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११:१९, २४ जनवरी २०१७ का अवतरण
उदरपाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 91 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलशचंद्र शर्मा |
उदरपाद (गैस्ट्रोपोडा) मोलस्का समुदाय में सबसे अधिक विकसित जंतु हैं। इनके शरीर सममित नहीं होते। प्रावार (मैंटल) दो टुकड़ों में विभाजित नहीं रहता, इसलिए खोल भी दो पार्श्वीय कपाटिकाओं का नहीं वरन् एक ही असममित कपाटिका का बना हुआ रहता है। यह कपाटिका साधारणत: सर्पिल आकृति में कुं लीकृत होती है। इसके भीतर स्थित जंतु के शरीर का पृष्ठीय भाग भी, जिसमें आंतरंग (विसरा) का अधिकांश भाग रहता है और जिसे आंतरंग कुब्ब कहते हैं, सर्पिल आकृति में कुडलीकृत रहता है। शरीर ऊपर से नीची दिशा में चपटा रहता है। प्रावारीय गुहा में दो गलफड़ स्थित रहते हैं। बहुतों में केवल एक ही गलफड़ होता है। अधिकांश में एक शिर भी होता है जिसमें आकर्षणांग स्थित रहते हैं। शिर के पीछे अच्छी प्रकार से उन्नत एक औदरिक पैर रहता है। पैर का औदरिक तल चपटा, चौड़ा और बहुत फैला रहता है। वक्त्रगुहा में एक विशेष अवयव रहता है जिसको दंतवाही (ओडोंटोफ़ोर) कहते हैं। यह नन्हें नन्हें दाँतों के सदृश अवयव का आधार होता है। वृक्क केवल एक होता है। चेतासंहति में छह जोड़ी चेतागुच्छ पाए जाते हैं। उदरपाद एकलिंगों या उभयलिंगी हो सकते हैं। कृमिवर्धन में रूपांतरण का दृश्य भी देखने में आता है।
उदरपाद अधिकतर पानी में रहते हैं। इनकी आदिम जातियाँ समुद्रों में रहती हैं। ये समुद्र के पृष्ठ पर रेंगती हैं, कुछ कीचड़ या बालू में घर बनाती हैं या चट्टानों में छेद करती हैं। कुछ ऐसे भी उदरपाद हैं जो समुद्र के पृष्ठ पर उलटे रहकर तैरते हैं; विशेषकर टेरोपॉड और हेटेरोपॉड, जिनके पैर मछली के पक्षों (फ़िन्स) के समान होते हैं, खुले समुद्र के पृष्ठ पर तैरते देखे जाते हैं।
उदरपाद समुद्र में 18,00 फुट की गहराई तक पाए जाते हैं। बहुतेरे उदरपाद मीठे जल में भी रहते हैं। पलमोनेट नामक उदरपाद स्थल और ऊँचे ऊँचे पहाड़ों पर भी पाए जाते हैं। निम्न केंब्रियन युग के बहुतेरे जीवाश्मभूत उदरपादों का भी पता चला है।
घोंघा (स्नेल), मंथर (स्लग), पैरैला, एपलीशिया तथा ट्राइटन उदरपादों के मुख्य उदाहरण हैं। घोंघा और मंथर मनुष्य के भोजन के लिए उपयुक्त होते हैं। कुछ जंतु उद्यानों में पौधों को हानि पहुँचाते हैं। अनेक उदरपादों के खोलों से अलंकार, यंत्र तथा बरतन बनते हैं। कौड़ियों का पहले मुद्रा या सिक्के के रूप में प्रयोग होता था। शंख, जो मंदिरों में बजाया जाता है, एक विशेष उदरपाद की खोल है।
संरचना-मोलस्का समुदाय के जंतुओं का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से पता चलता है कि उदरपादों के पूर्वज के सारे शरीर की गठन सममित थी। अन्नस्रोतस सीधा, गुदद्वार पीछे की ओर, दो गलफड़ जिनमें सूत्र अक्ष के दोनों ओर रहते थे, प्रावार गुहा पीछे की ओर और दो वृक्क होते थे परंतु वर्तमान उदरपादों में, विशेषकर स्ट्रेप्टोन्यूरा गोत्र के उदरपादों में, केवल एक खोल रहती है जो सर्पिल आकृति में कुंडलीकृत होती है। आंतरंग कुब्ज के अतिरिक्त केवल एक वृक्क और एक गलफड़ होता है। प्रावारगुहा एवं गुदद्वार अग्रभाग में रहते हैं। यह साथ के चित्रों से विदित होगा।
