"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 155": अवतरणों में अंतर

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दूसरी ओर , भागवत चैतन्य में प्रवेश करने के फलस्वरूप यह हो सकता है कि भगवान् हमारी सत्ता के मानव - अंगों में प्रवेश करें या उनमें आगे आकर प्रकट हों और अपने - आपको मनुष्य की प्रकृति , उसकी कर्मण्यता , उसके मन और शरीर तक ढाल दें; और तब इसे कम - से - कम अंशावतार तो कहा ही जायेगा। गीता कहती है कि ईश्वर हृदेश में निवास करते हैं, - अवश्य ही गीता का अभिप्राय सूक्ष्म शरीर के हृदय से है जो भाववेगों , संवेदनों और मनोमय चेतना का ग्रंथिस्थान है , जहां व्यष्टि - पुरूष भी अवस्थित है , - पर यहां वे परदे की आड़ में ही रहते हैं , अपनी माया से अपने - आपको ढके रहते हैं। परंतु , ऊपर उस लोक में , जो हमारे अंदर है पर अभी हमारी चेतना के परे है , जिसे प्रचीन तव्दर्शियों ने स्वर्ग कहा है , वहां ये ईश्वर और यह जीव दोनों एक साथ एक ही स्वरूप में प्रत्यक्ष होते हैं। इन्ही को कुछ संप्रदायों की सांकेतिक भाषा में पिता और पुत्र कहा गया है - पिता है भागवत पुरूष ओर पुत्र है भागवत मनुष्य जो नहीं से उन्हीं की परा प्रकृति से , परा माया से निम्न , मानव - प्रकृति में जन्म लेता है। इन्हीं परा प्रकृति , परा माया को जिनके द्वारा यह जीव अपरा मानव प्रकृति में उत्पन्न हेाता है , कुमारी माता१ कहा गया है। ईसाइयों के अवतारवाद का यही भीतरी रहस्य प्रतीत होता है। त्रिमूर्ति में पिता ऊपर इसी अंत: स्वर्ग में है ; पुत्र तथा गीता की जीवभूता परा प्रकृति इस लोक में, इस मानव - शरीर में दिव्य या देव - मनुष्य के रूप में है; और पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट ) दोनों को एक बना देती है और दूसरी में इन दोनों को परस्पर - व्यवहार होती है ; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि यह पवित्र आत्मा ईसा में उतर आयी थी और इसी अवतरण के फलस्वरूप ईसा के शिष्यों में भी, जो सामान्य मानव - कोटि के थे , उस महत्व चैतन्य की क्षमता आ गयी थी।
दूसरी ओर , भागवत चैतन्य में प्रवेश करने के फलस्वरूप यह हो सकता है कि भगवान् हमारी सत्ता के मानव - अंगों में प्रवेश करें या उनमें आगे आकर प्रकट हों और अपने - आपको मनुष्य की प्रकृति , उसकी कर्मण्यता , उसके मन और शरीर तक ढाल दें; और तब इसे कम - से - कम अंशावतार तो कहा ही जायेगा। गीता कहती है कि ईश्वर हृदेश में निवास करते हैं, - अवश्य ही गीता का अभिप्राय सूक्ष्म शरीर के हृदय से है जो भाववेगों , संवेदनों और मनोमय चेतना का ग्रंथिस्थान है , जहां व्यष्टि - पुरूष भी अवस्थित है , - पर यहां वे परदे की आड़ में ही रहते हैं , अपनी माया से अपने - आपको ढके रहते हैं। परंतु , ऊपर उस लोक में , जो हमारे अंदर है पर अभी हमारी चेतना के परे है , जिसे प्रचीन तव्दर्शियों ने स्वर्ग कहा है , वहां ये ईश्वर और यह जीव दोनों एक साथ एक ही स्वरूप में प्रत्यक्ष होते हैं। इन्ही को कुछ संप्रदायों की सांकेतिक भाषा में पिता और पुत्र कहा गया है - पिता है भागवत पुरूष ओर पुत्र है भागवत मनुष्य जो नहीं से उन्हीं की परा प्रकृति से , परा माया से निम्न , मानव - प्रकृति में जन्म लेता है। इन्हीं परा प्रकृति , परा माया को जिनके द्वारा यह जीव अपरा मानव प्रकृति में उत्पन्न हेाता है , कुमारी माता१ कहा गया है। ईसाइयों के अवतारवाद का यही भीतरी रहस्य प्रतीत होता है। त्रिमूर्ति में पिता ऊपर इसी अंत: स्वर्ग में है ; पुत्र तथा गीता की जीवभूता परा प्रकृति इस लोक में, इस मानव - शरीर में दिव्य या देव - मनुष्य के रूप में है; और पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट ) दोनों को एक बना देती है और दूसरी में इन दोनों को परस्पर - व्यवहार होती है ; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि यह पवित्र आत्मा ईसा में उतर आयी थी और इसी अवतरण के फलस्वरूप ईसा के शिष्यों में भी, जो सामान्य मानव - कोटि के थे , उस महत्व चैतन्य की क्षमता आ गयी थी।