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लेख सूचना
एशिया
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 255
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शांतिलाल कायस्थ

एशिया संसार का बृहत्तम महाद्वीप, प्राचीन दुनिया के उत्तर-पूर्व भूभाग पर विस्तृत है; इसके उत्तर-पश्चिम में यूरोप और दक्षिण-पश्चिम में अफ्रीका महाद्वीप स्थित हैं।

एशिया के नामकरण के संबंध में विभिन्न मत हैं। यूरोप और एशिया दोनों शब्दों की उद्गमभूमि संभवत: इंजियन सागरीय प्रदेश है जहाँ 'आसु' (सूर्योदयकाल) और 'एर्च' (सूर्यास्तकाल) शब्दों का प्रयोग कालक्रम से क्रमश: टर्की और एशिया तथा ग्रीस और यूरोप के भूभागों के लिए प्रारंभ हुआ। संभवत: एशिया के लिए प्रयुक्त होनेवाला 'आसु' शब्द संस्कृत तत्सम 'ऊषा' (सूर्योदयकाल) का स्थानीय तद्भव प्रयोग मात्र है। प्रस्तुत प्रयोग प्रथम स्थानीय भूखंड मात्र के लिए ही प्रारंभ हुआ किंतु कालांतर में समग्र आधुनिक एशिया के भूभाग के लिए प्रयुक्त होने लगा।

एशिया महाद्वीप उत्तर में लगभग मध्य ध्रुवप्रदेश से लेकर दक्षिण में 13रू (दक्षिणी अरब), 6रू (श्रीलंका) और 10रू (हिंदेशिया) द.अ. रेखाओं तक कुल 1,72,56,000 वर्ग मील क्षेत्र पर फैला है। महाद्वीप की पूर्वी और पश्चिमी सीमाएँ क्रमश: 26रू पू.दे. (बाबा अंतरीप) और 170रू प.दे. रेखा (ईस्ट अंतरीप) तक फैली हुई हैं। अत: एशिया ही एकमात्र ऐसा महाद्वीप है जिसकी पूर्वी और पश्चिमी सीमाएँ क्रमश: पश्चिमी और पूर्वी देशांतर रेखाओं को स्पर्श करती हैं। एशिया और यूरोप महाद्वीपों की सीमारेखा भौगोलिक दृष्टि से स्पष्ट निर्धारित नहीं है। रूस पूर्वी यूरोप से लेकर साइबेरिया होते हुए एशिया के सुदूर उत्तर-पूर्व तक विस्तृत है और राजनीतिक मानचित्र पर एशिया-यूरोप के मध्य कोई स्पष्ट सीमारेखा अंकित नहीं है। सामान्यत: यह सीमा यूराल पर्वत के पश्चिमी अंचल से होती हुई दक्षिण में यूराल नदी से कैस्पियन सागर और कैस्पियन से काकेशस पर्वत की शिखरपंक्ति द्वारा कालासागर (ब्लैक सी) से संबद्ध मानी जाती है। कुछ लोग इस सीमा को काकेशस पर्वत के दक्षिणी अंचल से गुजरती हुई मानते हैं।

अत: इस अस्पष्ट सीमारेखा के कारण एशिया महाद्वीप के क्षेत्रफल का सर्वथा शुद्ध मापन नहीं हो सका है। फिर भी एशिया महाद्वीप के क्षेत्रफल का सर्वथा शुद्ध मापन नहीं हो सका है। फिर भी एशिया महाद्वीप अपने बृहत्‌ आकर एवं क्षेत्रफल के कारण संसार में महत्वपूर्ण है।यह कुल 164रू देशांतर रेखाओं और 85रू अक्षांश रेखाओं पर फैला हुआ है और संसार का भूखंड इसके अंदर आ जाता है। संसार का कोई भी अन्य महाद्वीप ध्रुव प्रदेश से लेकर भूमध्यरेखीय प्रदेश तक विस्तृत सभी कटिबंधों को समाहित नहीं करता। महाद्वीप के मध्य में स्थित बाल्कश झील और जुंगेरिया प्रदेश समुद्र से लगभग 2,000 मील दूर हैं।

एशिया विषमताओं का महाद्वीप है। यहाँ संसार का सर्वोच्च पर्वतशिखर एवरेस्ट है जिसकी समुद्रतल से ऊँचाई 29,141 फुट है और यहीं संसार का सबसे नीचा क्षेत्र मृतसागर (डेड सी) भी है, जो समुद्रतल से 1,290 फुट नीचा है। फिलीपाइन द्वीपसमूह के पास स्थित मिंडनाव गर्त संसार का सबसे गहरा सागरगर्त है। संसार का सबसे गरम तथा सबसे ठंडा स्थान भी यहीं है। जैकोबाबाद (सिंध) का अधिकतम तापक्रम 126रू फा. तथा बरखोयांस्क (साहबेरिया) का न्यूनतम तापक्रम -90रू फा. है। इतना ठंडा होने के कारण बरखोयांस्क को संसार का शीतध्रुव भी कहते हैं। सबसे अधिक और सबसे कम तापांतर भी यहीं पर पाए जाते हैं। सिंगापुर का वार्षिक तापांतर 1रू फा. तथा बरखोयांस्क का 119रू फा. है। सबसे अधिक वर्षा के स्थान चेरापूँजी की (खासी की पहाड़ियों में) औसत वार्षिक वर्षा 458फ़फ़ है। 1876 ई. में यहाँ केवल 24 घंटे में 41फ़फ़ वर्षा हुई थी। सबसे कम वर्षावाला स्थान अदन है, जहाँ केवल 1.8फ़फ़ वार्षिक वर्षा होती है। अत: संसार में सबसे आर्द्र तथा सबसे शुष्क जलवायु के क्षेत्र भी एशिया ही में मिलते हैं। अन्य महाद्वीपों की अपेक्षा एशिया की औसत ऊँचाई ज्यादा है, परंतु साथ ही यहाँ मैदान भी अन्य महाद्वीपों के मैदानों के अपेक्षा अधिक समतल हैं। गंगा के मैदान में वाराणसी से समुद्रतट (डेल्टा प्रदेश) तक की ढाल 5फ़फ़ प्रतिमील है।

एशिया की जनसंख्या लगभग 2,10,90,00,000 है, जो संपूर्ण विश्व की जनसंख्या (3,70,00,00,000) की 57 प्रतिशत है। यहाँ जनसंख्या के अधिक घनत्ववाले भागों के साथ-साथ कम घनत्ववाले विस्तृत प्रदेश तथा निर्जन मरुस्थल भी हैं। एशिया को आदिमानव का जन्मस्थान होने का भी सौभाग्य प्राप्त है। यहीं विश्व के सभी बड़े धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ है। हिंदू, बौद्ध, ईसाई तथा इस्लाम धर्म यहीं जन्म लेकर फूले-फले हैं। एशिया में 68 मानवजातीय वर्ग मिलते हैं। इतने किसी भी दूसरे महाद्वीप में नहीं हैं। यहाँ पर सब तरह के लोग हैं। एक ओर तो मनुष्य जंगलों में विचरते हैं, नंगे रहते तथा शिकार कर और जंगली कंद-मूल-फल खाकर निर्वाह करते हैं, दूसरी ओर आधुनिक सभ्य मानव हैं, जो आधुनिकतम साधनों का प्रयोग करते हैं। यहाँ पर पूँजीवाद तथा साम्यवाद एवं राजतंत्र तथा गणतंत्र सभी फूल फल रहे हैं।