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घोंघा, एक उदपाद
1. स्पर्शश्रृंग; 2. आँख; 3. श्वासछिद्र (पल्मोनरी ऑरिफ़िस)
विशेषज्ञों का मत है कि उदरपादों की इस असममित रचना का कारण केवल ऐसे खोल का विकास है जो एक टुकड़े में हो और शरीर के सारे अवयवों और औदरिक मांसल पैरों को भी अच्छी तरह ढककर उनकी रक्षा कर सके।
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घोंघे का कवच
काट (सेक्शन)
ऐसा खोल कुंतलवलयित हो ही सकता है। इसके बनने के लिए यह आवश्यक था कि प्रावार गुहा, गलफड़ और मलोत्सर्ग छिद्र ये सभी जंतु के शिर के पास खोल के द्वार पर आ जाएँ। यह तभी हो सकता है जब प्रावारगुहा और उसके भीतर के सब अवयव अपना पुराना पीछेबाला स्थान छोड़कर आगे आ जाएँ, और उदरपादों के विकास में ऐसा हुआ भी है। इससे जंतु के एक ओर की वृद्धि होती है, दूसरी ओर की रुक जाती है। बहुधा दाहिनी ओर की वृद्धि रुक जाती है ओर बाई ओर की बढ़ती है। परिणाम यह होता है कि प्रावारगुहा तथा अन्य सब अवयव, जो इसमें स्थित रहते हैं, दाहिनी ओर घुमते हुए आगे बढ़ते हैं। अंत में गुदद्वार मुख के बाई ओर आ जाता है। इस सारी घटना को ऐंठन (टॉर्शन) कहते हैं। इसमें शरीर अपने ही स्थान पर रहता है, परंतु अन्य कोमल अवयव अपने स्थान से पृष्ठ-उदर-रेखा पर लंब अक्ष के परित: घूमकर 1800 तक हट जाते हैं। इसी तरह की ऐंठन दिगंत अक्ष के परित भी होती है जिससे आंतरंग कुब्ब पीठ पर आ जाता है। ये बातें साथ के चित्र से भली भाँति समझ में आ जाएँगी।
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चित्र 1 में शरीर के सब अवयव प्राय: सममित हैं; 2, 3 और 4 में इनके दाहिने तथा सामनें
की ओर सथानांतरण की क्रमिक अवस्थाएँ दिखाई गई हैं; 5 में गुदा घूमते घूमते
फिर बाई और पहुँच गई है। यही अंतिम अवस्था है।
विस्थापन का फल -(1) अवयवों के विस्थापन के कारण अन्य स्रोतस फंदेदार हो जाते हैं और आंतरंग कुब्ब पीठ पर आ जाता है; (2) फुफ्फुस-आंतरंग विकृत होकर द्विपाद की आकृति का हो जाता है; (3) दाहिनीओर का फुफ्फुस आंतरंग-योजी आँतों के ऊपर और बाई तरफ का योजी आँत के नीचे हो जाता है; (4) युग्म अवयवों में कमी हो जाती है--स्ट्रेप्टोन्यूरा गोत्र के उदरपादों में केवल एक वृक्क और एक गलफड़ पाया जाता है।
यूथिन्यूरा गोत्र के उदरपादों में ऐंठन की विपरीत क्रिया 'अनैठन' होती है। इससे प्रावारगुहा, गुदद्वार, वृक्क तथा गलफड़ दाहिनी ओर से पीछे की ओर खिसकने लगते हैं और फुफ्फुस-आंतरंग-योजी अपने विकृत रूप को छोड़कर सीधी हो जाती है। परंतु प्रत्येक अवयव एकल ही रहता है। खोल छोटा हो जाता या पूर्णतया लुप्त हो जाता है। पल्मोनेटा (भू-घोंघों) में इस क्रिया में थोड़ा अंतर आ जाता है-खोल बना रहता है और फुफ्फुस-आंतरंग-पाश (लूप) छोटा हो जाता है।
