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लेख सूचना
ज्ञानमीमांसा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 68-70
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक दीवाचंद

ज्ञानमीमांसा दर्शनशास्त्र का ध्येय सत्‌ के स्वरूप को समझना है। शतियों से विचारक यह खोज करते रहे हैं, परंतु किसी निश्चित निष्कर्ष से अब भी उतने ही दूर प्रतीत होते हैं, जितना पहले थे। आधुनिक कल में देकार्त (१५९६-१६५० ई.) का ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वत:सिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक संदेह से आरंभ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता : संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है। इस नींव पर उसने, अपने विचार में, परमात्मा और सृष्टि के अस्तित्व को सिद्ध किया। देकार्त की विवेचन-विधि नई थी, परंतु पूर्वजों की तह उसका अनुराग भी तत्वज्ञान में ही था।

जान लॉक (१६३२-१७०४ ई.) ने अपने लिये नया मार्ग चुना। सदियों से सत्‌ के विषय में विवाद होता रहा है। पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हमारे ज्ञान की पहुँच कहाँ तक है। इसी से ये प्रश्न भी जुड़े थे कि ज्ञान क्या है और कैसे प्राप्त होता है। यूरोप महाद्वीप के दार्शनिकों ने दर्शन को गणित का प्रतिरूप देना चाहा था, लॉक ने अपना ध्यान मनोविज्ञान की ओर फेरा 'मानव बुद्धि पर निबंध' की रचना की। यह युगांतकारी पुस्तक सिद्ध हुई, इसे अनुभववाद का मूलाधार समझा जाता है। जार्ज बर्कले (१६८४-१७५३) ने लॉक की आलोचना में 'मानवज्ञान' के नियम लिखकर अनुभववाद को आगे बढ़ाया, और डेविड ह्यूम (१७११-१७७६ ई.) ने 'मानव प्रकृति' में इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। ह्यूम के विचारों का विशेष महत्व यह है कि उन्होंने कांट (१७२४-१८०४ ई.) के 'आलोचनवाद' के लिये मार्ग खोल दिया। कांट ने ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र का केंद्रीय प्रश्न बना दिया। किंतु पश्चिम में ज्ञानमीमांसा को उचित पद प्रप्त करने में बड़ी देर लगी। भारत में कभी इसकी उपेक्षा हुई ही नहीं। गौतम के न्यायसूत्रों में पहले सूत्र में ही १६ विचारविषयों का वर्णन हुआ है, जिसके यथार्थ ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है। इनमें प्रथम दो विषय 'प्रमाण' और 'प्रमेय' हैं। ये दोनों ज्ञानमीमांसा और ज्ञेय तत्व ही हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों में भी प्रथम स्थान 'प्रमाण' को दिया गया है।

ज्ञानमीमांसा में प्रमुख प्रश्न

ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है। देकार्त ने अपने अनुभव के विश्लेषण से आरंभ किया, परंतु मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसका अनुभव शून्य में नहीं विकसित होता। दर्शनशास्त्र का इतिहास वादविवाद की कथा है। प्लेटो ने अपना मत संवादों में व्यक्त किया। संवाद में एक से अधिक चेतनाओं का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। ज्ञानमीमांसा में विवेचन का विषय वैयक्तिक चेतना नहीं, अपितु सामाजिक चेतना बन जाती है। ज्ञान का अपना अस्तित्व तो असंदिग्ध है परंतु इसमें निम्नलिखित स्वीकृतियाँ भी निहित होती हैं-

क. ज्ञान से भिन्न ज्ञाता है, जिसे ज्ञान होता है। ख. ज्ञान एक से अधिक ज्ञाताओं के संसर्ग का फल है। ग. ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न है।

प्रत्येक धारणा सत्य होने का दावा करती है। परंतु मीमांसा इस दावे को उचित जाँच के बिना स्वीकार नहीं कर सकता। हम अभी इन धारणाओं की परीक्षा करेंगे, परंतु पहले ज्ञान के स्वरूप पर कुछ कहना आवश्यक है।

ज्ञान का स्वरूप: सम्मति, विश्वास और ज्ञान

जब हम किसी धारणा को सुनते हैं या उसका चिंतन करते हैं तो उस सबंध में हमारी वृत्ति इस प्रकार की होती है --

