"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 76": अवतरणों में अंतर
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०९:५३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
सांख्यों के विश्लेषण में इस आनंद के साधन में शांत साक्षी की निष्क्रिय अनुमति मात्र ही कारण है ; निष्क्रिय रहकर साक्षी पुरूष बुद्धि और अहंकार के कार्य में अनुमंता होता है और निष्क्रिय रहकर ही वह उस बुद्धि के अहंकार से अलग हट जाने में अनुमति देता है। पुरूष द्रष्टा है, अनुमति का मूल कारण है, अभ्यास के द्वारा प्रकृति के कर्म को धारण करने वाला है, - इस प्रकार साक्षी, अनुमंता और भर्ता है, इसके सिवाय और कुछ नहीं । परंतु गीतोकक्त पुरूष प्रकृति का प्रभु भी है, वह ईश्वर है । जहां संकल्पात्मक बुद्धि का संचालन प्रकृति के हाथ में है , वहां सचेतन पुरूष ही सक्रिय रूप से इसका प्रवर्तन करता और इसे शक्ति देता है; वहीं प्रकृति का प्रभु है । जहां संकल्पात्मक बुद्धि के कार्य प्रकृति के हैं, वहां पुरूष ही सक्रिय रूप से इस बुद्धि को आधार और प्रकाश प्रदान करता है। वह केवल साक्षी ही नहीं, बल्कि ज्ञाता और ईश्वर भी है, ज्ञान और संकल्प का स्वामी भी है। प्रकृति की कर्म में प्रवृत्ति का वही परम कारण है। सांख्यों की विश्लेषणात्मक विवेचन - पद्धति में पुरूष और प्रकृति विश्व के दो कारण हैं; और इस समन्वयात्मक सांख्य में पुरूष , अपनी प्रकृति के द्वारा, विश्व का एकाम कारण है। हम तुरंत देख सकते हैं कि सांख्या - परंपरा की जकड़ी हुई कट्टर पंथी - विश्लेषण- प्रणाली से हम कितनी दूर निकल आये हैं ।
परंतु गीता आरंभ से जिस एक ,अद्वितीय पुरूष की बात कर रही है जो अक्षर, अचल और नित्य मुक्त है ,उसका क्या हुआ? वह अव्यय, अविकार्य , अज, अव्यक्त ब्रह्म है , फिर भी उसी के द्वारा यह सारा विश्व प्रसारित है। इसलिये ऐसा मालूम होगा कि ईश्वर तत्व उसकी सत्ता में है; एक और यदि वह अचल है तो दूसरी ओर समस्त कर्मो और गतियों का कारण और प्रभु भी है। पर कैसे ? और विश्व में जो अनेक सचेतन प्राणी हैं, कैसे हैं? ये तो ईश नहीं, अनीश ही प्रतीत होते हैं , क्योंकि ये त्रिगुण के कर्म और अहंकारजन्य भ्रम के वशीभूत हैं, और यदि ये सब एक ही आत्मा हैं , जैसा कि गीता का आशय मालूम होता है, तो यह प्रकृति में लीनता, वैश्यता और भ्राति कहां से उत्पन्न हुई, अथवा इसका सिवाय यह कहने के कि पुरूष सर्वथा निष्क्रिय है, दूसरा क्या समाधान ? और, फिर पुरूष का यह बहुत्व कहां से आया? अथवा यह क्या बात है कि जहां उस एक, अद्वितीय पुरूष की किसी एक शरीर और मन में तो मुक्ति होती है, वहीं अन्य शरीरों और मनों में वह बंधन के भ्रम में बना रहता है? ये शंकाएं हैं जिनका समाधान करना ही होगा, इन्हें यूं ही नहीं टाला जा सकता । गीता के वाद के अध्यायों में इन सब शंकाओं का, प्रकृति और पुरूष के विश्लेषण द्वारा समाधान किया गया है। इस विश्लेषण में कुछ ऐेसे नवीन तत्वों का अविष्कार किया गया है जो सांख्य - परंपरा के लिये तो पराये हैं , पर वैदांतिक योग के लिये उपयुक्त हैं।
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