खोल-उदरपादों के खोल बहुधा कुंतलवलयित होते हैं, परंतु पैटेला जैसे उदरपादों के खोल शंकु (कोन) की आकृति के होते हैं। यदि कुंतलवलयित खोलों में शीर्ष से लेकर खोल के मुख तक कुंतल (छल्ले) घड़ी की सुइयों के चलने की भाँति रहते हैं तो खोल को दक्षिणावर्त (डेक्स्ट्रल) कहते हैं; इसके विपरीत यदि कुंतल (छल्लों) का घुमाव घड़ी की सुइयों के चलने को दिशा से उलटी ओर होता है तो उसकी वामावर्त (सिनिस्ट्रल) कहते हैं। वामावर्त खोल बहुत कम पाए जाते हैं।
यदि कुंतल (छल्ले) केंद्रीय अक्ष के लंब समतल में रहने के बदले तिरछे बने रहते हैं तो खोल लंबा, नुकीला और गावदुम होता है, परतु यदि उनमें तिरछापन नहीं होता तो खोल चपटे कहलाते हैं। खोल के मुख का किनारा परितुंड (पेरिस्टोम) कहलाता है। यह या तो संपूर्ण होता है या एक तरफ कटा हुआ, जहाँ से निनाल (साइफन) निकलता है। खोल का मुख साधारणत: एक ढक्कन से बंद रहता है जो पैर से चिपटा रहता है। भूमि पर रहनेवाले उदरपादों में ढक्कन नहीं होता। उनका मुख जाड़े में एक चिपचिपे लसदार पदार्थ से बंद रहता है।
बहुधा कौड़ियों (साइप्रिया मोनाटा) में प्रावार का किनारा, जिसपर बहुत सा स्पर्शिकाएँ (टेंटेकल) भी होती हैं, खोल के मुख के बाहर निकलकर उसको ढक लेता है।
ऐफ़ीज़िया नामक उदरपाद में प्रावार खोल को पूर्णतया ढक लेता है। इसका खोल पूर्ण रूप से विकसित न होने के कारण जंतु के शरीर को नहीं ढक सकता।
चित्र : ऊर्मिल अरुणवलिक (बक्सिनम अंडेटम), एक उदरपाद
(कवच हटाने के पश्चातज्ञ् गंधांग (ऑस्फ्ऱेडियम) को ढकनेवाले प्रावार को
हटाकर उसके नीचे के भाग दिखाए गए हैं) 1. निनाल (साइफ़न); 2.
गंधांग (ऑस्फ्ऱेडियम); 3. गलफड़ (ब्रैंकिआ); 4. श्लेष्मिक ग्रंथियाँ।
डोरिस तथा ईओलिस नामक उदरपादों में खोल नहीं रहता। उन उदरपादों में भी खोल नहीं रहता जो खुले समुद्र में बहते और तैरते रहते हैं।
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चित्र : मासुरक्लोम (ईओलिस) नामक समुद्रीय मृदुमंथर
इसका पृष्ठ अनेक पतले दंड सदृश प्रवर्धों से ढका हुआ होता है।
लीमैक्स नामक उदरपादों में भी खोल नाममात्र ही रहता है। अधिकतर प्रावार ही इसको ढके रहता है।
पाद -इस वर्ग के जंतुओं के भिन्न-भिन्न वंशों में पैर का विकास भिन्न-भिन्न है। साधारणत: पैर मांसल और थोड़ा बहुत लंबा तथा अपेक्षाकृत चौड़ा होता है। नीचे का तल चिकना तथा चौरस होता है। इन्हीं से पेशी तंतुओं की सिकुड़न द्वारा जंतु रेंगता है। अंध्रांत्र (सीकम) में पैर के ऊपर तथा तल पर पक्ष्म होते हैं। बहुधा पैर में ग्रंथि होती है जिससे एक लिबलिबा पदार्थ निकलता है। इससे मार्ग चिकना हो जाता है और रेंगने में सुगमता होती है।
उदरपाद का लाक्षणिक पैर तीन भागों का होता है। अग्रपाद, जो कुछ उदरपादों में छेद करने के काम आता है, मध्यपाद और पश्चपाद। चलने में मध्यपाद महत्वपूर्ण होते हैं। मिटिलस नामक उदरपादों में पैर बहुत छोटे होते हैं।
एफ़ीज़िया नामक उदरपादों के पैर के पार्श्ववर्ती भाग मछली के पक्ष के समान तैरने के काम आते हैं। टेरोपॉड और हेटेरोपॉड नामक उदरपाद अपने पैर से खुले समुद्र के पानी में तैरते तथा बहते हैं।
