"उद्योग में इलेक्ट्रॉनिकी": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
पंक्ति १: पंक्ति १:
{{लेख सूचना
{{लेख सूचना
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
|पृष्ठ संख्या=107
|पृष्ठ संख्या=105
|भाषा= हिन्दी देवनागरी
|भाषा= हिन्दी देवनागरी
|लेखक =
|लेखक =
पंक्ति ४०: पंक्ति ४०:
प्ररेण-तापर (इंडक्शन हीटिंग)-उद्योग में वस्तुओं को तप्त करने के लिए विद्युत्‌ का बहुत प्रयोग होता है। इस विधि से कार्य बहुत स्वच्छ होता है तथा खुली हुई ज्वाला उपस्थित नहीं रहती। धातुओं को तप्त करने के की विधि को प्रेरण-तापन तथा अचालक वस्तुओं को तप्त करने की विधि को परविद्युत्‌-तापन कहते हैं। इन दोनों विधियों के लिए उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा की आवश्यकता होती है। तप्त की जानेवाली धातु के टुकड़े के चारों ओर (चित्र 1) एक कुंडली लपेटकर उसमें प्रत्यावर्ती धारा का प्रवाह करते हैं। विद्युत्‌-प्रवाह से उत्पन्न चुंबकीय स्यंद (फ़्लक्स) वायु में से तथा कुंडली के समीप उपस्थित धातु में से भी होकर जाता है। धारा के उत्क्रमण से स्यंद में भी परिवर्तन होता है, जिसके कारण धातु में वोल्टता प्रेरित हो जाती है। इस वोल्टता के कारण धातु में अधिक मात्रा में भँवर धारा का प्रवाह होने लगता है। (चित्र 2)। तब धातु के प्रतिरोध के कारण ताप उत्पन्न हो जाता है।
प्ररेण-तापर (इंडक्शन हीटिंग)-उद्योग में वस्तुओं को तप्त करने के लिए विद्युत्‌ का बहुत प्रयोग होता है। इस विधि से कार्य बहुत स्वच्छ होता है तथा खुली हुई ज्वाला उपस्थित नहीं रहती। धातुओं को तप्त करने के की विधि को प्रेरण-तापन तथा अचालक वस्तुओं को तप्त करने की विधि को परविद्युत्‌-तापन कहते हैं। इन दोनों विधियों के लिए उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा की आवश्यकता होती है। तप्त की जानेवाली धातु के टुकड़े के चारों ओर (चित्र 1) एक कुंडली लपेटकर उसमें प्रत्यावर्ती धारा का प्रवाह करते हैं। विद्युत्‌-प्रवाह से उत्पन्न चुंबकीय स्यंद (फ़्लक्स) वायु में से तथा कुंडली के समीप उपस्थित धातु में से भी होकर जाता है। धारा के उत्क्रमण से स्यंद में भी परिवर्तन होता है, जिसके कारण धातु में वोल्टता प्रेरित हो जाती है। इस वोल्टता के कारण धातु में अधिक मात्रा में भँवर धारा का प्रवाह होने लगता है। (चित्र 2)। तब धातु के प्रतिरोध के कारण ताप उत्पन्न हो जाता है।


चित्र : 1
चित्र  


पारवैद्युत तापन-विद्युत्‌ से अचालक पदार्थों को तप्त करने के लिए 1,000 किलोसाइकिल या 1 मेगासाइकिल से अधिक आवृत्ति की शक्ति की आवश्यकता होती हे। चूंकि वस्तु में होकर धारा प्रवाहित नहीं हो सकती, इसलिए वस्तु को उच्च वोल्टतावाले धातु के प्लेटों के बीच में रखा जाता है (चित्र 3)। विद्युत्‌ क्षेत्र के तीव्र परिवर्तन के कारण अचालक वस्तु की अणु-सरंचना में भी वैसे ही परिवर्तन होने लगते हैं। अणुओं के बीच में घर्षण होने के कारण वस्तु में सब ओर समान ताप उत्पन्न हो जाता है। इस विधि से अचालक वस्तुओं की मोटी चादरों को बहुत थोड़े समय में तप्त किया जा सकता है।
पारवैद्युत तापन-विद्युत्‌ से अचालक पदार्थों को तप्त करने के लिए 1,000 किलोसाइकिल या 1 मेगासाइकिल से अधिक आवृत्ति की शक्ति की आवश्यकता होती हे। चूंकि वस्तु में होकर धारा प्रवाहित नहीं हो सकती, इसलिए वस्तु को उच्च वोल्टतावाले धातु के प्लेटों के बीच में रखा जाता है (चित्र 3)। विद्युत्‌ क्षेत्र के तीव्र परिवर्तन के कारण अचालक वस्तु की अणु-सरंचना में भी वैसे ही परिवर्तन होने लगते हैं। अणुओं के बीच में घर्षण होने के कारण वस्तु में सब ओर समान ताप उत्पन्न हो जाता है। इस विधि से अचालक वस्तुओं की मोटी चादरों को बहुत थोड़े समय में तप्त किया जा सकता है।


