"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 40-46": अवतरणों में अंतर
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== | ==अष्टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 40-46 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
कुन्तीकुमार ! ये देवता, असुर, मनुष्य, पितर और तिर्यग् रूप से पाँच प्रकार के संसार की सृष्अि करने की इचदा रखकर पन्चभूतों से युक्त जगत् के प्रेरक होकर सबको अपने अधीन रखते हैं। उन्होंने ही क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की सृष्टि की है। इन्होंने जरायुज आदि चार प्रकार के प्राणियों से युक्त इस चराचर जगत् की सुष्टि करके चतुर्विध भूत समुदाय और कर्म- इन पाँचों की बीजरूपा भूमिका निर्माण किया। ये ही आकाश स्वरूप बनकर इस पृथ्वी पर प्रचुर जल की वर्षा करते हैं। राजन् ! इनहोंने ही इस विश्व को उत्पन्न किया है और ये ही आत्मयोनि श्रीकृष्ण अपनी ही शक्ति से सबको जीवन प्रदान करते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, लोक, ऋषि, पितर, प्रजा और संक्षेपतः सम्पूर्ण प्राणियों को इन्हीं से जीवन मिलता है। ये भगवान् भूतनाथ ही सदा विधिपूर्वक समस्त भूतों की सृष्अि की इच्छा रखते हैं। शुभ-अशुभ और स्थावर- जंगमरूप यह सारा जगबत् श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ है, इस बात पर विश्वास करो। भूत, भविष्य और वर्तमान सब श्रीकृष्ण का ही स्वरूप हैं। यह तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। | कुन्तीकुमार ! ये देवता, असुर, मनुष्य, पितर और तिर्यग् रूप से पाँच प्रकार के संसार की सृष्अि करने की इचदा रखकर पन्चभूतों से युक्त जगत् के प्रेरक होकर सबको अपने अधीन रखते हैं। उन्होंने ही क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की सृष्टि की है। इन्होंने जरायुज आदि चार प्रकार के प्राणियों से युक्त इस चराचर जगत् की सुष्टि करके चतुर्विध भूत समुदाय और कर्म- इन पाँचों की बीजरूपा भूमिका निर्माण किया। ये ही आकाश स्वरूप बनकर इस पृथ्वी पर प्रचुर जल की वर्षा करते हैं। राजन् ! इनहोंने ही इस विश्व को उत्पन्न किया है और ये ही आत्मयोनि श्रीकृष्ण अपनी ही शक्ति से सबको जीवन प्रदान करते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, लोक, ऋषि, पितर, प्रजा और संक्षेपतः सम्पूर्ण प्राणियों को इन्हीं से जीवन मिलता है। ये भगवान् भूतनाथ ही सदा विधिपूर्वक समस्त भूतों की सृष्अि की इच्छा रखते हैं। शुभ-अशुभ और स्थावर- जंगमरूप यह सारा जगबत् श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ है, इस बात पर विश्वास करो। भूत, भविष्य और वर्तमान सब श्रीकृष्ण का ही स्वरूप हैं। यह तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। |
०५:१९, २४ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
अष्टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
कुन्तीकुमार ! ये देवता, असुर, मनुष्य, पितर और तिर्यग् रूप से पाँच प्रकार के संसार की सृष्अि करने की इचदा रखकर पन्चभूतों से युक्त जगत् के प्रेरक होकर सबको अपने अधीन रखते हैं। उन्होंने ही क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की सृष्टि की है। इन्होंने जरायुज आदि चार प्रकार के प्राणियों से युक्त इस चराचर जगत् की सुष्टि करके चतुर्विध भूत समुदाय और कर्म- इन पाँचों की बीजरूपा भूमिका निर्माण किया। ये ही आकाश स्वरूप बनकर इस पृथ्वी पर प्रचुर जल की वर्षा करते हैं। राजन् ! इनहोंने ही इस विश्व को उत्पन्न किया है और ये ही आत्मयोनि श्रीकृष्ण अपनी ही शक्ति से सबको जीवन प्रदान करते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, लोक, ऋषि, पितर, प्रजा और संक्षेपतः सम्पूर्ण प्राणियों को इन्हीं से जीवन मिलता है। ये भगवान् भूतनाथ ही सदा विधिपूर्वक समस्त भूतों की सृष्अि की इच्छा रखते हैं। शुभ-अशुभ और स्थावर- जंगमरूप यह सारा जगबत् श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुआ है, इस बात पर विश्वास करो। भूत, भविष्य और वर्तमान सब श्रीकृष्ण का ही स्वरूप हैं। यह तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। प्राणियों का अन्तकाल आने पर साक्षात् श्रीकृष्ण ही मृत्युरूप बन जाते हैं। ये धर्म के सनातन रक्षक हैं। जो बात बीत चुकी है तथा जिसका अभी कोई पता नहीं है, वे सब श्रीकृष्ण से ही प्रकट होते हैं, यह निश्चित रूप से जान लो। तीनों लोकों में जो कुछ भी उत्तम, पवित्र तथा शुभ या अशुभ वस्तु है, वह सब अचिन्त्य भगवान् श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है, श्रीकृष्ण से भिनन कोई वस्तु है, ऐसा सोचना अपनी विपरीत बुद्धि का ही परिचय देना है। भगवान् श्रीकृष्ण की ऐसी ही महिमा है। बल्कि ये इससे भी अधिक प्रभावशाली हैं। ये ही परम पुरुष अविनाशी नारायण हैं। ये ही स्थावर-जंगमरूप जगत् के आदि, मध्य और अन्त हैं तथा संसार में जन्म लेने की इच्छा वाले प्राणियों की उत्पत्ति के कारण भी ये ही हैं। इन्हीं को अविकारी परमात्मा कहते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में महापुरुष माहात्म्य विषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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