"भारतीय ज्योतिष": अवतरणों में अंतर

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लेख सूचना
भारतीय ज्योतिष
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 85-88
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक मुरारिलाल शर्मा

ज्योतिष भारतीय/भारतीय ज्योतिष ग्रहनक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं, जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत, मकरंद सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से प्रस्तुत किए जाते हैं। कुछ ऐसे भी पंचांग बनते हैं जिन्हें नॉटिकल अल्मनाक के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, किंतु इन्हें प्राय: भारतीय निरयण पद्धति के अनुकूल बना दिया जाता है।

भारत का प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य वैदिक साहित्य है। वैदिक कालीन भारतीय यज्ञ किया करते थे। यज्ञों के विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिये उन्हें निर्धारित समय पर करना आवश्यक था इसलिये वैदिककाल से ही भारतीयों ने वेधों द्वारा सूर्य और चंद्रमा की स्थितियों से काल का ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया। पंचांग सुधारसमिति की रिपोर्ट में दिए गए विवरण (पृष्ठ २१८) के अनुसार ऋग्वेद काल के आर्यों ने चांद्र सौर वर्षगणना पद्धति का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वे १२ चांद्र मास तथा चांद्र मासों को सौर वर्ष से संबद्ध करनेवाले अधिमास को भी जानते थे। दिन को चंद्रमा के नक्षत्र से व्यक्त करते थे। उन्हें चंद्रगतियों के ज्ञानोपयोगी चांद्र राशिचक्र का ज्ञान था। वर्ष के दिनों की संख्या ३६६ थी, जिनमें से चांद्र वर्ष के लिये १२ दिन घटा देते थे। रिपोर्ट के अनुसार ऋग्वेद कालीन आर्यों का समय कम से कम १,२०० वर्ष ईसा पूर्व अवश्य होना चाहिए। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ओरायन के अनुसार यह समय शक संवत्‌ से लगभग ४००० वर्ष पहले ठहरता है।

यजुर्वेद काल में भारतीयों ने मासों के १२ नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नमस्‌, नमस्य, इष, ऊर्ज, सहस्र, तपस्‌ तथा तपस्य रखे थे। बाद में यही पूर्णिमा में चंद्रमा के नक्षत्र के आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन हो गए। यजुर्वेद में नक्षत्रों की पूरी संख्या तथा उनकी अधिष्टात्री देवताओं के नाम भी मिलते हैं। यजुर्वेद में तिथि तथा पक्षों, उत्तर तथा दक्षिण अयन और विषुव दिन की भी कल्पना है। विषुव दिन वह है जिस दिन सूर्य विषुवत्‌ तथा क्रांतिवृत्त के संपात में रहता है। श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित के अनुसार यजुर्वेद कालिक आर्यों को गुरु, शुक्र तथा राहु केतु का ज्ञान था। यजुर्वेद के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। यदि हम पाश्चात्य पक्षपाती, कीथ का मत भी लें तो यजुर्वेद की रचना ६०० वर्ष ईसा पूर्व हो चुकी थी। इसके पश्चात्‌ वेदांग ज्योतिष का काल आता है, जो ई. पू. १,४०० वर्षों से लेकर ई. पू. ४०० वर्ष तक है। वेदांग ज्योतिष के अनुसार पाँच वर्षों का युग माना गया है, जिसमें १८३० माध्य सावन दिन, ६२ चांद्र मास, १८६० तिथियाँ तथा ६७ नाक्षत्र मास होते हैं। युग के पाँच वर्षों के नाम हैं : संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर तथा इद्ववत्सर१ इसके अनुसार तिथि तथा चांद्र नक्षत्र की गणना होती थी। इसके अनुसार मासों के माध्य सावन दिनों की गणना भी की गई है। वेदांग ज्यातिष में जो हमें महत्वपूर्ण बात मिलती है वह युग की कल्पना, जिसमें सूर्य और चंद्रमा के प्रत्यक्ष वेधों के आधार पर मध्यम गति ज्ञात करके इष्ट तिथि आदि निकाली गई है। आगे आनेवाले सिद्धांत ज्योतिष के ग्रंथों में इसी प्रणाली को अपनाकर मध्यम ग्रह निकाले गए हैं।

वेदांग ज्योतिष और सिद्धांत ज्योतिष काल के भीतर कोई ज्योतिष काल के भीतर कोई ज्योतिष गणना का ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। किंतु इस बीच के साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि ज्योतिष के ज्ञान में वृद्धि अवश्य होती रही है, उदाहरण के लिये, महाभारत में कई स्थानों पर ग्रहों की स्थिति, ग्रहयुति, ग्रहयुद्ध आदि का वर्णन है। इससे इतना स्पष्ट है कि महाभारत के समय में भारतवासी ग्रहों के वेध तथा उनकी स्थिति से परिचित थे।