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:२६, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली

जीव के ब्रह्मभूत होने और उसी कारण भगवान् में, श्रीकृष्ण में निवास करने की बात स्वयं गीता भी कहती है, पर यह ध्यान में रहे कि गीता ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि जीव भगवन् या पुरूषोत्तम हो जाता है। हां, जीव के संबंध में गीता ने इतना अवश्य कहा है कि जीव सदा ही ईश्वर है, भगवान की अंशसत्ता है, कारण यह जो महामिलन है , यह जो उच्चतम भाव है यह आरोहण का ही एक अंग है ; और यद्यपि यह वह दिव्य जन्म है जिसे प्रत्येक जीव प्राप्त करता है , पर यह परमेश्वर का नीचे उतरना नहीं है , यह अवतार नहीं है , अधिक - से – अधिक , बौद्ध सिद्धांत के अनुसार इसे हम बुद्धत्व की प्राप्ति कह सकते हैं , यह जीव का अपने अभी के जायगतिक व्यष्टिभाव से जागकर अनंत परचैतन्य को प्राप्त होना है। इसमें अवतार की आंतरिक चेतना अथवा अवतार के लाक्षणिक कर्म का होना जरूरी नहीं है। दूसरी ओर , भागवत चैतन्य में प्रवेश करने के फलस्वरूप यह हो सकता है कि भगवान् हमारी सत्ता के मानव - अंगों में प्रवेश करें या उनमें आगे आकर प्रकट हों और अपने - आपको मनुष्य की प्रकृति , उसकी कर्मण्यता , उसके मन और शरीर तक ढाल दें; और तब इसे कम - से - कम अंशावतार तो कहा ही जायेगा। गीता कहती है कि ईश्वर हृदेश में निवास करते हैं, - अवश्य ही गीता का अभिप्राय सूक्ष्म शरीर के हृदय से है जो भाववेगों , संवेदनों और मनोमय चेतना का ग्रंथिस्थान है , जहां व्यष्टि - पुरूष भी अवस्थित है , - पर यहां वे परदे की आड़ में ही रहते हैं , अपनी माया से अपने - आपको ढके रहते हैं। परंतु , ऊपर उस लोक में , जो हमारे अंदर है पर अभी हमारी चेतना के परे है , जिसे प्रचीन तव्दर्शियों ने स्वर्ग कहा है , वहां ये ईश्वर और यह जीव दोनों एक साथ एक ही स्वरूप में प्रत्यक्ष होते हैं। इन्ही को कुछ संप्रदायों की सांकेतिक भाषा में पिता और पुत्र कहा गया है - पिता है भागवत पुरूष ओर पुत्र है भागवत मनुष्य जो नहीं से उन्हीं की परा प्रकृति से , परा माया से निम्न , मानव - प्रकृति में जन्म लेता है। इन्हीं परा प्रकृति , परा माया को जिनके द्वारा यह जीव अपरा मानव प्रकृति में उत्पन्न हेाता है , कुमारी माता१ कहा गया है। ईसाइयों के अवतारवाद का यही भीतरी रहस्य प्रतीत होता है। त्रिमूर्ति में पिता ऊपर इसी अंत: स्वर्ग में है ; पुत्र तथा गीता की जीवभूता परा प्रकृति इस लोक में, इस मानव - शरीर में दिव्य या देव - मनुष्य के रूप में है; और पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट ) दोनों को एक बना देती है और दूसरी में इन दोनों को परस्पर - व्यवहार होती है ; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि यह पवित्र आत्मा ईसा में उतर आयी थी और इसी अवतरण के फलस्वरूप ईसा के शिष्यों में भी, जो सामान्य मानव - कोटि के थे , उस महत्व चैतन्य की क्षमता आ गयी थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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