श्
श्


चित्र
चित्र
पंक्ति ५५: पंक्ति ५१:
ट्रैंज़िस्टर-इलेक्ट्रान-नली की ही भाँति एक अन्य युक्ति ट्रैंज़िस्टर का आविष्कार ब्रेटन, बार्डीन एवं शाँकले ने हाल में किया है। इसमें दो विभिन्न प्रकार के मणिभ (अधिकतर जर्मेनियम तथा सिलीकन के) रहते हैं। एक में एक इलेक्ट्रान का बाहुल्य तथा दूसरे में एक इलेक्ट्रान की न्यूनता रहती है। जब कोई धन विभव कम इलेट्रानवाले मणिभ की ओर लगाया जाता है, तो इलेक्ट्रान का प्रवाह अधिक इलेक्ट्रानवाले मणिभ से कम इलेक्ट्रानवाले मणिभ की ओर होने लगता है। इस प्रकार हमें एक बहुत छोटे आकार में दो विद्युदग्रोंवाली इलेक्ट्रान नली (डायोड) की क्रिया प्राप्त होती है। बधिरों का श्रवण-सहायक (हियरिंग एड), पाकेट रेडियों इत्यादि इसी की देन हैं। आजकल इसको प्रयोग में लानेवाले नवीन परिपथों पर गवेषणा कार्य पर्याप्त तत्परता से हो रहा है।<ref>सं.ग्रं.-जी.एम. शूट : इलेक्ट्रानिक्स इन इंडस्ट्री (1956); आर.एस. ग्लास्गो : प्रिंसिपुल्स ऑव रेडियो इंजीनियरिंग (1936);</ref>
ट्रैंज़िस्टर-इलेक्ट्रान-नली की ही भाँति एक अन्य युक्ति ट्रैंज़िस्टर का आविष्कार ब्रेटन, बार्डीन एवं शाँकले ने हाल में किया है। इसमें दो विभिन्न प्रकार के मणिभ (अधिकतर जर्मेनियम तथा सिलीकन के) रहते हैं। एक में एक इलेक्ट्रान का बाहुल्य तथा दूसरे में एक इलेक्ट्रान की न्यूनता रहती है। जब कोई धन विभव कम इलेट्रानवाले मणिभ की ओर लगाया जाता है, तो इलेक्ट्रान का प्रवाह अधिक इलेक्ट्रानवाले मणिभ से कम इलेक्ट्रानवाले मणिभ की ओर होने लगता है। इस प्रकार हमें एक बहुत छोटे आकार में दो विद्युदग्रोंवाली इलेक्ट्रान नली (डायोड) की क्रिया प्राप्त होती है। बधिरों का श्रवण-सहायक (हियरिंग एड), पाकेट रेडियों इत्यादि इसी की देन हैं। आजकल इसको प्रयोग में लानेवाले नवीन परिपथों पर गवेषणा कार्य पर्याप्त तत्परता से हो रहा है।<ref>सं.ग्रं.-जी.एम. शूट : इलेक्ट्रानिक्स इन इंडस्ट्री (1956); आर.एस. ग्लास्गो : प्रिंसिपुल्स ऑव रेडियो इंजीनियरिंग (1936);</ref>
   
   


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१०:४९, २२ जनवरी २०१७ का अवतरण

लेख सूचना
उद्योग में इलेक्ट्रॉनिकी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 105
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक गणेशप्रसाद श्रीवास्तव, शंकर स्वरूप

