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असूरी भाषा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 310 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डा० भगवतशरण उपाध्याय |
असूरी भाषा - सामी परिवार की प्राचीन अक्कादी की, बाबुली की ही भांति, एक शाखा। अक्कादी का यह नाम उस अक्काद नगर से पड़ा जो ई.पू. 24वीं सदी में प्रसिद्ध सम्राट् शर्रूकीन की राजधानी था। तभी अक्कादी को राजभाषा का पद मिला। कालांतर में अक्कादी, प्रदेश और काल के अनुसार, असूरी और बाबुली नामक जनबोलियों में विकसित होकर बँट गई। असूरी दजला नदी (इराक) की उपरली घाटी में और बाबुली दजला-फरात के सागरवर्ती दोआब में बोली जाती थी। काल क्रम से अक्कादी के तीन युग माने जाते हैं-1. प्राचीन काल,[१] 2. मध्यकाल[२] और 3. उत्तरकाल।[३] स्वाभाविक ही यही कालक्रम असूरी और बाबुली जनबोलियों का भी अपनी विकासपरंपरा में होगा। ई.पू. 500 के बाद भी असूरी और बाबुली बोली और लिखी जाती रहीं, पर साधारणत: तब उन इराकी नदियों के काँठे में प्राय: सर्वत्र आरामी का प्रचार हो गया था।
अक्कादी अथवा बाबुली असूरी भाषाओं की लिपि गैरसामी सुमेरी कीलाक्षरों से निकली है। दक्षिणी मेसोपोटामिया में बसनेवाले इन सूमेरियों से तृतीय सहस्राब्दी ई.पू. में पहले बाबुलियों ने उनकी लिपि सीखी, फिर प्राय: हजार वर्ष बाद उत्तर के असूरियों अथवा असुरों ने। हजारों विचारसंकेतों को ध्वनित करनेवाले 600 (लिपि) चिह सुमेरी में थे। इन चिहों में से कुछ केवल शब्दमूलक, कुछ इनके साथ साथ पदांशमूल्यक भी थे। बाबुलियों ने आरंभ में इस लिपि के केवल पदांश चिह्नों का उपयोग किया। बाबुलियों और असुरों ने कालांतर में, जब सुमेरी भाषा का प्रयोग मंदिरों में बंद हो गया, सुमेरी चिह्नों और शब्दों की बृहत् सूचियाँ बनी लीं। इनसे कई बोलियों को बड़ा बल मिला क्योंकि सुमेरी शब्दों के उनके लिपिचिहों के साथ बाबुली और असूरी में भी पर्याय प्रस्तुत हो गए। परिणाम यह हुआ कि असूरी में, इसके सामी होने और सामी भाषाओं से शब्दऋद्ध होने के बावजूद, सुमेरी शब्दों की बहुतायत हो गई और सुमेरी लिपि में लिखी जाने के कारण इसका उच्चारण भी पुरातन और असांप्रतिक हो गया।[४]