च. हम उसे सत्य स्वीकार करते हैं। छ. उसे असत्य समझकर अस्वीकार करते हैं। ज. सत्य और असत्य में निश्चय न कर सकें, तो स्वीकृति अस्वीकृति दोनों को विराम में रखते हैं। यह संदेह की वृत्ति है। झ. उपन्यास पढ़ते हुए हम अपने आपको कल्पना के जगत्‌ में पाते हैं और जो कुछ कहा जाता है उसे हम उस समय के लिये तथ्य मान लेते हैं। यह 'काल्पनिक स्वीकृति' है।

स्वीकृति के कई स्तर होते हैं। अधम स्तर पर सामयिक स्वीकृति है, इसे सम्मति कहते हैं। यह स्वीकृति प्रमाणित नहीं होती, इसे त्यागना पड़े तो हमें कोई विरक्ति नहीं होती। सम्मति के साथ तेज और सजीवता प्रबल होती है। धार्मिक विश्वासों पर जमें रहने के लिये मनुष्य हर प्रकार का कष्ट सहन कर लेता है। विश्वास और सम्मति दोनों वैयक्तिक कृतियाँ हैं, ज्ञान में यह परिसीमन नहीं होता। मैं यह नहीं कहता कि मेरी संमति में दो और दो चार होते हैं, न यह कहता हूँ कि मेरे विश्वास के अनुसार, यदि क और ख दोनों ग के बराबर हैं तो एक दूसरे के भी बराबर हैं। ये तो ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें प्रत्येक बुद्धिवंत प्राणी को अवश्य मानना होता है संमतियो में भेद होता है ज्ञान सबके लिये एक है। ज्ञान में संमति की आत्मपरकता का स्थान वस्तुपरकता ले लेती है।

ज्ञान और ज्ञाता

अनुभववाद के अनुसार, ज्ञानसामग्री के दो ही भाग हैं- प्रभाव और उनके बिंब। द्रव्य के लिये इनमें कोई ज्ञान नहीं। ह्यूम ने कहा कि जिस तरह भौतिक पदार्थ गुणसमूह के अतिरिक्त कुछ नहीं, उसी तरह अनुभवी अनुभवों के समूह के अतिरिक्त कुछ नहीं। इन दोनों समूहों में एक भेद है- कुल के सभी गुण एक साथ विद्यमान होते हैं, चेतन की चेतनावस्थाएँ एक दूसरे के बाद प्रकट होती हैं। चेतना श्रेणी या पंक्ति है और किसी पंक्ति को अपने आप पंक्ति होने का बोध नहीं हो सकता। हृदय की व्याख्या में स्मरण शक्ति के लिये कोई स्थान नहीं; जैसे विलियम जेम्स ने कहा, अनुभववाद को स्मृति माँगनी पड़ती है। ह्यूम को ज्ञाता ज्ञानसामग्री में नहीं मिला; वह वहाँ मिल ही नहीं सकता था। अनुभववाद के लिये प्रश्न था- अनुभव क्या बताता है? पीछे कांट ने पूछा- अनुभव बनता कैसे है? अनुभव अनुभवी की क्रिया के बिना बन ही नहीं सकता।

पुरुषबहुत्व

मनुष्य सामाजिक प्राणी है; हमारा सारा जीवन और मनुष्यों के साथ व्यतीत होता है। पुरुषबहुत्व व्यापक स्वीकृति है। मीमांसा के लिये प्रश्न यह है कि इस स्वीकृति की स्थिति दृढ़ विश्वास की स्थिति है या ज्ञान की? इस विषय में स्वप्न संदेह का कारण है। स्वप्न में मैं देखता सुनता प्रतीत होता हूँ; अन्य मनुष्यों के साथ संसर्ग भी होता प्रतीत होता है। क्या जागरण और स्वप्न का भी स्वप्न की प्रतीति तो नहीं? अहंवाद के अनुसार सारी सत्ता भारी कल्पना ही है। हमारा सामाजिक जीवन अहंवाद का खंडन है, परंतु प्रश्न तो सामाजिक जीवन के संबंध में ही है -- क्या यह जीवन विश्वास मात्र ही तो नहीं? अहंवाद के विरुद्ध कोई ऐसा प्रमाण नहीं जिसे अखंडनीय कह सकें। जब हम ऐसे संदेह से ग्रस्त होते हैं तो, जैसा ह्यूम ने कहा है, थोड़े समय के बाद हम अपने आपको थका पाते हैं और हमारा ध्यान विवश होकर दुनिया की ओर फिरता है, जिसमें भौतिक पदार्थ भी हैं और चेतन प्राणी भी। जब बुद्धि काम नहीं करती, प्रकृति हमारी सहायता करती है।

