व, 7, 1
  4. भागवत से तुलना कीजिएः भले आदमी संसार के दुःखों के लिए कष्ट सहते हैं ‘प्रायशो लोकतापेन तप्यन्ते साधवो जनाः’। वे अपने-आप को जलाते हैं, जिससे वे संसार को प्रकाशित कर सकें।

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