"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 112": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
12.यज्ञ-रहस्य

आनुष्ठानिक यज्ञ संतति, सम्पत्ति और भोग की प्राप्ति का सम्यक् साधन हैं इस यज्ञ का विधि पूर्वक सम्पादन करने से आदित्य - लोक से वृष्टि होती है और सुख - समृद्धि तथा वंश-विस्तार का होना निश्चित हो जाता है मानव - जीवन देवताओं और मनुष्यों के बीच आदान - प्रदान का चिरंतन व्यापार है जिसमे मनुष्य देवताओं के दिये हुए भोग्य विषयों मे से यज्ञाहुति के द्वारा देवताओं को अंश प्रदान करते हैं और इसके बदले देवता उन्हें सम्पन्न , सुरक्षित और सर्वद्धित करते हैं। इसलिये समस्त मानव - कर्मो को अनुष्ठानिक यज्ञों और विधिवत् पूजनों के साथ करना होगा और उन्हें धर्म - संस्कार मानना होगा जो कर्म इस प्रकार देवताओं को अर्पित नहीं किया जाता, वह अभिशप्त होता है पहले आनुष्ठानिक यज्ञ किये बिना और देवताओं को चढ़ाये बिना जो भोग भोगा जाता वह पाप होता है । मोक्ष भी परम श्रेय भी , आनुष्ठानिक यज्ञ से प्राप्त होता है । इसे कभी नहीं छोडना चाहिये । मुमुक्षु को भी आनुष्ठानिक यज्ञ करते रहना चाहिये , यद्यपि व हो आसक्ति - रहित , आनुष्ठानिक यज्ञों और शास्त्रोक्त कर्मो को निःसंग होकर करने से ही जनक जैसों को आत्मसिद्धि और मुक्ति प्राप्त हुई। स्पष्ट है कि गीता का यह अभिप्राय नहीं हो सकता , क्योंकि यह बाकी ग्रंथ के विरूद्ध होगा। यज्ञ शब्द की जो उदबोधक व्याख्या चैथे अध्याय में की गयी है उसके बिना भी जो कुछ यहां कहा गया है उसी में यज्ञ शब्द की व्यापकता का सकेंत मिलता है। यहां कहा गया है कि यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है कर्म ब्रह्म से ब्रह्म अच्क्षरर से इसलिये सर्वगत ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं यहां पर इसलिये शब्द का पूर्वापर संबंध जिस ब्रह्म से सब कर्म उत्पह्म होत है उस ब्रह्म को हमें प्रचलित वेदवादियों के शब्द ब्रह्म के अर्थ में नहं बल्कि वेद का रूपकात्मक अर्थ करके सर्जनकारी शब्द को सर्वगत ब्रह्म के साथ , शाश्रत पुरूष के साथ , सब भूतों में जो एक आत्मा है उसके साथ तथा समस्त भूतों की क्रियाओं के अंदर प्रतिष्ठित जो कुछ है उसके साथ एक समझना होगा । वेद है भगवद्विषयक ज्ञान आगे चलकर एक अधय में श्रीकृष्ण कहेंगें कि मैं वह हूं जो सब वेदों का वेद्य अर्थात् ज्ञातव्य तत्व है वेदेश्षु वेद्यः पर उनके विषय का यह ज्ञान प्रकृति के द्वारा होन वाले त्रि.गुणात्मक र्को के अंदर उनकी जो सत्ता है उसकी का ज्ञान है? ऐसा कहा जा सकता है। है कि, प्रकृतिगत कर्मो में स्थित यह ब्रह्म या भगवतत्व , उस अक्षर ब्रह्म या पुरूष से उत्पन्न हुआ है जो निस्त्रगुण्य है प्रकृति के सब गुणों और गुण कर्मो के ऊपर है। ब्रह्म एक है , पर उसकी आत्म अभिव्यक्त् के दो पहलू है; एक है अक्षर पूस्यष आत्मा और दूसरा सब भूतों मं कर्मो का स्पष्ट और प्रर्वतक सर्वभूतानि, पदार्थमात्र की अचल सर्वस्थित निष्क्रिय पुरूष और प्रकृतिस्थ सक्रिय पुरूष ये ही ब्रह्म के दो भाव हैं अक्षर और क्षर।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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