"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 9": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ")
छो (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-9 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 9 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्र...)
 
(कोई अंतर नहीं)

१०:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
2.भगवद्गुरु

संसार के अन्य सब महान् धर्मग्रंथों के उपेक्षा गीता की यह विलक्षणता है कि वह अपने-आप में स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है; इसका निर्माण बुद्ध, ईसा या मुहम्मद जैसे किसी महापुरुष के आध्यात्मि जीवन के फलस्वरूप नहीं हुआ है, न यह वेदों और उपनिषदों के समान किसी विशुद्ध आध्यात्मिक अनुसंधान के युग का फल है, बल्कि, यह जगत् के राष्ट्र और उनके संग्रामों तथा मनुष्यों और उनके पराक्रमों के ऐतिहासिक महाकाव्य के अंदर एक उपाख्यान है जिसका प्रसंग इसके एक प्रमुख पात्र के जीवन में उपस्थित एक विकट-संकट से पैदा हुआ है। प्रसंग यह है कि सामने वह कर्म उपस्थित है जिससे अब तक सब कर्मों की परिपूर्णता होने वाली है; पर यह कर्म भयंकर, अति उग्र और खून-खराबी से भरा हुआ है और संधि की वह घड़ी उपस्थित हो गयी है जब उसे या तो इस कर्म से बिल्कुल हट जाना होगा या इसे इसके अवंश्य भावी कठोर अंत तक पहुंचाना होगा। कई आधुनिक समालोचकों की यह धारणा है कि गीता महाभारत का अंग ही नहीं है, इसकी रचना पीछे हुई है और इसके रचयिता ने इसको महाभारत मे इसलिये मिला दिया है कि इसको भी महान् राष्ट्रीय हाकाव्य की प्रामाणिकता और लोकप्रियता मिल जाये, किंतु यह बात ठीक है या नहीं, इससे कुछ आता-जाता नहीं।
मेरे विचार में तो यह धारणा गलत है, क्योंकि इसके विपक्ष में बड़े प्रबल प्रमाण हैं और पक्ष में भीतरी बाहरी जो कुछ प्रमाण है वह बहुत पोचा और स्वल्प है। परंतु यदि पुष्ट और यथेष्ट प्रमाण हो भी तो यह स्पष्ट ही है कि ग्रंथकार ने अपने इस ग्रंथ को महाभारत की बुनावट मे बुनकर इस तरह मिला दिया है कि इसके ताने-बाने महाभारत से अलग नहीं किये जा सकते, यही नहीं, बल्कि गीता में ग्रंथकार ने बार-बार उस प्रसंग की याद दिलायी है कि जिस प्रसंग से यह गीतोपदेश किया गया, केवल उपसंहार में ही नहीं, अत्यंत गंभीर तत्वनिरूपण के बीच-बीच में भी उसका स्मरण कराया है। ग्रंथकार का यह आग्रह मानना ही होगा और इस गुरु शिष्य दोनों का ही जिस प्रसंग की ओर बारंबार ध्यान खिंचता है उसे उसका पूर्ण महत्व प्रदान करना ही होगा। इसलिये गीता को सर्वसाधारण अध्यात्मशास्त्र या नीतिशास्त्र का एक ग्रंथ मान लेने से ही काम न चलेगा, बल्कि नीतिशास्त्र और अध्यात्मशस्त्र का मानव-जीवन में प्रत्यक्ष प्रयोग करते हुए ही व्यहार में जो कुछ संकट उपस्थित होता है उसे दृष्टि के सामने रखकर इस ग्रंथ का विचार करना होगा। वह संकट क्या है, कुरुक्षेत्र के युद्ध का आशय क्या है और अर्जुन की आंतरिक सत्ता पर उसका क्या असर होता है, इन बातों का हमें पहले से ही निश्चित कर लेना होगा, तब कहीं हम गीता के मतों और उपदेशों की केंद्रीय विचारधारा को पकड़ सकेंगे। यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि कोई गहन गंभीर उपदेश किसी ऐसे सामान्य से प्रसंग के आधार पर नहीं खड़ा हो सकता जिसके बाह्य रूप के पीछे कोई वैसी ही गहरी भावना और भयंकर धर्म-संकट न हो और जिसका समाधान नित्य के सामान्य आचार-विचार के मानक से किया जा सकता हो।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध