"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 77": अवतरणों में अंतर
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०९:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
यहां तीन पुरूष या एक पुरूष के तीन पाद कहे गये हैं । उपनिषदो में सांख्य सिद्धांतों का विवेचन करते हुए कभी- कभी दो ही पुरूषों का वर्णन दीख पढ़ता है। एक मंत्र में यह वर्णन है कि एक अजा है जिसके तीन वर्ण हैं, यह प्रकृति के सनातन स्त्री - तत्व का वर्णन है जो अपने तीनों गुणों के साथ सतत सृष्टि – कर्म कर रही है ; और दो अज हैं, दो पुरूष हैं जिनमें से एक प्रकृति से लिपटा हुआ है और उसे भोगता है, दूसरा उसे त्याग देता है, क्योंकि वह उसके सब भोग भोग चुका है। दूसरे मंत्र में यह वर्णन है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी हैं, दोनों एक - दूसरे के सदा से सयूज सखा हैं ; एक उस वृक्ष के फल खाता है ( अर्थात् प्रकृतिस्थ पुरूष प्रकृति के विश्व - प्रपंच को भोगता है), दूसरा नहीं खाता, पर अपने सखा को देखता रहता है - यह निश्चल और नीरव साक्षी पुरूष है जो भोग से निवृत्त है; जब पहला दूसरे को देखता और यह जानता है कि सारी महिमा उसी की है तब वह दु:ख से मुक्त हो जाता है। दोनों मंत्रों में विभिन्न दृष्टि से वर्णन किया गया है, पर आशय दोनों का एक है।
उन दो पक्षियों से एक सदा निश्चल - नीरव मुक्त पुरूष है जिसके द्वारा यह विश्व प्रसारित है और जो अपने द्वारा प्रसारति इस विश्व को देाखता है, पर इससे निर्लिप्त रहता है; दूसरा प्रकृतिस्थ पुरूष है । प्रथम मंत्र यह बतलाता है कि दोनों पुरूष एक ही हैं, उसी एक चिदरुप पुरूष की बद्ध और मुक्त इन दो अवस्थाओं को प्रतिभाषित करते हैं; क्योंकि जो दूसरा अज है वह प्रकृति मे उतरकर उसके भोगों को भोगकर उनसे निवृत्त हुआ है । दूसरा मंत्र यह बात बतलाता है जो हमको पहले मंत्र से नहीं मिलती , कि पुरूष अपनी एकत्व की परमाव्स्था में सदा ही मुक्त ,अकर्ता और अनासक्त है और केवल अपनी निम्न सत्ता में स्थति होकर प्रकृति द्वारा सृष्ट प्राणियों के बहुत्व में उतर आता है और फिर किसी व्यक्तिभूत प्राणी के द्वारा वापस लौटकर प्रकृति से निवृत्त हो जाता और अपनी उच्चतर अवस्था में आ जाता है। एक ही सचेतन आत्मा की द्विविध अवस्था का यह सिद्धांत एक रास्ता तो खोल देता है, पर एक के अनेक होन की प्रक्रिया अब भी उलझी हुई है। इन दो पुरूषों में, गीता उपनिषदों के अन्य वचनों का आशय विवाद करते हुए एक और पुरूष मिलाती है, जिसकी महिमा यह सारी सृष्टि है । इस प्रकार तीन पुरूष हुए क्षर, अक्षर और उत्तम क्षर क्षरणशील विकार्य प्रकृति है, स्वभाव है ; यह जीव की बहुविध संभूति; यहां पर जो पुरूष है वह भागवत सत्ता की बहुत्वावस्था है, यही बहुपुरूष है , यह पुरूष प्रकृति से स्वतंत्र नहीं है, बल्कि यह प्रकृतिस्थ पुरूष है ।
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