शिर -उदरपादों में शिर खूब विकसित होता है। यह शरीर से ग्रीवा के समान एक अंग द्वारा रहता है। मुख शिर के अग्रभाग पर कुछ नीचे की ओर स्थित रहता है। बहुतों में मुख के बाहर निकलनेवाला एक अंग लंबी सूँड़ सा होता है। शिर के पृष्ठ पर एक या दो जोड़ी पतली स्पर्शिकाएँ (टेंटेकल) होती हैं। स्पर्शिकाओं की जड़ के पास आँखें होती हैं। स्पर्शिकाओं की पहली जोड़ी छोटी होती है और सूँघने का काम करती है। पल्मोनेटा (भू-घोंघों) में आँखें स्पर्शिकाओं की दूसरी जोड़ी के सिरे पर स्थित रहती हैं।
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(प्रावार गुहा (मैंटल कैविटी) और ऊपर का प्रकवच दोनों को पारदर्शी मानकर, दत्तेदार गलफड़वाले घोंघे के अंग; ऊपर से देखने पर)
1. मुँह; 2. मस्तिष्क गुच्छिका (ब्रेन गैग्लिअन); 3. और 9 पैर; 4. निनाल (साईफ्ऱन); 5. गंधांग (ऑस्फ्ऱेडियम); 6. एक क्लोम (गलफड़); 7. तीन गुच्छिकाओं में से एक; 8.हृदयावरण में हृदय; 10. ढापन (ओपरक्यूलम)।
प्रावार -शरीर की दीवार की उस परत को प्रावार (मैंटल) कहते हैं जिसमें बाहरी कड़ी खोल (कवच) का निर्माण करनेवाली ग्रंथियाँ रहती हैं। यह जंतु की दाहिनी ओर रहता है। प्रावार और वास्तविक शरीर के बीच एक गुहा रहती है जिसको प्रावारीय गुहा कहते हैं। जिन उदरपादों में खोल कुंतलवलयित होता है उनमें प्रावारीय गुहा शरीर के अग्र भाग में होती है। इस गुहा में गुदद्वार, वृक्क और गलफड़ रहते हैं। प्रावारीय गुहा का बाहरी मुख चौड़ा होता है। प्रावार के एक किनारे नल की आकृति का वह अंग रहता है जिसे साइफन कहते हैं; इसमें ताजा पानी साँस लेने के लिए आता है और निकल भी जाता है। बहुधा कौड़ियों में प्रावार का किनारा, जिसपर बहुत से स्पर्शश्रृंग भी रहते हैं, खोल के मुख के बाहर निकलकर खोल को ढक लेता है।
चित्र : उदरपादों के कवच
तीन विभिन्न रूप।
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रम्य सर्यक (सोलेंरिम पर्सपेक्टिवम)
नामक उदरपाद (नीचे से)
एफ़ीज़िया नामक उदरपाद में प्रावार कवच को पूर्णतया ढक लेता है। इसमें कवच पूर्णतया विकसित नहीं होता; इसलिए जंतु के शरीर को नही ढक सकता।
श्वास संस्थान -साधारणतया गलफड़ दो होते हैं, परंतु अधिकतर बाईं ओरवाला गलफड़ ही पूर्ण विकसित जंतु में कार्यशील रहता है। जिन उदरपादों में दो गलफड़ रहते हैं उनमें प्रत्येक गलफड़ के अक्ष में दोनों ओर गलफड़-सूत्र लगे रहते हैं और उकना एक सिरा शरीर से जुड़ा रहता है। एक गलफड़वाले उदरपादों में, जैसे ट्राइटन में, गलफड़ के अक्ष के एक ही ओर सूत्र होते हैं और गलफड़ का पूरा अक्ष शरीर से जुड़ा रहता है।
ऊपर से देखते हुए :1. मुँह; 2. हृदयावरण में हृदय; 3. पृष्ठ पर द्विरावृत, बायाँ परिपाद (एपिपोडियम); 4. आँतों का द्वार; 5. और 9. दाहिना परिपाद; 6. गलफड़, जिसके सम्मुख गंधांग (ऑस्फ्ऱेडियम) दिखाई पड़ता है; 7. अनुद्वेष्टित (अनट्विस्टेड) तंत्रिका पाश पर की दो गुच्छिकाओं (गैग्लिंआ) में से एक; 8. गुच्छिकाओं सहित तंत्रिकावलय।
न्यूडीब्राउखों में गलफड़ नहीं होते, श्वसरकार्य द्वितीयक गलफड़ द्वारा संपन्न होता है। यह इयोलिस नामक उदरपादों में समूचे पृष्ठतल पर विस्तृत रहता है और डोरिस नामक उदरपादों के गुदद्वार के चारों ओर वलय के रूप में रहता है। पैटेला में भी असली गलफड़ नहीं होते, जो रहते हैं वे केवल अवशेष स्वरूप हैं। इसमें भी श्वसन द्वितीयक गलफड़ से होता है। पलमोनेटा में श्वसन फुफ्फुसीय कोष द्वारा होता है। पानी में रहनेवाले पलमोनेटों में फुफ्फुसीय कोष श्वसनेंद्रिय का काम देता है।
