"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 34": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-" to "भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. ") |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-34 का नाम बदलकर भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 34 कर दिया गया है: Text replace - "भगव...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
१०:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
हमने इस खेल के नियम भी खुद नहीं बनाए और न हम ताश के पत्तों के बंटबारे पर ही नियन्त्रण रख सकते हैं। पत्ते हमें बांट दिए जाते हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे। इस सीमा तक नियतिवाद का शासन है। परन्तु हम खेल को बढि़या ढंग से या खराब ढंग से खेल सकते हैं। हो सकता है कि एक कुशल खिलाड़ी के पास बहुत खराब पत्ते आए हों और फिर भी वह खेल में जीत जाए। यह भी सभ्भव है कि एक खराब खिलाड़ी के पास अच्छे पत्ते आए हों और फिर भी वह खेल का नाश करके रख दे। हमारा जीवन परवशता और स्वतन्त्रता, दैवयोग और चुनाव का मिश्रण है। अपने चुनाव का समुचित रूप से प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सब तत्वों पर नियन्त्रण कर सकते हैं और प्रकृति के नियतिवाद को बिलकुल समाप्त कर सकते हैं। जहां भौतिक तत्व की गतियां, वनस्पतियों की वृद्धि और पशुओं के कार्य कहीं अधिक पूर्णतया नियन्त्रित रहते हैं, वहां दूसरी ओर मनुष्य में समझ है, जो उसे संसार के कार्य में विवेक पूर्वक सहयोग करने में समर्थ बनाती है।
वह किन्हीं भी कार्यो को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है; उसके लिए अपनी सहमति दे सकता है या सहमत होने से इनकार कर सकता है। यदि वह अपने बुद्धिमत्तापूर्ण संकल्प का प्रयोग नहीं करता, तो वह अपनी मनुष्यता के प्रतिकूल आचरण कर रहा है। यदि वह अपने मनोवेगों और वासनाओं के अनुसार अन्धा होकर कार्य करता जाता है, तो वह मनुष्य की अपेक्षा पशु की भाँति अधिक आचरण कर रहा होता है। मनुष्य होने के कारण वह अपने कार्यो को उचित सिद्ध करता है। हमारे कुछ कार्य केवल देखने में ही हमारे होते हैं। उनमें स्वतःप्रवृत्ति की भावना केवल दिखावटी होती है। कई बार हम उन प्रेरणाओं के अनुसार कार्य करते होते हैं, जो सम्मोहन की दशा में हमें दी जाती हैं। भले ही हम यह समझे कि हम उन कार्यों को सोच-समझकर, अनुभव करते हुए और अपनी इच्छा से कर रहे हैं, परन्तु सम्भव है, हम उस दशा में भी उन प्रेरणाओं को ही अभिव्यक्त कर रहे हों, जो हमें सम्मोहन की दशा में दी गई थी।
जो बात सम्मोहन की स्थिति के विषय में सत्य है, वही हमारे उन अनेक कार्यो के विषय में भी सत्य है, जो देखने में भले ही स्वतःप्रवृत्ति जान पड़ते हों, परन्तु वस्तुतः वैसे नहीं होते। हम बिलकुल नई सम्मतियों को दुहरा देते हैं और यह समझते हैं कि वे हमारे अपने चिन्तन का परिणाम हैं। स्वतःप्रवृत्त कर्म कोई ऐसी बाध्यतामूलक गतिविधि नहीं है, जिसकी ओर व्यक्ति को उसके अपने एकाकीपन या असहायता द्वारा धकेल दिया गया हो। यह तो सम्पूर्ण आत्म का स्वतन्त्र कर्म है। व्यक्ति को स्वतःप्रवृत्त या सृजनात्मक गतिविधि के सम्भव बनाने के लिए अपने प्रति पारदर्शन बन जाना चाहिए। उसके अन्दर विद्यमान विभिन्न तत्वों का एक आधारभूत समेकन हो जाना चाहिए।
यह व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपने रजस् और तमस् पर अपनी सत्व प्रकृति द्वारा, जो वस्तुओं को सच्चाई और कर्म के उचित विधान की खोज में रहती है, नियन्त्रण करे। जब हम अपनी सत्व प्रकृति के प्रभाव में रहकर कर्म कर रहे होते हैं, तब भी हम पूर्णतया स्वतन्त्र नहीं होते। सत्व-गुण भी हमें उतना ही बांधता है, जितना कि रजस् और तमस्। केवल इतना अन्तर है कि तब हमारी सत्य और पुण्य की कामनाएं अपेक्षाकृत उच्चतर होती हैं। ‘अह’ की भावना तब भी कार्य कर रही होती है। हमें अपने ‘अह’ से ऊपर उठना होगा और बढ़ते हुए उस सर्वोच्च आत्मा तक पहुँचना होगा, जिसकी कि अहं भी एक अभिव्यक्ति है। जब हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भगवान् के साथ एक कर देते हैं, तब हम त्रिगुणात्मक प्रकृति से ऊपर उठ जाते हैं। हम त्रिगुणातीत[१] हो जाते हैं और संसार के बन्धन से मुक्त हो जाते है।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 14, 21