"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 184": अवतरणों में अंतर

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मन की अनिच्छा का असली कारण यह है कि उससे अपने निजी वारावरण से ऊपर उठने और जीवन की एक अधिक असाधारण और अधिक विशुद्ध वायु का सेवन करने के लिये कहा जात है , जहां के आनंद और शक्ति को वह अनुभव नहीं कर सकता , ओर उनकी वास्तविकता पर भी मुश्किल से विश्वास करता है।इस निम्नतर पंकिल प्रकृति के सुख ही उसके परिचित हैं और इन्हींको वह आसानी से भोग सकता है। निम्न प्रकृति के सुखों का भोग भी अपने - आपमें दोषपूर्ण और निरर्थक नहीं है ; प्रत्युत अन्नमय पुरूष जिस तामस अज्ञान और जड़त्व के अत्यंत अधीन होता है उससे ऊपर उठकर मानव - प्रकृति के ऊध्र्वमुखीन विकास के साधन की यही शर्त है ; परम आत्मज्ञन , शक्ति और आनंद की ओर मनुष्य का जो क्रमबद्ध आरोहण है उसकी यह राजसिक अवस्था है। परंतु यदि हम सदा इसी भूमिका पर बने रहें जिसे गीता ने मध्यमा गति कहा है तो हमारा अरोहण पूरा नहीं होता , आत्म - विकास अधूरा रह जाता है। जीव की सिद्धि का रास्ता सात्विक सत्ता और स्वभाव के भीतर से होकर वहां पहुंचता हे जो त्रिगुणातीत है।जो क्रिया हमें निम्न प्रकृति के विक्षोभों से बाहर निकाल सकेगी वह अवश्य ही हमारे मन , चित्त और हमारी आत्मा में समत्व की ओर गति होगी। परंतु यह बात ध्यान में रहे कि यद्यपि अंत में हमें निम्न प्रकृति के तीनों गुणों के परे पहुंचना है फिर भी हमें आंतरिक अवस्था में इन तीनों में से किसी एक गुण का आश्रय लेकर ही आगे बढ़ना होगा।
मन की अनिच्छा का असली कारण यह है कि उससे अपने निजी वारावरण से ऊपर उठने और जीवन की एक अधिक असाधारण और अधिक विशुद्ध वायु का सेवन करने के लिये कहा जात है , जहां के आनंद और शक्ति को वह अनुभव नहीं कर सकता , ओर उनकी वास्तविकता पर भी मुश्किल से विश्वास करता है।इस निम्नतर पंकिल प्रकृति के सुख ही उसके परिचित हैं और इन्हींको वह आसानी से भोग सकता है। निम्न प्रकृति के सुखों का भोग भी अपने - आपमें दोषपूर्ण और निरर्थक नहीं है ; प्रत्युत अन्नमय पुरूष जिस तामस अज्ञान और जड़त्व के अत्यंत अधीन होता है उससे ऊपर उठकर मानव - प्रकृति के ऊध्र्वमुखीन विकास के साधन की यही शर्त है ; परम आत्मज्ञन , शक्ति और आनंद की ओर मनुष्य का जो क्रमबद्ध आरोहण है उसकी यह राजसिक अवस्था है। परंतु यदि हम सदा इसी भूमिका पर बने रहें जिसे गीता ने मध्यमा गति कहा है तो हमारा अरोहण पूरा नहीं होता , आत्म - विकास अधूरा रह जाता है। जीव की सिद्धि का रास्ता सात्विक सत्ता और स्वभाव के भीतर से होकर वहां पहुंचता हे जो त्रिगुणातीत है।जो क्रिया हमें निम्न प्रकृति के विक्षोभों से बाहर निकाल सकेगी वह अवश्य ही हमारे मन , चित्त और हमारी आत्मा में समत्व की ओर गति होगी। परंतु यह बात ध्यान में रहे कि यद्यपि अंत में हमें निम्न प्रकृति के तीनों गुणों के परे पहुंचना है फिर भी हमें आंतरिक अवस्था में इन तीनों में से किसी एक गुण का आश्रय लेकर ही आगे बढ़ना होगा।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:२७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