एशिया की खोज-एशिया विशाल महाद्वीप है। इसके विभिन्न भाग पर्वतों, मरुस्थलों तथा वनों आदि के कारण एक दूसरे से अलग हैं। इसी कारण प्रारंभ में बहुत से प्रदेशों के बारे में लोगों का ज्ञान कम था। मध्ययुग के पश्चात्‌ धीरे-धीरे मार्गों का विकास होने पर यूरोप के लोगों ने एशियाई देशों से संपर्क स्थापित किया। इससे पूर्व एशिया निवासियों ने यूरोप की खोज की थी। फ़िनीशिया (पश्चिमी एशिया) के नाविक भूमध्यसागरीय मार्गों से उत्तरी अफ्रीका तथा ब्रिटेन पहुँचे। दक्षिण-पश्चिम एशियाई प्रदेश एशिया तथा यूरोप के बीच सेतु के समान हैं। ईसा की दूसरी शताब्दी में चीन के हान वंशयी राजाओं ने चीनी साम्राज्य का विस्तार कैस्पियन सागर के समीपस्थ स्थानों तक किया। उधर रोम का साम्राज्य तुर्की तक बढ़ा। तत्पश्चात्‌ यूनानी सेनाएँ सिकंदर महान्‌ के नेतृत्व में सीरिया, ईरान और अफगानिस्तान होती हुई 327 ई.पू. में भारत आ पहुँचीं। सिकंदर को विपासा (व्यास) नदी के तट से लौटना पड़ा। उच्च सभ्यता तथा एशिया के निकट बसने के कारण यूनानियों ने एशिया की खोज सर्वप्रथम की। यद्यपि उनका साम्राज्य चिरस्थायी न रहा, फिर भी उन्होंने एशिया पर काफी प्रभाव डाला और स्वयं भी यथेष्ट प्रभावित हुए। मध्ययुग में पूर्व-पश्चिम के संपर्क कम थे। तत्पश्चात्‌ वेनिस प्रजातंत्र ने कुस्तुंतुनिया पर अभियान किया। यूरोप तथा एशियाई देश चीन के बीच संभवत: सर्वप्रथम रेशम का व्यापार आरंभ हुआ। वेनिस के दो व्यापारी निकोलो तथा मेफ़ियोपोलो 1251 ई. में कुस्तुंतुनिया होते हुए चीन गए। 1254 ई. में रूब्रुक निवासी विलियम कुबला खाँ के दरबार में पहुँचा। 1271 ई. में फिर दोनों मेफ़ियो के पुत्र मार्कोपोलो को साथ लेकर, रूम सागर के एशियाई तट पर पहुँचकर स्थलमार्ग से उर्मुज, काशगर, क्युनलुन होते हुए मई, 1275 ई. में पीकिंग पहुँचे। मार्कोपोलो ने चीन दरबार में नौकरी कर ली। 1295 ई. में वह वेनिस लौटा। इन यात्राओं से यूरोप तथा एशियाई देशों के बीच संपर्क बढ़ा और रेशम, मसाला, चाय इत्यादि का व्यापार होने लगा। फिर शक्तिशाली तुर्कों की बर्बरता के कारण यूरोप तथा एशिया के स्थलमार्गों द्वारा होनेवाला व्यापार 200 वर्षों तक बंद रहा। यूरोप के लोगों ने दूसरे मार्ग ढूंढ़ने प्रारंभ किए। वास्को डि गामा नामक एक पुर्तगाली नाविक समुद्री मार्ग से 1498 ई. में कालीकट पहुँचा। इसके बाद व्यापारी तथा ईसाई धर्मप्रचारक एशियाई देशों में अधिक संख्या में आने लगे। धीरे-धीरे व्यापार के उद्देश्य से आए हुए यूरोपीय लोगों ने एशिया के अनेक भागों पर न केवल व्यापारिक केंद्र स्थापित किए, अपितु धीरे-धीरे अपना आधिपत्य भी जमा लिया। अंग्रेजों ने भारत, लंका, ब्रह्मा, मलय, हांगकांग आदि स्थानों में, फ्रांस ने हिंदचीन तथा स्याम में और हालैंड ने जावा, सुमात्रा आदि पूर्वी द्वीपसमूहों पर अधिकार जमा लिया। उत्तर में रूस ने अपना अधिकार सुदृढ़ किया तथा प्रभावक्षेत्र बढ़ाया। सन्‌ 1868 ई. में स्वेज़ नहर खुलने पर यूरोप तथा एशिया के संबंधों में एक नई कड़ी जुड़ी और लोगों ने वास्को डि गामा के उत्तमाशांतरीपवाले मार्ग को त्याग दिया। ट्रांस साइबेरियन रेलवे ने भी यूरोप तथा एशिया के संबंध दृढ़ किए। स्थानाभाव के कारण यहाँ पर एशिया के सभी समन्वेषकों की यात्राओं का वर्णन करना संभव नहीं है। 16वीं तथा 17वीं शताब्दियों के प्रमुख समन्वेषक रैल्फ़ फ़िच, टामस रो, लावाल तथा टेवर्नियर थे। स्वीडनवासी नूरडेनशल्ड ने 1878 ई. से 1880 तक उत्तरपूर्वी मार्ग द्वारा यूरोप से बेरिंग जलडमरूमध्य तक यात्रा की। तत्पश्चात्‌ स्वेनहेडिन, सर फ्ऱांसिस यंगहसबैंड, आरेल स्टाइन, प्रिंस क्रोपाटकिन, एल्सवर्थ हंटिगटन तथा स्वामी प्रणवानंद ने मध्य एशिया में गहन शोध कार्य किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ यूरोपीय साम्राज्यवाद के पैर एशिया से उखड़ गए तथा अब उसका अंत हो गया है।

धरातल-एशिया की प्राकृतिक बनावट अपने ढंग की अनोखी है। इसके अंतराल में पर्वतों का विषम जाल बिछा हुआ है। इन हिममंडित पर्वत पंक्तियों की संकुलता के कारण महाद्वीप की भव्यता अतुलनीय हो जाती है। 24,000 फुट से अधिक ऊँचे संसार में कुल 94 पर्वतशिखरों में से 92 केवल हिमालय और काराकोरम श्रेणियों में तथा शेष दो अल्ताईपार श्रेणियों में स्थित हैं। संसार की सर्वाधिक विस्तृत नीची भूमि महाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में फैली है, जहाँ कैस्पियन की नीची भूमि संसार का सबसे बड़ा, समुद्रतल से भी नीचा, शुष्क प्रदेश है। अत: न केवल बृहत्‌ आकार के कारण प्रत्युत विषम प्राकृतिक संरचना के विचार से भी यह महाद्वीप सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