उद्योग में इलेक्ट्रानिकी इलेक्ट्रानिकी (इलेक्ट्रानिक्स) विज्ञान का वह विभाग है जिसमें इलेक्ट्रान नलियों का अथवा उसी प्रकार के उपकरणों का उपयोग होता है। (देखें इलेक्ट्रान नली)। इलेक्ट्रान नलियोंवाले यंत्रों का उपयोग बढ़िया मेल का माल उत्पन्न करने के लिए या साधारण मशीनों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से काम करने के लिए होता है। कुछ अन्य उपयोग ऐसे हैं जिनके लिए कोई संतोषजनक वैकल्पिक रीति नहीं है, जेसे इस्पात की चलती हुई तप्त छड़ों का ताप नापना, लगातार शीघ्रता से चलती हुई वस्तुओं का गिनना अथवा उनकी उत्तमता की परीक्षा करना। इलेक्ट्रानीय युक्तियों में से महत्वपूर्ण उपयोग ये हैं।-प्रत्यावर्ती विद्युत्‌-धारा (आल्टर्नेटिंग करेंट) को निर्दिष्ट (डाइरेक्ट) धारा में बदलना; शीघ्र और नियंत्रित सीमा तक धातुओं और अधातुओं को तप्त करना; वेग, ताप, दाब, स्राव, तनाव, रंग आदि का विविध औद्योगिक क्रियाओं में नियंत्रण और मोटाई, रंग, समय, आर्द्रता, ताप, वेग, विकिरण आदि का नापना।

आजकल के कई अतिप्रचलित यंत्र भी बिना इलेक्ट्रानिकी के बन नहीं पाते, जैसे रेडियो, दूरदर्शन (टेलीविज़न), चलचित्र (सिनेमा), प्रतिदीप्ति प्रकाश (फ्लुओरेसेंट लाइट), जन-व्याख्यान-प्रणाली (पब्लिक ऐड्रेस सिस्टम), टेलीफोन आदि। ये सब युक्तियाँ इलेक्ट्रानिकी की ही देन हैं। क्रमश: पिछले 25 वर्षों में औद्योगिक उपकरणों में इलेक्ट्रान-नली-युक्त यंत्रों का उपयोग मोटरों के उत्तम कार्यकरण में, धातुओं को जोड़ने में, बहु मूल्य धातुओं के पिघलाने में तथा 'विद्युतीय चक्षु' (इलेक्ट्रिक आई) द्वारा नियंत्रण करने में किया जा रहा है। दस वर्षों में यांत्रिक युद्ध (मिकैनिकल वारफेयर) ने इलेक्ट्रानिकी की युक्तियों का जलयानों, वायुयानों तथा टैंकों में अधिकाधिक प्रयोग कराया है। इनके अतिरिक्त युद्ध में प्रयुक्त प्रचुर सामग्री उन कलों के द्वारा तैयार की गई जिनमें इलेक्ट्रानिकी का प्रयोग किया गया था। युद्ध के पश्चात्‌ युद्ध में प्रयुक्त सामग्री की आवश्यकता कम हो गई, परंतु ये औद्योगिक उपकरण रह गए।

इलेक्ट्रानिकी के कुछ औद्योगिक उपयोगों के विषय में संक्षेप में नीचे लिख जा रहा है :

उद्योग में उपयुक्त कुछ ऋजुकारी-ऋजुकारक, उद्योग में जिनसे प्रत्यावर्ती विद्युत्‌-धारा निर्दिष्ट धारा में बदली जाती है, बहुधा उपयोग में लाए जाते हैं। वे प्राय: निम्नलिखित में से एक प्रकार के होते हैं : उच्चविभव केनाट्रान युक्त ऋजुकारी; उष्मित ऋणाग्र गैस नली ऋजुकारी; आरगन युक्त द्वध्रुिवी ऋजुकारी; टुंगर ऋजुकारी पारद-वाष्प-युक्त ऋजुकारी; फैनोट्रान, थाइरेट्रान ऋजुकारी; पारा ताल ऋजुकारी (मरक्यूरी पूल रेक्टिफायर्स), काच नली पादर चाप ऋजुकारी, स्थिर टैंक पारद चाप ऋजुकारी, इगनिट्रान ऋजुकारी, इत्यादि।