पाचन संस्थान -बहुत से उदरपादों में सूँड़ के समान एक अंग होता है जो आवश्यकतानुसार बाहर निकल आता हे। वक्त्रगुहा में फीते जैसा एक विशेष अवयव होता है जिसपर बहुत से छोटे-छोटे दाँत आड़ी पंक्तियों में क्रम से लगे रहते हैं। इस विशेष अवयव को घर्षक (रैड्युला) कहते हैं। यह घर्षक वक्त्रगुहा के धरातल पर स्थित एक गद्दी पर लगा रहता है। मांस पेशियों की क्रिया द्वारा यह आगे पीछे या ऊपर नीचे चल सकता है। गद्दी, मांसपेशियों तथा घर्षक इन सबको सम्मिलित रूप से दंतवाही (ओडोंटोफ़ोर) कहते हैं। यह रेतो की तरह भोजन को रेतकर उसको सूक्ष्म कणों में परिणत कर देता है। लाला ग्रंथियाँ और यकृत सब उदरपादों में पाए जाते हैं। उदर में मणिभ लेंस (क्रिस्टेलाइन लेंज़) होता है। शाकाहारियों में आँते लंबी एवं भंजित (फ़ोल्डेड) होती है, क्योंकि खाने का सब पौष्टिक पदार्थ चूसकर ग्रहण करने में अधिक स्थान की आवश्यकता पड़ती है। मांसाहारियों में आँत छोटी और सीधी होती है।
हृदय -हृदय अन्य मोलस्कों की भाँति परिहार्द गुहा में हृदयावरण से ढका रहता है। परिहार्द गुहा शरीरगह्वर का ही भाग है जो वृक्कगुहा से भी संबंधित रहती है। साधारणतया उदरपादों में, जैसे ट्राइटन में, हृदय में एक अलिंद (ऑरिकिल) और एक निलय (वेंट्रिकिल) होता है लेकिन हैलिटोसिस नामक उदरपादों में दो अलिंद और एक निलय होता है। ओपिस्थोब्रैंकिया में हृदय गलफड़ के आगे रहता है और प्रोसोब्रैकिया में बगल में या पीछे।
चित्र : बागों में पाए जानेवाले घोंघे (स्नेल) की रचना
क-ऊपर की ओर से काट; फेफड़े की छत दाहिनी ओर फैलाई हुई है। 1. स्पर्शिकाएँ (टेंटेकिल्स);
2. मुखपुंज (बकल मास); 3. अन्नग्रह (क्रॉप);4. लार ग्रंथियाँ; 5. आँते; 6. पित्तवाह नलियाँ;
7. यकृत; 8. आमाशय; 9.महाधमनी (एओर्टा); 10. निलय (बेंट्रिकल); 11. अलिंद (ऑरि
किल्);12. फुफ्फुस शिरा; 13. वृक्क; 14. तथा 15. फुफ्फुस; 16. गुदा; 17.मूत्रवाहिनी;
18. मस्तिष्क। ख-मुखपुंज (दाहिने भाग का आधा निकालदिया गया है)। 19. जबड़ा;
20. घर्षक (रैडुला) 21.ग्रास नली (गलेट);22. घर्षक स्यून; 23. उपास्थि (काटि
लेज) । ग-तंत्रिका वलय (पीठ कीओर से)। 24. मुख गुच्छिकाएँ (बकल
गैंग्लिआ); 25. मस्तिष्क; 26.ग्रास नली; 27.
प्रतिपृष्ठ गुच्छिकाएँ (बेंट्रल गैंग्लिआ)।
वृक्क -वृक्क साधारणतया दो ग्रंथित नलियों या कोष्ठकों के रूप में पृष्ठतल पर होता है। यह परिहार्दि गुहा से भी संबद्ध रहता है और सीधे या गवीनी द्वारा बाहर खुलता है। दोनों वृक्क या तो बराबर होते हैं या गुदद्वार के दाहिनी ओरवाला वृक्क बाईं ओरवाले से बड़ा होता है। बहुतों में एक ही वृक्क होता है। कुछ उदरपादों में जनद (गोनेड) वृक्क में खुलते हैं। वृक्क के द्वारा शरीर से रक्त सारे विषाक्त पदार्थ बाहर निकलते हैं।