महाद्वीप की विशाल पर्वतपंक्तियाँ दक्षिण-पश्चिम में लालसागर से प्रारंभ होकर सुदूर उत्तर-पूर्व में जलडमरूमध्य तक फैली हुई हैं। एक ओर जहाँ अरब के दक्षिणी समुद्रतट पर 10,000 फुट ऊँचे पर्वत हैं वहाँ दूसरी ओर एशिया माइनर और सीरिया के मध्य स्थित टारस श्रेणियाँ 13,000 फुट से भी अधिक ऊँची हैं जिनमें अकेली अरारात की चोटी (16,873 फुट) स्थित है। पास ही काकेशस श्रेणियों से आबद्ध एलबुर्ज पर्वत 18,000 फुट से भी ऊँचे हैं। कैस्पियन के दक्षिण-पूर्व ईरान की एलबुर्ज श्रेणियों में स्थित देमावेंड शिखर इससे भी अधिक ऊँचा है। दक्षिणी प्राचीन भूभाग में एक ओर जहाँ भारत के दक्षिणी पठार में पर्वतों, घाटियों और छोटे-छोटे लगभग समतलीय क्षेत्रों की विषम संकुलता है, वहाँ मलय प्रायद्वीप में उत्तर से दक्षिण सिंगापुर तक पर्वतपंक्तियाँ पाई जाती हैं। इसी प्रकार एशिया के दक्षिण, मध्य एर्व पूर्व से होते हुए सुदूर साइबेरिया तक पर्वतों का अत्यंत विषम जाल बिछा हुआ है। न केवल महाद्वीप भाग ही, प्रत्युत अधिकांश द्वीपसमूह-जापान, फारमोसा, हिंदेशिया, श्रीलंका आदि-भी पर्वतसुंकुल हैं। अत: महाद्वीप के प्रत्येक भाग में पर्वतश्रेणियाँ बिखरी पड़ी हैं।

महाद्वीप की मुख्य पर्वतश्रेणियाँ 12,000 फुट से भी अधिक ऊँचे विशाल पामीर के पठार (दुनिया की छत) से अष्टबाहु की भुजाओं के समान चतुर्दिक्‌ फैली हुई हैं। ये श्रेणियाँ प्राय: समांतर रूप से पूर्व-पश्चिम दिशा में प्रशांत महासागर से लेकर भूमध्यसागर और कालासागर तक बिछी हुई हैं। एक ओर तो है पामीर से पश्चिम में निकलनेवाली उत्तरी श्रेणियाँ, क्रमश: हिंदुकुश, एलबुर्ज, काकेशस और पौंटिक, तथा दक्षिणी श्रेणियाँ, सुलेमान, किरथर, खुर्दिस्तान, स्कार्प, टारस आदि और दसूरी ओर हैं पूरब में निकलनेवाली अल्टाई, थियांशान आदि अपेक्षाकृत प्राचीनतर उत्तरी पर्वतश्रेणियाँ, जो चीन में जाकर लगभग 700 मील चौड़ी हो गई हैं। क्युनलुन पर्वत की अगणित श्रेणियों में ही प्रसिद्ध ऊँचा आम्ने माचीन शिखर स्थित है जिसकी रहस्यमयता भूगोलवेत्ताओं के लिए सर्वाधिक आकर्षण का विषय है। लेकिन इनके दक्षिण में भारत की उत्तरी सीमा पर हिमकिरीट की भाँति फैला हुआ संसार का विशाल पर्वत हिमालय (हिम-आलय) है, जिसकी महत्ता अतुलनीय है। इसमें स्थित कंचनजंघा, मकालु, धौलागिरि, नंगापर्वत आदि 26,000 फुट से अधिक ऊँची चोटियों को भी मात करनेवाला संसार का सर्वोच्च पर्वतशिखर (ऊँचाई 29,141 फुट) या चामो लुंगमा (संसार की देवी माँ) पृथ्वी के भव्य मस्तक के सदृश शोभायमान है। हिमालय के उत्तर-पश्चिम में हिमालय की लगभग समकक्ष ऊँचाईवाले काराकोरम पर्वत हैं जिनमें संसार का द्वितीय सर्वाधिक पर्वतशिखर के-2 स्थित है। पास ही इसके समकक्ष ऊँचाईवाले शिखर, चौड़ी चोटी (ब्रॉड पीक) और गशरब्रुय, भी अपना सिर आकाश में उठाए हैं। उत्तर में क्युनलुन तथा दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में हिमालय-काराकोरम की श्रेणियों से घिरा तिब्बत (औसत ऊँचाई 12,000 फुट) का विशाल भूभाग भी बहुत ऊँचे हैं। अरब एवं ईरान के ऊँचे विशाल पठार तथा पूर्व में मंगोलिया का 3,000 से 5,000 फुट ऊँचा पठार ऐसे ही क्षेत्र हैं। अफगानिस्तान में पहाड़ों, उच्च भूमियों एवं उनके बीच-बीच स्थित घाटियों का अद्भुत सम्मिलन है।

न केवल अति ऊँचे, प्रत्युत समुद्रतल से भी निम्न स्थलखंडों का भी एशिया में अधिक विस्तार है। मंगोलिया में समुद्र से सैकड़ों फुट निचाईवाले स्थलखंड मिलते हैं। कैस्पियन तट की धँसी निम्न भूमि भी विख्यात है। किंतु सर्वाधिक धँसा भूखंड बृहत्‌ अफ्रीकीय भूमिभंग (ग्रेट अफ्ऱकन रिफ्ट) है जो इज़रायल तथा जार्डन के मध्य से गुजरता है और जहाँ मृतसागर का नमक से भरा हुआ तल पास के भूमध्यसागर से 1,292 फुट नीचे स्थित है।

इन उच्च एवं निम्न भूमि के खंडों के बीच एशिया में विशाल समतल मैदान अवस्थित हैं। इनमें तुर्किस्तान का मैदानी भाग, उत्तरी ध्रुवसागर के तट का बृहत्‌ मैदान तथा चीन के सुविख्यात पूर्वी मैदान एवं भारत की नदियों के विशाल मैदान प्रसिद्ध हैं।