अधिक शक्ति के ऋजुकारी में बहुकला ऋजुकारी परिपथों (पॉलीफेज़ सर्किट्स) का उपयोग एककला ऋजुकारी परिपथों के उपयोग की उपेक्षा अनेक कारणों से अधिक लाभदायक होता है। प्रथम कारण यह है कि आजकल विद्युतीय शक्ति का उत्पादन तथा वितरण त्रि-कला-शक्ति के रूप में होता है। द्वितीय कारण यह है कि बहुकला ऋजुकारी द्वारा उत्पन्न वोल्टता एककला ऋजुकारी द्वारा उत्पन्न वोल्टता की अपेक्षा अधिक सम (असमतारहित) होती है।

उपर्युक्त उच्चशक्ति ऋजुकारी में या तो अनेक धनाग्रों (एनोड) के लिए एक ही ऋणाग्र रहता है या अनेक धनाग्र ऋजुकारी, जिनके ऋणाग्र जुड़े रहते हैं, प्रयोग में लाए जाते हैं। दोनों ही प्रकार के (उष्म तथा शीतल) ऋणाग्र प्रयोग में लाए जाते हैं।

मोटर तथा जनित्र की चाल का इलेक्ट्रानिक नियंत्रण-मोटर की चाल का नियंत्रण कागज के मिलों में विशेष रूप से किया जाता है, क्योंकि चाल पर ही कागज की मोटाई निर्भर रहती है। इन यंत्रों में एक्साइटर के क्षेत्र की प्रवाति धारा में परिवर्तन किया जाता है, जो जनित्र के लिए नियंत्रक क्षेत्र का उत्पादन करता है। यह जनित्र एक प्राइम मूवर द्वारा चालित होता है। जनित्र का आर्मेचर अपना उत्पादन उस मोटर को देता है जिसकी चाल का नियंत्रण करना होता है। एक दष्टि-धारा-जनित्र इस मोटर द्वारा चलाया जाता है; वह अपनी चाल के समानुपात में वोल्टता उत्पन्न करता है। यदि वह वोल्टता पूर्वनिश्चित वोल्टता से भिन्न होती है तो एक नियामक (रेगुलेटर) को सक्रिय कर देती है। यह नियामक इक्साइटर के क्षेत्र में ऐसा परिवर्तन ला देता है कि मोटर की चालू पूर्वनिश्चित मान पर आ जाए। इस नियामक में अनेक नलियों का उपयोग होता है। इस प्रकार इलेक्ट्रानिकी की सहायता से मोटर की चाल का नियंत्रण अतिसूक्ष्म मान तक किया जा सकता है।

उच्च आवृत्ति से गरम करने के औद्योगिक उपयोग-अत्यधिक शक्तिशाली उच्च आवृत्ति उत्तपादक का उपयोग पारविद्युत्‌ (डाइइलेक्ट्रिक) तथा प्ररेण (इंडक्शन) द्वारा गरम करने में बहुत किया जा रहा है। जब किसी पारविद्युत्‌ को संधारित्र के दो पट्टों के बीच में रखा जाता है और संधारित्र को एक शक्तिशाली उच्च आवृत्ति उत्पादक से संबद्ध कर दिया जाता है, तो एक हानिधारा (लॉस करेंट) के कारण पारविद्युत्‌ का ताप बढ़ जाता है और हवा पिघलने लगता है। इस प्रकार का नियम प्रेरणा द्वारा गरम करने के लिए भी है। ये युक्तियाँ साधारण गरम करने की अपेक्षा अधिक लाभदायक हैं।

प्ररेण-तापर (इंडक्शन हीटिंग)-उद्योग में वस्तुओं को तप्त करने के लिए विद्युत्‌ का बहुत प्रयोग होता है। इस विधि से कार्य बहुत स्वच्छ होता है तथा खुली हुई ज्वाला उपस्थित नहीं रहती। धातुओं को तप्त करने के की विधि को प्रेरण-तापन तथा अचालक वस्तुओं को तप्त करने की विधि को परविद्युत्‌-तापन कहते हैं। इन दोनों विधियों के लिए उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा की आवश्यकता होती है। तप्त की जानेवाली धातु के टुकड़े के चारों ओर (चित्र 1) एक कुंडली लपेटकर उसमें प्रत्यावर्ती धारा का प्रवाह करते हैं। विद्युत्‌-प्रवाह से उत्पन्न चुंबकीय स्यंद (फ़्लक्स) वायु में से तथा कुंडली के समीप उपस्थित धातु में से भी होकर जाता है। धारा के उत्क्रमण से स्यंद में भी परिवर्तन होता है, जिसके कारण धातु में वोल्टता प्रेरित हो जाती है। इस वोल्टता के कारण धातु में अधिक मात्रा में भँवर धारा का प्रवाह होने लगता है। (चित्र 2)। तब धातु के प्रतिरोध के कारण ताप उत्पन्न हो जाता है।