तंत्रिकातंत्र -परजीवी उदरपादों को छोड़कर अन्य उदरपादों में तंत्रिकातंत्र भली भाँति विकसित होता है। इसमें तंत्रिकारज्जु (नर्वकॉर्ड्स), योजनाओं द्वारा जुड़ी गुच्छिकाएँ (गैग्लिआ) और ज्ञानेंद्रियाँ सम्मिलित हैं। ज्ञानेंद्रियों में आँखें, स्थित्यंग (स्टेटोसिस्ट्स, जिनसे जीव को अपने शरीरसंतुलन का पता चलता है) और ्घ्रााणेंद्रियाँ (आसफ्ऱेडिया) सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त शरीर के विभिन्न भागों में अन्य संवेदक क्षेत्र रहते हैं परंतु उनका कार्य कम स्पष्ट है।
आँखें शिर से निकले स्पर्शश्रृंगों पर अथवा उनकी जड़ पर रहती हैं। वे प्याली के आकार की होती हैं। रंगयुक्त रूपाधार (रेटिना) वाली परत बाहर रहती है और इसलिए सदा समुद्रतल के स्पर्श में रहती है। ऐसी आँखें डोकोग्लोसा में होती हैं। कुछ उदरपादों में ताल (लेंज़) भी होता है, कुछ में कार्निया भी। ्घ्रााणेद्रियाँ प्रावार गुहा में रहती हैं और इनका कार्य वस्तुत: यह पता लगाना होता है कि जल साँस लेने योग्य है अथवा नहीं।
जनन संस्थान -स्ट्रेप्टोन्यूरा नामक उदरपाद प्राय: एकलिंगी होता है और एथिन्यूरा उभयलिंगी। एकलिंगी जंतुओं में जननसंस्थान उभयलिंगियों से अधिक सरल होता है। इसमें जनद (गोनैड) पृष्ठतल पर आमाशय कुब्ब में स्थित होता है और प्रजनन प्रणाली शरीर के दाहिनी ओर बाहर खुलती है। नर में शिश्न नालीदार तथा अकुंचनशील (नॉनकॉन्ट्रैक्टाइल) होता है। हेलिक्स जैसे उभयलिंगी उदरपाद में जनन संस्थान बड़ा जटिल होता है-इसमें प्रजनन ग्रंथि (ओवोटेस्टिस) श्वेत रंग की होती और आमाशय कुब्ब के शिखर पर स्थित होती है। पुंजीब और स्त्रीबीज ओवोटेस्टिस के एक ही पुटक में बनते हैं। परिपक्व पुंबीज प्राय: बारहों मास मिलते हैं। परंतु स्त्रीबीज समय-समय पर बनते हैं। पुंबीज एवं स्त्रीबीज दोनों ही एक साथ उभयलिंगी प्रजननप्रणाली से होकर ऐलब्यूमिन ग्रंथि में चले जाते हैं। उभयलिंगी वाहिनी (डक्ट) के अंतिम सिरे पर शुक्रपात्र (रिसेप्टिक्युलम सेमिनिस) होता है। संसेचन के बाद पुंस्त्रीबीज चौड़ी वाहिनी में जाते हैं जो सीधे बाहर जाकर खुलती है। इसके भीतर पुंस्त्रीबीज कैल्सियम कार्बोनेट के एक खोल से ढक जाते हैं। पूर्वोक्त चौड़ी वाहिनी का अंतिम सिरा योनि कहलाता है। योनि मोटी और मांसल होती है। योनि में श्लैमिष्मक ग्रंथि, शुक्रधानी छिद्र और शर-स्यून (डार्ट सैक) खुलता है। पुंबीज पुंबीजवाहिनी से होकर शिश्न में जाते हैं। जहाँ से एक पतली लंबी नलीनुमा कशाभ (फ़्लैजेलम) निकलता है। इसमें बहुत से पुंबीजों पर एक तरह का खोल चढ़ जाता है। इस तरह से शुक्र भर (स्पर्मैटोफ़ोर) बनते हैं। योनि और शिश्न दोनों एक जननद्वार (जेनिटल ऐट्रियम) में खुलते हैं। यह शरीर के दाहिनी ओर खुलता है। उभयलिंगियों में (जैसे कुंतलावर अर्थात् हेलिक्स में) संसेचन प्राय: परसंसेचन ही होता है, यद्यपि स्वयंसंसेचन के उदाहरण भी मिलते हैं।
चित्र : कृष्ण मृदुमंथर (ब्लैक स्लग्स) का एक जोड़ा
ये अभी वृक्ष की शाखा पर हैं और चिपचिपा पदार्थ तैयार
कर रहे हैं, जिसकी सहायता से वे श्ध्रीा ही वायु में मैथुन
के लिए लटकनेवाले हैं। (आगामी चित्र देखें)।