एशिया में जहाँ एक ओर सर्वसंपन्न मैदानी भाग हैं वहाँ दूसरी ओर विशाल मरुभूमियाँ भी हैं। अधिकांशत ईरान, अरब तथा तुर्किस्तान प्रकृत्या मरुभूमि हैं। गोबी अथवा शामो का 1,000 मील लंबा एवं 600 मील चौड़ा मरुखंड मंगोलिया के अधिकांश भाग में फैला हुआ है। पाकिस्तान में भी असिंचित क्षेत्रों में अनुर्वर मरुस्थल पाए जाते हैं।

जलप्रवाह प्रणाली-संसार की बारह सर्वाधिक बड़ी नदियों में से सात नदियाँ एशिया महाद्वीप में प्रवाहित होती हैं। महाद्वीप के अधिकांश भाग में साधारण जलप्रवाह प्रणाली विकसित है पर मध्य के लगभग 50 लाख वर्ग मील क्षेत्र में अंतर्प्रवाह प्रणाली है। अधिकतर नदियाँ एशिया के पर्वतीय एवं पठारी भाग से निकलकर मुख्यत: हिंद महासागर, प्रशांत महासागर और उत्तरी ध्रुवसागर में जल छोड़ती हैं। हिंद महासागर में गिरनेवाली नदियों में मुख्य हैं दज़ला, फरात, सिंध, सतलज, रावी, व्यास, चिनाव, झेलम, नर्मदा, ताप्ती, गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, इरावदी, सालविन, सितांग, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी। मीनाय, मीकांग, लालनदी, सीक्यांग, यांगसीक्यांग, ह्वांगहो और आमूर नदियाँ प्रशांत महासागर में जल छोड़ती हैं। उत्तरी ध्रुवसागर में ओब, यनिसी, लीना, इंडिगिरिका और कोलिया गिरती हैं, सर दरिया और आमू दरिया अरल सागर में। इली नदी बाल्कश में और तारिम लौपनार झील में जलप्रवाह करती हैं। इनके अतिरिक्त मानसरोवरादि कुछ छोटी-बड़ी झीलें भी हैं।

संरचना और खनिज संपत्-एशिया का धरातल यहाँ की भौमिक संरचना एवं इतिहास द्वारा निर्दिष्ट होता है। महाद्वीप में कई विभिन्न विशाल सांरचनिक भूखंड हैं : जैसे दक्षिण में अरब एवं भारत में प्रायद्वीपीय पठारी भाग हैं जिनके नीचे अति प्राचीन कैब्रियन-पूर्व युगीन मोड़दार पर्वत पड़े हैं। ये क्षेत्र स्थान-स्थान पर नए निक्षेपों द्वारा सर्वथा ढक से गए हैं। उत्तरी यूरेशिया में भी ऐसे ही दो भूखंड मिलते हैं : प्रथम तो फ़ेनोस्कैडियन पठार (शील्ड) है जो बाल्टिक सागर को घेरे हुए है और द्वितीय अंगारा लैंड जो बैकाल झील के उत्तर और पूर्व में अवस्थित है। कुछ ऐसे ही प्राचीन भूखंड चीन में भी मिलते हैं । इन सभी प्राचीन भूखंडों का निर्माण प्राचीन परिवर्तित चट्टानों द्वारा हुआ है।

इन प्राचीन भूखंडों के बीच-बीच में मोड़दार पर्वतों की श्रेणियाँ पूर्व-पश्चिम दिशा में बिखरी हैं। पुराकल्पीय (पैलियोज़ोइक) और मध्यकल्पीय (मेसोज़ोइक) युगों के अधिकांश काल में इन पर्वतों के स्थान पर टेथिस नामक बड़ा सागर फैला हुआ था जो आज के रूमसागर से अधिक लंबा एवं चौड़ा था। इस समुद्र में मिट्टी, बालू आदि की परतों का जमाव हुआ और मध्यकल्प युग के अंतिम काल में, विशेषकर नूतनकल्प (केनोज़ोइक) युग में, परतों का निर्माण हुआ। हिमालय पर्वत इन्हीं पर्वतों में से एक है तथा पृथ्वी का नवीनतम मोड़दार पर्वत है। ऐसी ही पर्वतश्रेणियाँ तुर्की से जापान तक बिखरी पड़ी हैं।

एशिया की संरचना का पूरा अध्ययन अभी ठीक से नहीं हो पाया है तथापि बहुमत के अनुसार एशिया को चार सांरचनिक विभागों में बाँटा गया है : प्रथम, अति प्राचीन उत्तरी खंड; द्वितीय, अति प्राचीन दक्षिणी भूखंड; तृतीय अल्पाइन पर्वतश्रेणियाँ और चतुर्थ अवशिष्ट भाग।

इस महाद्वीप में टिन, अभ्रक, ऐंटिमनी तथा अंग्स्टन दूसरे महाद्वीपों से अधिक मिलते हैं। मैंगनीज़, ताँबा, चाँदी और सोना भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। मिट्टी के तेल का भंडार यहाँ सर्वाधिक है। अन्य खनिजों में लोहा एवं कोयला उल्लेखनीय हैं।

