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अभिहितान्वयवाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 186 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. रामचंद्र पाडेंय |
अभिहितान्वयवाद कुमारिल मीमांसा और अन्य न्याय दर्शन में स्वीकार किया गया है कि शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थ होता है। एक शब्द स्वार्थबोधन के लिए दूसरे शब्द की अपेक्षा नहीं करता। वाक्य स्वतंत्र अर्थबोधन करनेवाले शब्दों का समूह होता है। स्वार्थबोधन करने के बाद शब्द वाक्य में अन्वित होते हैं। यह सिद्धांत अन्विताभिधानवाद का ठीक उलटा है। इसके अनुसार भाषा की इकाई शब्द ही है, वाक्य इकाइयों का समुदाय मात्र है। प्रकृति और प्रत्यय का पृथक् अर्थ होता है। चूँकि प्रकृति व्यवहार में प्रचलित है अत: वह स्वतंत्र रूप से अर्थबोधन करती है। प्रत्यय लोकप्रचलित नहीं है अत: उससे लोक में स्वतंत्र अर्थ है जैसा प्रकृति का। प्रकृत्यर्थ और प्रत्ययार्थ का पारस्परिक संबंध विशेषण-विशेष्य-भाव के रूप में होता है और इसको प्रकारतावाद कहते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