जब दो घोंघे एक दूसरे के सामने आकर मिलते हैं तो दोनों के जननद्वार खुल जाते हैं। नर तथा नारी जननछिद्र भी खुल जाते हैं। तब नारी घोंघे के जननछिद्र से शर (डार्ट) निकलकर दूसरे घोंघे को छेदते हैं, जिससे वे उत्तेजित हो जाते हैं। दोनों घोंघों का आपस में संसेचन होता है। इस क्रिया में एक घोंघे का शिश्न दूसरे घोंघे की योनि में चला जाता है। एक घोंघे के शुक्रभर दूसरे घोंघे के पुंबीजकोष में पहुँचकर फट जाते हैं, जिससे पुंबीज बाहर निकल आते हैं और शुक्रपात्र में पहुँचकर स्त्रीबीज से मिलकर संसेचन क्रिया समाप्त करते हैं।
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चित्र : कृष्ण मृदुमंथर का संभोग
चिपचिपे पदार्थ के तार की सहायता से वायु में लटककर और डाल तथा टहनियों
की बाधा से मुक्त होकर स्वछंदता से संभोग करते हैं। प्रत्येक में नारी और
पुरुष दोनों अंग होते हैं और प्रत्येक मंथर दूसरे को संसेचित करता है।
संसेचन मई तथा जून के महीने में होता है। संसेचित समूह जुलाई में बाहर निकलते हैं। जुलाई तथा अगस्त में संसेचन क्रिया के बाद घोंघे अपने संसेचित समूह को, जिसमें भ्रूण के लिए खाद्य पदार्थ भी होता है, मिट्टी में किसी बड़े छेद या गड्ढे में बाहर निकाल देते हैं। लगभग 25 दिनों में बच्चे अंडे के बाहर निकल आते हैं।
पैटेला में संसेचन बाहर पानी में होता है, परंतु अन्य सब उदरपादों में शरीर के भीतर होता है। संसेचित अंडसमूह लसदार पदार्थ में लिपटे रहते हैं। इनके छोटे-मोटे पिंड या मालाएँ पानी में तैरती हुई या समुद्री पौधों से उलझी हुई पाई जाती हैं।
स्ट्रेप्टोन्यूरा के संसेचित समूह खाद्य पदार्थ के साथ चमड़े जैसे खोल में बंद रहते हैं। एक खोल में केवल एक ही भ्रूण पूर्ण विकसित होता है। शेष इसके खाने के काम आते हैं।
पलमोनेटा के अंडसमूह कैल्सियम कारबोनेट के खोल में बंद रहते हैं। जो भूमि के किसी बड़े छेद में छोड़ दिए जाते हैं। कुछ समुद्री तथा मीठे जल के उदरपादों का विस्तार घोंघे के शरीर के भीतर उसकी स्त्रीबीजप्रणाली में होता है। विक्सन नामक उदरपादों में डिंभ दो तरह के पाए जाते हैं : मंडलाकार तथा पट्टिका रूप। तरुण उदरपादों में द्विपार्श्वीय सममिति होती है, परंतु पूर्ण विकसित अवस्था में वे असममित हो जाते हैं।
वर्गीकरण-उदरपादों को निम्नलिखित गोत्रों में विभाजित किया गया है :
गोत्र 1. स्ट्रेप्टोन्यूरा (प्रोसोब्रैंकिया) इस गोत्र के जंतुओं में बिमोटन होता है। नाड़ी संस्थान के फुफ्फुसावरण-आंतरंग-रज्जु अंग्रेजी अंक 8 की आकृति के होते हैं। कवच और उसका ढक्कन होता है। प्रावार गुहा आगे होती है।
अनुगोत्र 1. एसपीडो ब्रैंकिएटा (डायोटोकार्डिया) इस अनुगोत्र के उदरपादों मेें दो अलिंद और दो गलफड़ होते हैं जिनमें अक्ष के दोनों ओर सूत्र होते हैं। पुंबीज एवं स्त्रीबीज वृक्क द्वारा बाहर निकलते हैं।
ट्राइब 1. रीपीडोग्लोसा-इस ट्राइब के जंतुओं के घर्षक की एक पंक्ति में बहुत से दाँत होते हैं। उदाहरण-ट्रीकास, टरबो, हालिहोटिस।
ट्राइब 2. डोकोग्लोसा-इस ट्राइब के जंतुओं में घर्षक की एक पंक्ति में केवल दो चार लंबे दाँत होते हैं जिनके द्वारा यह पत्थर से चिपटे हुए शैवाल (ऐलगी) को काटता है। आँखों में दृष्टिमंडल नहीं होता। आमाशय गुहा कोनदार होती है। उदहारण-पेटेल।
अनुगोत्र 2. पेक्टीनो ब्रैंकिया (मोनोटोकार्डिया) इन जंतुओं में एक अलिंद और एक गलफड़ होता है जिसके अक्ष के एक तरफ सूत्र होते हैं। एक गंधांग होता है।