जलवायु-एशिया के भूपुंज की विशालता का मुख्य प्रभाव उसकी जलवायु पर सर्वाधिक पड़ता है। इसके सागरप्रभावित तटीय प्रदेश और स्थलप्रभावित देशाभ्यंतर प्रदेश जलवायु में एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं। वर्षा तथा तापक्रम की विषमता चरम सीमा तक पहुँच जाती है।उत्तरी अमरीका के समान अक्षांशोंवाले प्रदेशों की अपेक्षा यहाँ अधिक शीत पड़ती है। मलय के विषुवत्‌रेखीय जलवायु से लेकर, ध्रुवप्रदेशीय हिमानी जलवायु तक के सब प्रकार की जलवायु वाले प्रदेश एशिया में मिलते हैं। इतने बृहत्‌ आकार तथा महान्‌ धरातलीय अंतरों के कारण जलवायु में इस प्रकार का वैभिन्य स्वाभाविक ही है। वर्षा की विषमता भी उल्लेखनीय है। यहाँ वर्ष में एक इंच या उससे कम से लेकर 450 इंच तक वर्षा होती है। अत्यधिक वर्षा वहाँ होती है जहाँ प्रवहमान हवाओं को रास्ते में पहाड़ और पर्वत आ जाते हैं, जैसे भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में। शुष्कतम प्रदेश पर्वतों के पृष्ठदेश में मिलते हैं, जैसे पश्चिमी चीन में ईरान से मंगोलिया तक का पठारी प्रदेश जो एशिया में दो विशाल भिन्न जलवायु प्रदेशों को पृथक करता है। उत्तर तथा पश्चिम में स्थलीयता द्वारा कुछ प्रभावित शीतोष्ण पछुवाँ वायु अपना प्रभाव डालती है। दक्षिणी तथा पूर्वी भाग में मानसूनी जलवायु मिलती है। यहाँ शीत ऋतु में शुष्क वायु स्थल से सागर की ओर बहती है तथा ग्रीष्म में सागर से स्थल की ओर आती है और वृष्टि होती है। मानसूनी प्रदेश सिंध घाटी से मध्य आमूर नदी तथा दक्षिणी कमचटका तक और अंदर की ओर तिब्बत तथा मंगोलिया के किनारे तक फैला हुआ है। इसके दक्षिण में एक छोटे भाग पर विषुवत्‌रेखीय जलवायु मिलती है। मध्य तथा पश्चिमी एशिया शुष्क है। एशिया के शीतोष्ण मरुस्थल 50रू उ.अ. पर ध्रुवप्रदेशीय नदियों के उद्गम के निकट से लेकर पश्चिम की ओर कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग फैले हैं। शीतप्रदेश के अंतर्गत एशिया में टुंड्रा, टैगा तथा घास के उत्तरी मैदान आते हैं। भारतवर्ष का थार तथा अरब आदि उष्ण मरुस्थल प्रदेश के अंतर्गत हैं। साइबेरिया की शीतकाल की कड़ी ठंड प्रसिद्ध है। लीना डेल्टा का औसत तापमान वर्ष भर 1रू फा. रहता है। बर्खोयांस्क विश्व का शीतलतम स्थान है। जनवरी में यहाँ का औसत तापमान -59रू फा. रहता है यह -94रू फा. तक भी पहुँच चुका है। कहते हैं, यहाँ जिस भी दिशा से वायु आएगी वह यहाँ की वायु से गरम होती। इसके विपरीत दक्षिण-पश्चिम एशिया अत्यंत उष्ण प्रदेश हैं। मध्य अरब में वार्षिक वाष्पीकरण 160 इंच है। दिन में बालू अत्यंत गरम हो जाने के कारण यात्रियों के कारवाँ रात्रि में तारों के सहारे चलते हैं। इसी कारण यहाँ के लोगों में ज्योतिष से यथेष्ट प्रेम है। भारत की भीषण गर्मी के सामने चंगेज़ खाँ के योद्धा यहाँ रुक न सके। यही एकमात्र शुत्र था जिसका सामना वे नहीं कर सके।

यहाँ की मानसूनी जलवायु मुख्य रूप से उल्लेखनीय है जिसमें छह महीने उत्तर-पूर्वी तथा छह महीने दक्षिण-पश्चिमी एवं दक्षिण-पूर्वी वायु चलती है। मानसून जलवायु भारत में पूर्णतया विकसित है, कुछ कम चीन में, और अन्यत्र नाममात्र है। जिस वर्ष मानसून से पर्याप्त पानी नही बरसता उस वर्ष भारतीय कृषि की हानि होती है। दक्षिणी चीन तथा जापान के तटीय मानसूनी प्रदेशों में टाइफून (भयंकर आँधी) चलते हैं।

संपूर्ण साइबेरिया की वार्षिक वर्षा 20फ़फ़ से अधिक नहीं है। उत्तर में यह 10फ़फ़ से भी कम है तथा तुर्किस्तान के अधिकतर भाग में 4फ़फ़ से भी कम है। दक्षिण तथा पूरब में अधिक वर्षा की पट्टी दक्षिणी चीन, ब्रह्मदेश, हिंदचीन, भारत के कुछ भाग एवं मलय में फैली हैं। मलय में केवल एक घंटे की वर्षा शुष्क नदी नालों को बेगवानरूप दे देती है। बर्खोयांस्क का वार्षिक तापांतर 100रू से भी अधिक है परंतु मलय के कुछ भागों में यह अंतर विगत एक शताब्दी में कभी भी 10रू से अधिक नहीं हुआ। मौसमी तापांतर विषुवत्‌रेखीय प्रदेश से उत्तर-पूर्वी आंतरिक प्रदेश की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है।

प्राकृतिक वनस्पति-प्राकृतिक वनस्पति प्राकृतिक वातावरण का प्रत्यक्ष रूप है। एशिया महाद्वीप का उत्तरी ठंडा भाग साधारणतया टुंड्रा तथा कोणधारी वृक्षों के जंगलों या टैगा से आच्छादित है तथा भूमध्यरेखीय एवं उष्ण कटिबंधीय मानसूनी जंगल भूमध्यरेखा के पास के स्थानों में फैले हैं। महाद्वीप के आंतरिक भागों में मरुदेशीय एवं पर्वतीय वनस्पतियाँ मिलती हैं। विभिन्न भूभागों की वनस्पतियों में बड़ी गहन विषमता है। स्थान-स्थान पर मनुष्य के कार्यों ने प्राकृतिक वनस्पति को परिवर्तित सा कर दिया है, और कुछ स्थानों पर उसके तथा उससे संबद्ध जानवरों, जैसे बकरियों इत्यादि के विनाशकारी कार्यों ने प्राकृतिक वनस्पति का सर्वथा विनाश कर डाला है। भिन्न जलवायुवाले दो बृहत्‌ एवं प्राकृतिक वनस्पतियों से परिपूर्ण भूखंडों में पहला उत्तरी वनखंड टैगा है जो संपूर्ण साइबेरिया के मध्योत्तरी भाग में फैला हुआ है और संसार का सबसे बड़ा एक ही प्रकार की प्राकृतिक वनस्पतिवाला भूखंड है। दूसरा प्राकृतिक वनस्पतिवाला भूभाग उष्ण एवं उपोष्णकटिबंधीय मानसूनी क्षेत्रों में फैला है। किंतु यहाँ अपेक्षाकृत अधिक विषमता एवं खुलापन है। इनका विस्तार चौड़ी पत्तियोंवाले सदाबहार वृक्षों तथा वायुशिफ (मैग्रोव) के समुद्रतटीय जंगलों से लेकर भारत के पश्चिमी भाग में स्थित काँटेदार झाड़ियों एवं मरुभूमि जंगलों तक है। इन दो बृहत्‌ वनस्पतिखंडों के अनंतर उल्लेख्य मध्यवर्ती स्टेप्स के मैदान हैं, तदनंतर मध्य एशिया तथा आसपास फैली पर्वतश्रेणियाँ एवं उनमें स्थित घाटियाँ हैं, शेष बंजर पठार आदि हैं। गंगा, सिंधु तथा ह्वांगहो आदि नदियों के मैदानी भाग में स्वार्थी मनुष्य के विनाशकारी कार्यों के कारण वनस्पति के छोटे-छोटे बिखरे खंड रह गए हैं। जंगलों की पंक्तियाँ नदियों के किनारे फैली मिलती हैं। एशिया के इन विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक वनस्पतिखंडों से कुछ आर्थिक महत्व के पौधे संसार को प्राप्त हुए हैं जिनमें चाय, धान और गन्ना भारत से, सेब एवं नाशपाती कैस्पियन क्षेत्र से तथा आड़ू, खुबानी एवं नारंगी चीन से प्राप्त हुए हैं।

