"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 33": अवतरणों में अंतर
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०८:४६, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
यहां बाह्य कर्म के अधीन होकर रहने की अवस्था दूर हो जाती है और इसके स्थान पर कर्म की गहन गति से मुक्त पुरुष का अपने कर्म को स्वतः निर्धारित करने का सिद्धांत स्थापित हो जाता है। और, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, यही ब्राह्मी चेतना, कर्म से पुरुष की मुक्ति और अंतःस्थित तथा ऊध्र्वस्थित परमेश्वर के द्वारा स्वभाव में कर्मों का निर्धारण-यही कर्म के विषय में गीता की शिक्षा का मर्म है। गीता को समझना, और गीता जैसे किसी भी महान् ग्रंथ को समझना तभी संभव है जब उसका आदि से अंत तक और एक विकासात्मक शास्त्र के हिसाब से अध्ययन किया जाये। परंतु आधुनिक टीकाकरों ने, बंकिमचंद्र चटर्जी जैसे उच्च कोटि के लेखक से आरंभ कर जिन्होंने पहले-पहल गीता को आधुनिक अर्थ में कर्तव्य का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र बताया, सभी टीकाकरों ने गीता के पहले तीन-चार अध्यायों पर ही प्रायः सारा जोर दिया है, और उनमें भी समत्व की भावना और “कर्तव्य कर्म“ पर, और “कर्तव्य“ से इनका अभिप्राय वही है जो आधुनिक दृष्टि में गृहित है; कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ( कर्म में ही तेरा अधिकार है, कर्म फल में जरा भी नहीं )- इसी वचन को ये लोग गीता का महाकाव्य कहकर आप तौर पर उद्धृत करते हैं और बाकी के अध्याय और उनमें भरा हुआ उच्च तत्वज्ञान इनकी दृष्टि में गौण है; हां, ग्यारहवें अध्याय के विश्वरूप-दर्शन की मान्यता इनके यहां अवश्य है। आधुनिक मन-बुद्धि के लिये यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि तात्विक गूढ़ बातों और अतिदूरवर्ती आध्यात्मिक अनुसंधान की चेष्टाओं से यह बुद्धि घबरायी हुई है या अभी कल तक घबराती रही है और अर्जुन के समान कर्म का ही कोई काम में लाने योग्य विधान, कोई धर्म ढूंढ़ रही है। पर गीता जैसे ग्रंथ के निरूपण का यह गलत रास्ता है। गीता जिस समता का उपदेश देती है वह उदासीनता नहीं है- गीता के उपदेश की आधार शिला जब रखी जा चुकी और उस पर उपदेश का प्रधान मंदिर जब निर्मित हो चुका, तब अर्जुन को जो महान् आदेश दिया गया है कि, “उठ, शत्रुओं का संहार कर और समृद्ध राज्य का भोग कर“, उसमें कोरे परोपकारवाद की या किसी विशुद्ध विकार-रहित सर्वत्याग के भाव की ध्वनि नहीं है; गीता की समता एक आंतरिक संतुलन और विशालता की स्थिति है, जो आध्यत्मिक मुक्ति की आधारशिला है। इस संतुलन के साथ और इस प्रकार की मुक्ति की अवस्था में हमें उस कर्म का सम्यक् आचरण करने का आदेश मिलता है जो “कार्य कर्म“ है- कार्यं कर्म समाचर, गीता की यह शब्द योजना अत्यंत व्यापक है, इसमें सर्वकर्माणि, सब कर्मों का समावेश है, यद्यपि सामाजिक कर्तव्य या नैतिक कर्तव्य भी इसमें आ जाते हैं, पर इतने से ही इसकी इति नहीं होती, “कार्य कर्म “ इन सबका समावेश करता हुआ भी इन सबका अतिक्रम करके बहुत दूर तक विस्तृत होता है।
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