19.समत्व

हमारे मन को जीवन से जो सुख मिलता है , उसका रहस्य यही है कि हमारी आत्मा जगत् के द्वन्द्वों में रस लेती है। यदि इस मन से इन सब विक्षोभों से ऊपर उठने और उस विशुद्ध आनंदमय पुरूष के अमिश्र सुख को प्राप्त करने के लिये कहा जाये जो सदा गुप्त रूप से इस द्वन्द्वमय जीवन में बल देता और स्थायित्व बनाये रखता है , तो वह तुरंत इस आवाहन से घबराकर पीछे हट जायेगा । वह ऐसे अस्तित्व पर विवास ही नहीं करता ,वह मानता है कि वह अस्तित्व है भी तो वह जीवन तो नहीं हो सकता , जगत् में चारों ओर जो वैचित्र्यमय जीवन देख पड़ता है जिसमें रहकर आनंद लेने का उसे अभ्यास है वैसा जीवन तो नहीं हो सकता , वह कोई बेस्वाद और नीरस चीज होगी। अथवा वह समझता है कि यह प्रयत्न उसके लिये अत्यंत कठिन होगा , वह ऊपर उठने के प्रयास से कतराता है , यद्यपि वास्तविकता यह है कि कामनामय पुरूष सुखस्वप्नों को चरितार्थ करने के लिये जितना प्रयत्न करता है उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक परिवर्तन अधिक कठिन नहीं है और कामनामय पुरूष अपने अनित्य सुखों और कामनाओं के लिये जो महान् संघर्ष और उत्कट प्रयास करता है उसे अधिक संघर्ष और प्रयास की इसमें आवश्यकता नहीं होती।
मन की अनिच्छा का असली कारण यह है कि उससे अपने निजी वारावरण से ऊपर उठने और जीवन की एक अधिक असाधारण और अधिक विशुद्ध वायु का सेवन करने के लिये कहा जात है , जहां के आनंद और शक्ति को वह अनुभव नहीं कर सकता , ओर उनकी वास्तविकता पर भी मुश्किल से विश्वास करता है।इस निम्नतर पंकिल प्रकृति के सुख ही उसके परिचित हैं और इन्हींको वह आसानी से भोग सकता है। निम्न प्रकृति के सुखों का भोग भी अपने - आपमें दोषपूर्ण और निरर्थक नहीं है ; प्रत्युत अन्नमय पुरूष जिस तामस अज्ञान और जड़त्व के अत्यंत अधीन होता है उससे ऊपर उठकर मानव - प्रकृति के ऊध्र्वमुखीन विकास के साधन की यही शर्त है ; परम आत्मज्ञन , शक्ति और आनंद की ओर मनुष्य का जो क्रमबद्ध आरोहण है उसकी यह राजसिक अवस्था है। परंतु यदि हम सदा इसी भूमिका पर बने रहें जिसे गीता ने मध्यमा गति कहा है तो हमारा अरोहण पूरा नहीं होता , आत्म - विकास अधूरा रह जाता है। जीव की सिद्धि का रास्ता सात्विक सत्ता और स्वभाव के भीतर से होकर वहां पहुंचता हे जो त्रिगुणातीत है।जो क्रिया हमें निम्न प्रकृति के विक्षोभों से बाहर निकाल सकेगी वह अवश्य ही हमारे मन , चित्त और हमारी आत्मा में समत्व की ओर गति होगी। परंतु यह बात ध्यान में रहे कि यद्यपि अंत में हमें निम्न प्रकृति के तीनों गुणों के परे पहुंचना है फिर भी हमें आंतरिक अवस्था में इन तीनों में से किसी एक गुण का आश्रय लेकर ही आगे बढ़ना होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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