जीवजंतु-बृहत्‌ विस्तार, जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति की अत्यधिक विविधता तथा विषमता के कारण महाद्वीप में अनेक तरह के जीवजंतु पाए जाते हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण जंतु सदा के लिए विनष्ट हो गए हैं। महाद्वीप के जीवजंतुओं में हिमयुग के अनंतर प्रचुर परिवर्तन हुए हैं, जैसा अस्थि अवशेषों के अध्ययन से सुस्पष्ट है। विभिन्न प्रकार की विनष्ट पशुजातियों में कंदरावासी रीछ (केव बेयर), भेड़िया, लकड़बग्घा तथा विशालकाय गैंडे प्रमुख हैं। हाल में प्राप्त अवशेषों में बलूचीथीरियम की अस्थियाँ उल्लेखनीय हैं। गैंडे की आकृति का यह जंतु पृथ्वी का सर्वाधिक बड़ा जंतु था और इसके कंधे तक की ही ऊँचाई अठारह फुट तक होती थी। कुछ अन्य प्रकार के जंतु भी तेजी से विनिष्ट हो रहे हैं जिनमें जंगली भैसा एवं सिंह मुख्य हैं। एशिया महाद्वीप बहुत से वर्तमान पशुओं के विभिन्न वंशों की जन्मभूमि भी रहा है। उनमें से सर्वाधिक उपयोगी घोड़ा है, जिसे घुमक्कड़ जातियों ने लगभग 5,000 वर्ष पहले पालतू बनाया। एशिया ही जंगली गदहे की भी जन्मभूमि है। एशिया माइनर बकरी का प्रथम निवासभूमि माना जाता है। दो कूबड़वाले ऊँट एवं याक आदि की भी उत्पत्ति इसी महाद्वीप में हुई थी। याक तिब्बत का पशु है जिससे न केवल मक्खन, मांस एवं चमड़ा मिलता है, प्रत्युत यह बोझ ढोने के लिए भी अत्यंत उपयोगी है। इस देश में पालतू बनाए गए जंगली जानवरों में सर्वप्रमुख एवं सर्वाधिक उपयोगी भारतीय बैल है। उत्तरी साइबेरिया एवं टुंड्रा प्रदेश के लिए रेनडियर अनिवार्य जानवर है। पामीर क्षेत्र में पाई जानेवाली पहाड़ी भेड़, ओविसपोली, अपने विशाल एवं अनेक शाखायुक्त सींगों के लिए प्रसिद्ध है। महाद्वीप में अनेक प्रकार के लंगूर पाए जाते हैं। भारत, ब्रह्मदेश एवं मलाया के विभिन्न वन्य प्रदेशों में हाथी बहुतायत से मिलते हैं। यहाँ के हाथी बड़ी सुगमता से पालतू और शिक्षित हो जाते हैं। वैभव एवं राजसी ठाट के ये प्रमुख चिह्न तो हैं ही, प्रशिक्षण के उपरांत श्रम और सेवा संबंधी विभिन्न कार्यों में ये विशेष उपयोगी भी सिद्ध हुए हैं। महाद्वीप में तीन प्रकार के गैंडे मिलते हैं। दक्षिण-पश्चिमी एशिया एवं पड़ोसी अफ्रीका में संबद्ध वंश के बहुत से जानवर मिलते हैं। लकड़बग्घा न केवल अफ्रीकी मैदानों में प्रत्युत भारत में भी बहुत मिलता है। भालू, चीते, तेंदुए तथा भेड़िए बहुतायत से पाए जाते हैं। भालुओं में सबसे बड़ा ध्रुवप्रदेशीय भालू होता है जो उत्तरी प्रदेशों में पाया जाता है। मांसाहारी जीवों में सर्वप्रथम बाघ है जो एशिया के अतिरिक्त किसी भी अन्य महाद्वीप में वन्य अवस्था में नही पाया जाता। लेकिन एशिया के जंतुओं में संभवत: सर्वाधिक विचित्र जानवर विशालकाय पंडा है जो आंतरिक चीन के पर्वतीय क्षेत्रों में मिलता है। इसका मुख्य भोजन बाँस की पत्तियाँ आदि है लेकिन इस साधारण भोज्य सामग्री पर भी उसका वजन 350 पौंड तक होता है। दक्षिणी एशिया में बंदरों की अनेक जातियाँ बिखरी हैं। मलय का वनमानुष (गिबन) ही केवल एक ऐसा मनुष्येतर जंतु है जो मनुष्य की तरह सीधा खड़ा रह सकता है।

महाद्वीप में विविध प्रकार के पक्षी भी प्रचुरता से पाए जाते हैं जिनमें वन्यकुक्कुट (मुर्ग), बगुला तथा गिद्ध अधिक प्रसिद्ध हैं। मोर नामक सुंदर पक्षी प्राच्य बागों का सौंदर्यपक्षी है। बाज राजा महाराजाओं का प्रिय आखेटपक्षी रहा है। दक्षिण एशिया में विषैले तथा साधारण साँपों की अनेक जातियाँ पाई जाती हैं। जलचर जंतुओं में घड़ियाल प्रसिद्ध है जो भारत की नदियों में बहुत पाया जाता है। महाद्वीप के निकटवर्ती समुद्रों में एवं आंतरिक जलखातों, नदियों, झीलों और तालाबों में अनेक तरह की मछलियाँ मिलती हैं। चीन में सुनहरी मछली मिलती है।

जनसंख्या तथा आर्थिक विकास संबंधी समस्याएँ-एशिया न केवल क्षेत्रफल प्रत्युत जनसंख्या की दृष्टि से भी महत्तम महाद्वीप है। कई क्षेत्रों में जनगणना न होने से महाद्वीप की जनसंख्या का ठीक आकलन नहीं हो सकता है, परंतु 1974 में यहाँ अनुमानत: 2,10,00,00,000 जनसंख्या हो गई है। इस प्रकार संसार के स्थलभाग के एक तिहाई क्षेत्रवाले एशिया महाद्वीप में संसार के 57 प्रतिशत व्यक्ति रहते हैं। लेकिन इस विशाल जनसंख्या का महाद्वीप के विभिन्न भागों में असमान वितरण है। यदि कुछ क्षेत्रों में आबादी घनी है तो कुछ क्षेत्र में अति विरल और कुछ लगभग जनशून्य भी हैं। महाद्वीप की आधी से अधिक आबादी केवल दो बृहत्‌ भूखंडों में निवास करती है : प्रथम, चीन (1971 में जनसंख्या अनुमानत: 75,00,00,000) तथा द्वितीय, भारतीय उपमहाद्वीप जिसमें भारत (1971 में 54,73,67,926), पाकिस्तान (1971 में जनसंख्या 6,80,00,000) तथा बंगलादेश (1971 में जनसंख्या 7,10,00,000) हैं। तीन अन्य क्षेत्रों में भी घनी आबादी पाई जाती है-प्रथम जापान (1970 में 10,37,20,000), द्वितीय जावा (1971 में 7,98,49,000) एवं तृतीय श्रीलंका (1971 में अनुमानत: 1,30,00,000)। इनमें औसत घनत्व क्रमश: 275, 500 एवं 179 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है।