चित्र : तत्काल दिए हुए अंडों सहित कृष्ण मृदुमंथर
ट्राइब 1. रेची ग्लोसा -ये हिंस्र जंतु हैं। इनमें साइफ़न होता है। घर्षक में केवल तीन दाँत एक पंक्ति में होते हैं। उदाहरण-बक्सिनम। यह 600 फुट तक की गहराई में पाया जाता है। यह मांसाहारी है और बहुत तेजी से शिकार को पैर से पकड़ता है। सूँड़ बहुत बड़ी होती है। यह अपने अंडे सैकड़ों की संख्या में देता है। प्रत्येक अंडे में कड़ी वस्तु का खोल होता है। गंधांग के अक्ष के दोनों तरफ सूत्र होते हैं।
ट्राइब 2. टोलोप्रोग्लोसा-घर्षक में सात दाँत प्रत्येक पंक्ति में होते हैं। उदाहरण-कौड़ी (साइप्राया मोनाटा), वरमेट्स, ट्राइटन, ऐंप लेरिया (अलवण उदरपाद)।
ट्राइब 3. टॉक्सीग्लोसा-घर्षक में केवल दो लंबे दाँत एक पंक्ति में होते हैं। उदाहरण-कोनस।
गोत्र 2. युथीन्युरा (आपिस्थोब्रैंकिया) इन उदरपादों में आमाशय योजनक 8 की आकृति में ऐंठे नहीं होते। ये उभयलिंगी हैं। गलफड़ हृदय के पीछे होता है। कवच छोटा होता है, भीतर रहता है या एकदम होता ही नहीं।
अनुगोत्र 1. टेक्टीप्रैंकिया-इसमें सदा कवच रहता है। गलफड़ और प्रावार गुहा भी होती है। उदारहण-अफोसिया। यह समुद्री पौधों को खाती है। बच्चे लाल रंग के होते हैं और गहरे पानी में रहते हैं। प्रोढ़ हरे रंग के होते हैं और ज्वारभाटा के बीच में रहते हैं।
अनुगोत्र 2. न्यूडीब्रैंकिया-इनमें कवच, गलफड़ और प्रावार गुहा कुछ भी नहीं होती। श्वसन द्वितीयक गलफड़ से होता हे। उदाहरण-डोरिस, ईओलिस।
डोरिस को समुद्री नीबू (सी लेमन) भी कहे हैं। यह जंतु छोटा, चपटा और आलसी स्वभाव का होता है। यह पत्थर में चिपटे हुए स्पंज को खाता है। प्रावार रंगीन और कड़ा होता है। रंग उन जगहों से बहुत मिलता जुलता है जहाँ यह अपना आहार ग्रहण करत है। शिर में एक जोड़ी स्पर्शश्रृंग होते हैं। श्वसन द्वितीयक गलफड़ से होता है जो गुदद्वार के चारों तरफ होता है।
ईओलिस की पीठ पर छोटे-छोटे खोखले उभार (सिरेटिया) होते हैं जो बाहर खुलते भी हैं। इनका संबंध पाचक ग्रंथियों से भी होता है। यह हाइड्रा तथा कुसुमाभ (सी ऐनीमोनि) खाते हैं। अधिकांश आहार पच जाता हे और मल गुदद्वार से बाहर निकल जाता है। नेमाटासिस्ट (विषैले डंक) नहीं पचते; वे उभारों में भर जाते हैं। समुद्र में इयोलिस जब कभी किसी मछली या अन्य किसी शत्रु से तंग आकर उत्तेलित हो जाता है तो इन नेमाटोसिस्टों को तुरंत बाहर फेंककर दुश्मन को डंकों से व्यग्र कर देता है। इओलिस इस तरह से अपनी रक्षा कर लेता है। इसके शरीर का रंग भी बहुत भड़कीला होता है जिसे देखकर अनुभवी शत्रु भाग जाते हैं।
गोत्र 3. पलमोनेटा-ये भी उभयलिंगी उदरपाद होते हैं। इनमें खोल होता है परंतु ढक्कन नहीं होता। गलफड़ भी नहीं होता। श्वसन प्रावार गुहा से होता है जो फुफ्फुस (लंग) का काम देती है। नाड़ी संस्थान असममित होता है। वृक्क एक ही होता है। उदाहरण-घोंघा (लैंड स्नेल), मंथर (स्लग)।
अनुगोत्र 1. बैल्सोमैटोफ़ोरा-आँखें छोटी और स्पर्शश्श्रृग के पास होती हैं। उदहारण-लुमनीअ, प्लैनॉर्विस।
अनुगोत्र 2. स्टाडलॉटॉफोरा-आँखें स्पर्शश्रृंगों के सिरे पर होती हैं। उदाहरण-हेलिक्स।
टीका टिप्पणी और संदर्भ