प्रतिबोध मीमांसा

अनुभववाद के अनुसार सारा ज्ञान अंत में प्रभावों और उनके चित्रों से बनता है। प्रभाव में गुणबोध और वस्तुवाद का भेद कर सकते हैं; चित्र में प्रतिबिंब और प्रत्यय का भेद होता है। प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय किसी विशेष गुण का चरिचय देती है -- आँख रूप का, कान शब्द का, नाक गंध का। इन गुणों के समन्वय से वस्तुज्ञान प्राप्त होता है। इसे प्रतिबोध या प्रत्यक्ष भी कहते हैं। ऐसे बोध में ज्ञान का विषय ज्ञाता के बाहर होता है; प्रतिबिंब और प्रत्यय अंदर होते हैं। यह बाहर और अंदर का भेद कल्पना मात्र है या तथ्य है, ज्ञानमीमांसा में यह प्रमुख प्रश्न रहा है। प्रतिबोध या प्रत्यक्ष ज्ञान ने जितना ध्यान आकर्षित किया है, उतना ज्ञानमीमांसा में किसी अन्य प्रश्न ने नहीं किया।

सांख्य दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष के दो प्रमुख चिह्न हैं --

  1. प्रत्यक्ष इंद्रिय और विषय के संपर्क का परिणाम होता है।
  2. प्रत्यक्ष में चित्त विषय के आकार को ग्रहण कर लेता है।

इसका अर्थ यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पनामात्र नहीं होता और इसमें किसी प्रकार की भ्रांति नहीं होती। यह तो स्पष्ट ही है कि हमारे पास प्रत्यक्ष से अधिक विश्वस्त ज्ञान नहीं, परंतु प्रश्न यह है कि विषयी और विषय में सीधा संपर्क हो भी सकता है या नहीं। यदि ऐसा संपर्क होता है, तो भ्रांति कैसे प्रविष्ट हो जाती है? विषयी और विषय में कुछ अंतर होता है। इस अंतर की दशा हमारे बोध को प्रभावित करती है। जंगल के वृक्ष दूर से हरेनहीं दीखते, क्योंकि उनके रंग के साथ बीच में पड़नेवाली वायु का रंग भी मिल जाता है। फिर, हमारी इंद्रिय की अवस्था भी एक सी नहीं रहती, कान का रोगी पदार्थों को पीला देखता है। कुछ विचारक कहते हैं कि हम बाह्य पदार्थों को नहीं देखते, उनके चित्रों को देखते हैं, इन चित्रों के विषय में निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये बाह्य पदार्थों के अनुरूप हैं; यहाँ भ्रांति की संभावना सदा बनी रहती है। वास्तववाद के दो रूप हैं -- साक्षातात्मक वास्तववाद और प्रतिबिंबात्मक वास्तववाद। पहले रूप में भ्रांति का अस्तित्व समस्या बन जाता है, दूसरे रूप में सत्य ज्ञान का समाधान नहीं होता।