एशिया में ऐसे कई विशाल भूखंड हैं जहाँ बस्ती अत्यंत विरल है। दो तिहाई क्षेत्रफल में महाद्वीप की कुल जनसंख्या का केवल दशमांश निवास करता है। ऐसे विरल भूखंडों में दक्षिण-पश्चिम एशिया, सोवियत एशिया एवं उच्चधरातलीय भाग हैं। इस प्रकार की कम आबादी के मुख्य कारण इन भूभागों में जलवायु की शुष्कता, शीताधिक्य अथवा उनके अत्युच्च विषम धरातल हैं। अरब प्रायद्वीप के बृहत्‌ भूखंड (लगभग 10 लाख वर्ग मील) में केवल एक करोड़ मनुष्य रहते हैं। इस प्रदेश का जनघनत्व पाँच से भी कम है और मध्य एशिया के अधिकांश में तो यह घनत्व एक से भी कम हो जाता है। जावा को छोड़कर पूर्वी द्वीपसमूहों का भी प्रति वर्गमील घनत्व का औसत 25 ही है। जनसंख्या के इस असमान वितरण से यह ज्ञात होता है कि कृषियोग्य भूमि के अनुसार ही इस महाद्वीप में जनसंख्या का घनत्व कम या अधिक पाया जाता है। दक्षिण एवं पूर्वी भागों में स्थित घनी आबादीवाले अधिकांश भूखंड जलोढ द्वारा निर्मित मैदानी भाग हैं। एशिया महाद्वीप के लगभग सभी देश कृषिप्रधान हैं और सर्वाधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में बसी है। नगरों एवं उद्योग धंधों का विकास एशिया महाद्वीप में थोड़े समय से ही प्रारंभ हुआ है परंतु इनके विकास की गति बड़ी तीव्र हो गई है। 1941 तक भारत में केवल दो ही बृहत्‌ नगर (दस लाख जनसंख्यावाले) थे, लेकिन 1971 में इनकी संख्या नौ (कलकत्ता, बंबई, दिल्ली, मद्रास, बँगलोर, अहमदाबाद, हैदराबाद, कानपुर तथा पूना) हो गई। दक्षिण-पूर्वी एशिया में 1945 के बाद छह बृहत्‌ नगर विकसित हुए जिनके नाम जकार्ता, मनिला, साइगान, बैकाक एवं सिंगापुर हैं।

महाद्वीप के विभिन्न भागों में पाई जानेवाली जातियों के विस्तार में पर्वतों के पृथक्कारी कार्य का महत्वपूर्ण हाथ रहा है जो महद्वीप की दो बृहत्‌ मानव जातियों-मंगोलों एवं इंडो-यूरोपियनों-को स्पष्टतया पृथक करते हैं। मध्य एशिया के पठार संभवत: मध्यकल्पिक काल से ही स्थलीय भाग रहे हैं और हिमालय का निर्माणकार्य प्रारंभ होने के पहले ही इनका स्थलीय विकास हो चुका था। अत: यह सिद्धांत सर्वथा सत्य एवं तथ्यपूर्ण लगता है, जैसा पुरातत्वीय खोजों से भी सिद्ध हो चुका है, कि मध्य एशिया ही संसार के स्तानधारी जीवों का विकासक्षेत्र है एवं यहीं से उनका चतुर्दिक विकेंद्रीकरण हुआ। इन स्तनधारी जीवों में से ही मानव भी एक जीव है जिसका विकास संभवत: मध्य एशिया के किसी क्षेत्रविशेष में तृतीय युग में हुआ। संभवत: हिमयुग के प्रादुर्भाव के कारण्ण मध्य एशिया में भी जलवायु मनुष्यों के निवास के प्रतिकूल हो गई जिससे उन्हें देशांतर जाना पड़ा। हिमयुगों के अंतिम काल में मध्य एशिया की जलवायु आज की अपेक्षा संभवत: अत्यधिक आर्द्र थी। लेकिन धीरे-धीरे कालक्रम से, जलस्रोत सूखते गए। जलवायु की शुष्कता बढ़ती गई। फलत: वहाँ के निवासियों को बाध्य होकर धीरे-धीरे नए देशों की खोज में बाहर जाना पड़ा। जैसा हैडन ने लिखा है, प्रागैतिहासिक काल के प्र्व्राजनों में नॉर्डिक (उत्तरी यूरोप के निवासी) जाति के लोगों ने मध्य एशिया से पश्चिम की ओर, मंगोल जातिवालों ने दक्षिण-पूर्व की ओर तथा अल्पाइन जातिवालों ने तुर्किस्तान से एशिया माइनर होते हुए मध्य दक्षिणी यूरोप की ओर प्रस्थान किया।

आजकल महाद्वीपों में अनेक जातियाँ, उपजातियाँ पाई जाती हैं और हजारों वर्षों के अंतर्मिश्रण के कारण जातियों, उपजातियों के इतने छोटे-छोटे विभाग एवं समूह हो गए हैं जिनकी मुख्य भागों में विभाजित करना दुष्कर हो गया है। हैडन ने मानव जाति के तीन मुख्य विभाग किए हैं : यूलोत्रिकी, साइमोत्रिकी और लाइओत्रिकी। महाद्वीप में स्थित यूलोत्रिकी जातिविभाग में कुछ अत्यंत पिछड़ी हुई नाटे कदवाली जातियाँ आती हैं जिनमें अंडमान निवासी, मलय एवं सुमात्रा के सेमांग, फिलीपाइन द्वीपसमूह के ऐटा तथा न्यूगिनी के पैपुआ जातिवाले प्रमुख हैं।

