"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 77": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-" to "भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. ") |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-77 का नाम बदलकर भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 77 कर दिया गया है: Text replace - "भगव...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
१०:५९, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
अर्जुन की दुविधा और विषाद
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादेअर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोअध्यायः।
यह है श्रीमद्भगवदगीता उपनिषद् में, जो कि ब्रह्मविद्या, योगशास्त्र और श्रीकृष्ण-अर्जुन-संवाद है, अर्जुन का विषादयोग नामक पहला अध्याय ।[१]
ब्रह्मविद्या: ब्रह्म का विज्ञान। वास्तविकता क्या है? क्या यह घटनाओं का अनवरत क्रम ही सब-कुछ है या इनके अलावा कुछ और भी वस्तु है, जिसका कभी अवक्रमण नहीं होता? वह क्या है, जो अपने -आप को इन विविध रूपों में प्रकट करने में समर्थ है? अनन्त सम्भावनाओं वाली इस समृद्ध लीला को वास्तविकता की प्रकृति को समझने में हमारी सहायता करना ब्रह्मविद्या का उद्देश्य है। तार्किक गवेषणा आत्मिक ज्ञान की प्राप्ति में सहायक है। शंकराचार्य ने अपनी पुस्तक ’अपरोक्षानुभूति’ में कहा है कि ज्ञान की उपलब्धि विचार के सिवाय अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती, जैसे संसार की वस्तुएं प्रकाश के बिना दिखाई नहीं पड़ सकतीं।[२]
योगशास्त्रः योग का शास्त्र। बहुत-से लोग हैं, जो समझते हैं कि दर्शन की जीवन से कोई संगति नहीं है। कहा जाता है कि दर्शन का सम्बन्ध वास्तविकता के परिवर्तन-रहित विश्व से है और जीवन का गतिविधि के अनित्य विश्व से। यह दृष्टिकोण इस तथ्य के कारण सत्य समझा जाने लगा कि पश्चिम में दार्शनिक चिन्तन उन नगर-राज्यों मे सबसे पहले शुरू हुआ था, जिनमें लोगों के दो वर्ग थे; एक तो धनी और ठाली-कुलीन लोग, जो दार्शनिक चिन्तन के विलास को भोगते थे और दूसरे, बहुत बड़ी संख्या में दास लोग, जो ललित और व्यावहारिक कलाओं की साधना से वंचित थे। माक्र्स की यह आलोचना, कि दार्शनिक लोग संसार की व्याख्या करते हैं, जब कि वास्तविक आलोचना कार्य इस संसार को बदलता है, गीता के रचयिता पर लागू नहीं होती; क्योंकि उसने न केलव संसार की एक दार्शनिक व्याख्या, ब्रह्मविद्या, प्रस्तुत की है, अपितु एक व्यावहारिक कार्यक्रम, योगशास्त्र भी, प्रस्तुत किया है।
हमारा संसार एक अद्भुत दृश्य नहीं है, कि जिसे देखकर मनन किया जाए; यह तो समर-भूमि है। केवल गीता को दृष्टि में व्यक्ति के स्वभाव में सुधार ही सामाजिक सुधार का उपाय है। कृष्णार्जुन-सवादः कृष्ण और अर्जुन के मध्य वार्तालाप। गीता के रचयिता ने मनुष्य के अन्दर परमात्मा की अनुभूत विद्यमानता को नाटकीय अभिव्यक्ति प्रदान की है। जब अर्जुन को अपने उचित कत्र्तव्य से विरत होने का प्रलोभन होता है, तब उसके-अन्दर विद्यमान शब्द (ब्रह्म), उसकी प्रामाणिक स्फुरणा उसके लिए आदिष्ट पथ स्पष्ट कर देती है, जब कि वह अपने निम्नतर आत्म की सूक्ष्म कानाफूसियों को त्याग देने में असमर्थ हो जाता है। उसकी आत्मा का आन्तरिकतम बीजांश सम्पूर्ण विश्व का भी दिव्य केन्द्र है। अर्जुन की गम्भीरतम आत्म का आत्म कृष्ण है।[३]
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह सामान्यतया पाई जाने वाली पुष्पिका है, जो मूल पाठ का अंश नहीं है। विभिन्न प्रतियों में अध्यायों के शीर्षकों में थोड़े-बहुत अन्तर हैं, परन्तु वे उल्लेखनीय नहीं है।
- ↑
नोत्पद्यते विना ज्ञान। विचारेणाअन्यसाधनैः । यथापदार्थभानं हि प्रकाशेन बिना क्वचित् ।।
- ↑ टालर से तुलना कीजिये, ’’इस प्रचुरता में आत्मा में परमात्मा के साथ एक समानता और अवर्णनीय निकटता आ जाती है। ’’’ आत्मा की इस गम्भीरतम, आन्तरिकतम और गुप्ततम गहराई में परमात्मा सारतः वस्तुतः और तत्वतः विद्यमान रहता है।’’