विज्ञानवाद अंदर और बाहर के भेद को समाप्त कर देता है। जान लॉक के विचारों में ही इसका बीज विद्यमान था। उसने कहा कि द्रव्य का प्रत्यय अस्पष्ट है। उसने यह भी कहा कि भौतिक पदार्थों के प्रधान गुण तो उनमें विद्यमान होते हैं, परंतु अप्रधान गुण वे परिणाम हैं जो प्रधान गुणों के आघात से हमारे मन में व्यक्त होते हैं। बर्कले ने कहा कि जो युक्तियाँ अप्रधान गुणों के वस्तुगत अस्तित्व के विरुद्ध दी जाती हैं, वही प्रधान गुणों के विरुद्ध दी जाती है। बाहर कुछ है ही नहीं, उसके बोध के स्पष्ट या अस्पष्ट होने का प्रश्न प्रत्यय बन गया है। इंद्रियदत्त (रूप, रस, गंध आदि) बाह्य पदार्थों के गुण नहीं, न ही ये मानसिक अवस्थाएँ हैं। ये ज्ञाता से भिन्न, उसके बाहर हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। रस्सला के अनुसार, 'इंद्रियग्राह्यों' के समूह विद्यमान हैं, इनके कुछ अंश गृहीत हो जाते हैं। हमारा परिबोध सत्य ज्ञान है, परंतु आंशिक ज्ञान।

ज्ञान की सीमाएँ

कांट ने अपनी विख्यात पुस्तक 'शुद्ध बुद्धि की समालोचना' को इन शब्दों के साथ आरंभ किया-

'इस बात में तो संदेह ही नहीं हो सकता कि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है। क्योंकि यह कैसे संभव है कि बोध शक्ति कुछ करने लगे, सिवाय इसके कि हमारी इंद्रियों को प्रभावित करनेवाले पदार्थ इसे यह क्षमता दें। परंतु यद्यपि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि सारा ज्ञान अनुभव की ही देन है।

कांट ने अनुभव की बनावट में बुद्धि के भागदान पर बल दिया। ऐसा करने पर भी, उसने आरंभ में कहा कि हमारा विचार प्रकटनों की दुनिया से परे नहीं जा सकता। पीछे उसने अनुशीलक बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि में भेद किया और कहा कि अनुशीलक बुद्धि ज्ञान देती है, परंतु यह ज्ञान प्रकटनों की दुनिया से परे ही सत्ता है। मनुष्य सारभूत रूप में नैतिक प्राणी है। नीति की माँगें ये हैं --

ट. मनुष्य के कर्तव्य हैं, इसलिये उसमें कर्तव्यपालन की क्षमता है; वह स्वाधीन है।

ठ. मनुष्य का लक्ष्य अनंत है, इसकी सिद्धि के लिये अनंतकाल की आवश्यकता है। आत्मा अमर है।

ड. नीति की माँग यह है कि सदाचार और सुख संयुक्त हों। ऐसा संयोग हमारे वश में नहीं, परमात्मा ही ऐसा संयोग करने में समर्थ है; परमात्मा का अस्तित्व है।

भारत में परा विद्या और अपरा विद्या में भेद किया गया है और दोनों में प्रथम को ऊँचा पद दिया है। कुछ विचारक तो अपरा विद्या को अविद्या ही कहते हैं। प्लेटो ने विशेष पदार्थों के बोध को सम्मति का पद दिया, और सम्मति को विद्या और अविद्या के मध्य में रखा।

सत्य का स्वरूप

प्रत्येक निर्माण सत्य होने का दावा करता है। इस दावे का अर्थ क्या है?

निर्णय में दो प्रत्ययों या विचारों के संबंध की बात कही जाती है। यदि यह संबंध उन पदार्थों में भी विद्यमान है जो उन विचारों के मूल हैं, तो निर्णय सत्य है। सत्य का यह समाधान अनुरूपतावाद कहलाता है। विज्ञानवाद बाह्य जगत्‌ को कल्पना मात्र कहता है, इसके अनुसार सत्ता में चेतनाओं और चेतन अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

यदि कोई निर्णय शेष ज्ञान से संसक्त हो सकता है, तो वह सत्य है। यह अविरोधवाद है। आधुनिकवाद काल में अमरीका में व्यवहारवाद का प्रसार हुआ है। इसके अनुसार, जो धारणा व्यवहार में सफल सिद्ध होती है, वह सत्य है। सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं, जिसे हम देखते हैं; यह बनता है।

वास्तव में यहाँ दो प्रश्न हैं- (त) सत्य का स्वरूप क्या है? (थ) किसी धारणा के सत्य होने की कसौटी क्या है? अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है तथा अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का।

टीका टिप्पणी और संदर्भ