कपालरचना के आधार पर साइमोत्रिकी जाति के तीन प्रमुख विभाग एवं शरीर के रंग के विचार से पुन: उपविभाग किए गए हैं : प्रथम लंबे सिरवाले लोगों में डालिकोसिफ़ालिक हैं जिनका रंग गहरा भूरा एवं काला होता है। इनमें श्रीलंका के वेद्दा, मलय, सुमात्रा तथा सेलिबीज़ द्वीपों की प्राग्द्रविड़ जातियाँ एवं भारत के द्रविड़ जातिवाले प्रमुख हैं, तथा कुछ हल्के रंगवाली जातियों में उत्तरी भारत एवं दक्षिणी-पश्चिमी एशिया के अधिकांश भागों में निवसित इंडो-अफगानी, अरब, यहूदी एवं पूर्वी द्वीपसमूह के निवासी इंडोनेशियन जातिवाले हैं। मेसाटीसिफ़ालिक अर्थात्‌ साधारण सिरवाली जातियों में जापान के निवासी ऐनू तथा चोड़े सिरवाली जातियों में ब्रैकीसिफ़ालिक आर्मीनियन सर्वप्रमुख हैं। द्वितीय बृहत्‌ विभाग लाइओत्रिकी का मुख्य चिह्न सीधा सिर है जो समग्र उत्तरी एवं पूर्वी एशिया के निवासियों में पाया जाता है और जिनके सीधे बाल या पीले-भूरे मिश्रित रंगों के होते हैं। आँखों की बनावट आदि में अंतर होते हुए भी साधारणतया ये मंगोल जाति के कहलाते हैं। इन विभेदों के अनुसार प्रमुख उपजतियों में निम्नलिखित जातियाँ मुख्य हैं-प्रथम, उत्तरी साइबेरिया निवासी; द्वितीय, तुंग एवं मांचु; तृतीय, चीनी (मुख्य चीन के निवासी); चतुर्थ, तुर्क, पंचम, पश्चिमी साइबेरिया के निवासी, उग्रियन; तथा षष्ठ, तिब्बतचीन के मिश्रित लोग जिनमें मलय जातिवाले भी सम्मिलित हैं।

जनसंख्या की अधिकता का भार खाद्य के साधनों अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कृषियोग्य भूमि पर पड़ता है। प्राचीन सभ्यता एवं निम्न स्तर के जीवन के कारण निरंतर बढ़ते-बढ़ते महाद्वीप की वर्तमान संतृप्ति की सीमा को भी पार कर रही है।

पहले प्राकृतिक दुर्योग, जैसे दुर्भिक्ष, महामारी अथवा युद्ध आदि जनसंख्या की निरंतर वृद्धि को नियंत्रित करते थे, परतु आजकल इन दुर्योगों पर मनुष्यों ने स्वयं नियंत्रण कर लिया है, फलत: जनसंख्या अबाध गति से बढ़ती जा रही है। एशिया का दो तिहाई भाग अपने साधनों के संभावित विकास के अनुमान में विरल बसा है। महाद्वीपों के घने बसे हुए क्षेत्रों में, जहाँ से कुछ देशांतरगमन हुआ है, भूमि की जनसंख्या का भार बहुत कम हल्का हुआ है। लेकिन इधर एशिया निवासियों के अंतर्ममहाद्वीपीय स्थानांतरण पर संबंधित राष्ट्रों द्वारा कुछ रोक लगा दी गई है।

वातावरण की भिन्नताओं एवं विषमताओं के अनुरूप ही महाद्वीप में अनेक प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक सभ्यता तथा संस्कृति के स्तर भी पाए जाते हैं-एक ओर सर्वथा पिछड़ी हुई जातियाँ हैं जो अब तक सभ्यता के प्राथमिक चरण पर भी नहीं पहुँच पाई हैं तो दूसरी ओर समाजवाद एवं एकाधिकारात्मक पूँजीवाद के अत्यंत विषम संगठन विकसित हैं। वर्तमान आवागमन एवं संवादसंवहन के साधनों के विकास के फलस्वरूप अस्थिरवासी तथा स्थायी संस्कृतियों की विषमता दिन प्रति दिन घट रही है। चलचित्र, रेडियो तथा सर्वोपरि मोटर बसों के विकास के कारण विभिन्न भागों की निर्जनता एवं एकाकीपन समाप्तप्राय होता जा रहा है।

प्राकृतिक वातावरण एवं सामाजिक विकास के आधार पर एशिया के छह बृहत्‌ विभाग किए जा सकते हैं : दक्षिण-पश्चिम एशिया, दक्षिण-एशिया, दक्षिण-पूर्वी एशिया, पूर्वी एशिया, सोवियत एशिया एवं उच्च एशिया। इन सभी भूभागों में प्रचुर सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन हो रहे हैं। इन क्षेत्रों में कालांतर से चल रही कृषिप्रधान एवं आत्माश्रित आर्थिकता को खींचकर अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से संबद्ध कर देने के विविध दुष्परिणाम भी हुए। अनेक क्षेत्रों में सामूहिक कृषि ने वैयक्तिक परिवारों को बड़े पैमाने के आर्थिक धंधों के स्तर पर ला दिया। संपूर्ण समाज का समाज प्राचीन एवं नवीन संसार के सर्वथा विभिन्न आर्थिक प्रयत्नों के पथ में अरसे से भटकता रहा है और किसी किनारे पर अब तक पूर्णतया स्थिर नहीं हो सका है। बर्मा एवं पाकिस्तान जैसे देशों में गौण कृषि उद्योग-धंधों पर जोर देकर कल्याण के मार्ग ढूँढ़ने के प्रयत्न हो रहे हैं। एशिया महाद्वीप के कृषकों की अत्यल्प क्रयशक्ति उद्योगीकरण के मार्ग में संभवत: सबसे बड़ी कठिनाई है। अत: क्रयशक्ति को बढ़ाने की समस्या संप्रति महाद्वीप की सबसे बड़ी समस्या है। महाद्वीप के विभिन्न देशों, जैसे चीन, भारत आदि, ने आर्थिक विकास के लिए योजनाएँ बनाई हैं और इस दिशा में विशेष प्रगति की है।

यद्यपि महाद्वीप के सामाजिक जीवन की परंपराओं एवं रीतिरिवाजों में अधिक परिवर्तन नहीं हो सके हैं, और जो परिवर्तन हो भी रहे हैं वे बहुत धीमी गति से, तथापि शताब्दियों से विदेशी प्रभावों के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के चक्र में पड़कर उसके आर्थिक संगठन में प्रचुर परिवर्तन हुए हैं। द्वितीय महायुद्ध एवं परवर्ती क्रांतिकाल में महाद्वीप के राजनीतिक क्षेत्रों में भी कई एक परिवर्तन हुए। राष्ट्रीयता की भावनाओं एवं क्रांतियों के कारण लगभग 50 कर्रोड़ मनुष्यों को स्वतंत्रता मिली है। रूस ने अंतर्युद्धकाल में आर्थिक जीवन की कायापलट कर दी है और इस शताब्दी के अंत तक अपनी आर्थिक समस्याओं को सुलझा लेने के पथ पर वह निरंतर आगे बढ़ रहा है। जापान के भविष्य में कुछ अनिश्चितता है पर पिछले साठ वर्षों की व्यापर समुन्नति ने जापान को अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति बना दिया है। भारत ने योजनात्मक ढंग से प्रगति का मार्ग अपनाया है तथा पड़ोसी पाकिस्तान भी अपने सीमित साधनों के अनुसार अपनी विषम समस्याओं को सुलझाना चाहता है। इस प्रकार एशिया महाद्वीप के सभी देश अपने आर्थिक संगठन तथा कृषि एवं उद्योग धंधों को योजनात्मक ढंग से विकसित करके प्रगति के मार्ग पर बढ़ते दृष्टिगत होते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