चित्र

पारवैद्युत तापन-विद्युत्‌ से अचालक पदार्थों को तप्त करने के लिए 1,000 किलोसाइकिल या 1 मेगासाइकिल से अधिक आवृत्ति की शक्ति की आवश्यकता होती हे। चूंकि वस्तु में होकर धारा प्रवाहित नहीं हो सकती, इसलिए वस्तु को उच्च वोल्टतावाले धातु के प्लेटों के बीच में रखा जाता है (चित्र 3)। विद्युत्‌ क्षेत्र के तीव्र परिवर्तन के कारण अचालक वस्तु की अणु-सरंचना में भी वैसे ही परिवर्तन होने लगते हैं। अणुओं के बीच में घर्षण होने के कारण वस्तु में सब ओर समान ताप उत्पन्न हो जाता है। इस विधि से अचालक वस्तुओं की मोटी चादरों को बहुत थोड़े समय में तप्त किया जा सकता है।


चित्र

प्रतिरोध संधान-धातु के दो टुकड़ों में उच्च विद्युत्‌-धारा (1,000 से 1,00,000 ऐंपियर) प्रवाहित करने से उनको संधानित (वेल्ड) किया जा सकता है, अर्थात्‌ मशीन में एक संधान परिवर्तक (ट्रैंसफ़ार्मर) रहता है, जो 220 या 440 वोल्ट की विद्युत्‌ की दो विद्युत्‌-दग्रों के बीच में से 1 से 10 वोल्टमापी में परिवर्तित कर देता है और साथ ही साथ उच्च विद्युद्धारा देता है। संधान करने के लिए यह आवश्यक है कि धारा का प्रवाह अल्प समय के लिए ही हो। इसी से एक संस्पर्श-कर्ता-परिपथ का प्रयोग किया जाता है। यह युक्ति परिपथ को शीघ्र-शीघ्र जोड़ती और तोड़ती रहती है। संस्पर्श-कर्ता-परिपथ के 'इग्नीट्रॉन' नामक इलेक्ट्रान नली का प्रयोग करते हैं। इग्नीट्रान एक विशेष प्रकार की गैस-युक्त नली होती है, जो उच्च विद्युत्‌-धारा को सँभाल सकती है। इसका उपयोग थायरेट्रान नली के समान होता है।

ट्रैंज़िस्टर-इलेक्ट्रान-नली की ही भाँति एक अन्य युक्ति ट्रैंज़िस्टर का आविष्कार ब्रेटन, बार्डीन एवं शाँकले ने हाल में किया है। इसमें दो विभिन्न प्रकार के मणिभ (अधिकतर जर्मेनियम तथा सिलीकन के) रहते हैं। एक में एक इलेक्ट्रान का बाहुल्य तथा दूसरे में एक इलेक्ट्रान की न्यूनता रहती है। जब कोई धन विभव कम इलेट्रानवाले मणिभ की ओर लगाया जाता है, तो इलेक्ट्रान का प्रवाह अधिक इलेक्ट्रानवाले मणिभ से कम इलेक्ट्रानवाले मणिभ की ओर होने लगता है। इस प्रकार हमें एक बहुत छोटे आकार में दो विद्युदग्रोंवाली इलेक्ट्रान नली (डायोड) की क्रिया प्राप्त होती है। बधिरों का श्रवण-सहायक (हियरिंग एड), पाकेट रेडियों इत्यादि इसी की देन हैं। आजकल इसको प्रयोग में लानेवाले नवीन परिपथों पर गवेषणा कार्य पर्याप्त तत्परता से हो रहा है।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-जी.एम. शूट : इलेक्ट्रानिक्स इन इंडस्ट्री (1956); आर.एस. ग्लास्गो : प्रिंसिपुल्स ऑव रेडियो इंजीनियरिंग (1936);