सिद्धांत ज्योतिष प्रणाली से लिखा हुआ प्रथम पौरुष ग्रंथ आर्यभट प्रथम की आर्यभटीयम्‌ (शक संo ४२१) है। तत्पश्चात्‌ बराहमिहिर (शक संo ४२७) द्वारा संपादित सिद्धांतपंचिका है, जिसमें पेतामह, वासिष्ठ, रोमक, पुलिश तथा सूर्यसिद्धांतों का संग्रह है। इससे यह तो पता चलता है कि बराहमिहिर से पूर्व ये सिद्धांतग्रंथ प्रचलित थे, किंतु इनके निर्माणकाल का कोई निर्देश नहीं है। सामान्यत: भारतीय ज्योतिष ग्रंथकारों ने इन्हें अपौरुषेय माना है। आधुनिक विद्वानों ने अनुमानों से इनके कालों को निकाला है, और ये परस्पर भिन्न हैं। इतना निश्चित है कि ये वेदांग ज्योतिष तथा बराहमिहिर के समय के भीतर प्रचलित हो चुके थे। इसके बाद लिखे गए सिद्धांतग्रंथों में मुख्य हैं : ब्रह्मगुप्त (शक संo ५२०) का ब्रह्मसिद्धांत, लल्ल (शक संo ५६०) का शिष्यधीवृद्धिद, श्रीपति (शक संo ९६१) का सिद्धांतशेखर, भास्कराचार्य (शक संo १०३६) का सिद्धांत शिरोमणि, गणेश (१४२० शक संo) का ग्रहलाघव तथा कमलाकर भट्ट (शक संo १५३०) का सिद्धांत-तत्व-विवेक।

गणित ज्योतिष के ग्रंथों के दो वर्गीकरण हैं : सिद्धांतग्रंथ तथा करणग्रंथ। सिद्धांतग्रंथ युगादि अथवा कल्पादि पद्धति से तथा करणग्रंथ किसी शक के आरंभ की गणनापद्धति से लिखे गए हैं। गणित ज्योतिष ग्रंथों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय है: मध्यम ग्रहों की गणना, स्पष्ट ग्रहों की गणना, दिक्‌, देश तथा काल, सूर्य और चंद्रगहण, ग्रहयुति, ग्रहच्छाया, सूर्य सांनिध्य से ग्रहों का उदयास्त, चंद्रमा की श्रृंगोन्नति, पातविवेचन तथा वेधयंत्रों का विवेचन।

गणना प्रणाली

पूरे वृत्त की परिधि ३६० मान ली जाती है। इसका ३६० वाँ भाग एक अंश, का ६०वाँ भाग एक कला, कला का ६०वाँ भाग एक विकला, एक विकला का ६०वाँ भाग एक प्रतिविकला होता है। ३० अंश की एक राशि होती है। ग्रहों की गणना के लिये क्रांतिवृत्त के, जिसमें सूर्य भ्रमण करता दिखलाई देता है, १२ भाग माने जाते हैं। इन भागों को मेष, वृष आदि राशियों के नाम से पुकारा जाता है। ग्रह की स्थिति बतलाने के लिये मेषादि से लेकर ग्रह के राशि, अंग, कला, तथा विकला बता दिए जाते हैं। यह ग्रह का भोगांश होता है। सिद्धांत ग्रंथों में प्राय: एक वृत्तचतुर्थांश (९० चाप) के २४ भाग करके उसकी ज्याएँ तथा कोटिज्याएँ निकाली रहती है। इनका मान कलात्मक रहता है। ९० के चाप की ज्या वृहद्वृत्त का अर्धव्यास होती है, जिसे त्रिज्या कहते हैं। इसको निम्नलिखित सूत्र से निकालते हैं :

परिधि व्यास, अथवा त्रिज्या।

इस प्रकार त्रिज्या का मान ३४३८ कला है, जो वास्तविक मान के आसन्न है। चाप की ज्या आधुनिक प्रणाली की तरह अर्धज्या है। वस्तुत: वर्तमान त्रिकोणामितिक निष्पत्तियों का विकास भारतीय प्रणाली के आधार पर हुआ है और आर्यभट को इसका आविष्कर्ता माना जाता है। यदि किन्हीं दो भिन्न आकार के वृत्तों के त्रिकोणमितीय मानों की तुलना करना अपेक्षित होता है, तो वृहद् वृत्त की त्रिज्या तथा अभीष्ट वृत्त की निष्पत्ति के आधार पर अभीष्ट वृत्त की परिधि अंशों में निकाली जाती है। इस प्रकार मंद और शीघ्र परिधियों में यद्यपि नवीन क्रम से अंशों की संख्या ३६० ही है, तथापि सिद्धांतग्रंथों में लिखी हुई न्यून संख्याएँ केवल तुलनात्मक गणना के लिये हैं।

कालगणना

विषुवद् वृत्त में एक समगति से चलनेवाले मध्यम सूर्य (लंकोदयासन्न) के एक उदय से दूसरे उदय तक एक मध्यम सावन दिन होता है। यह वर्तमान कालिक अंग्रेजी के 'सिविल डे' (civil day) जैसा है। एक सावन दिन में ६० घटी; १ घटी २४ मिनिट साठ पल; १ पल २४ सेंकेड ६० विपल तथा २ १/२ विपल १ सेंकेंड होते हैं। सूर्य के किसी स्थिर बिंदु (नक्षत्र) के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमा के काल को सौर वर्ष कहते हैं। यह स्थिर बिंदु मेषादि है। ईसा के पाँचवे शतक के आसन्न तक यह बिंदु कांतिवृत्त तथा विषुवत्‌ के संपात में था। अब यह उस स्थान से लगभग २३ पश्चिम हट गया है, जिसे अयनांश कहते हैं। अयनगति विभिन्न ग्रंथों में एक सी नहीं है। यह लगभग प्रति वर्ष १ कला मानी गई है। वर्तमान सूक्ष्म अयनगति ५०.२ विकला है। सिद्धांतग्रथों का वर्षमान ३६५ दिo १५ घo ३१ पo ३१ विo २४ प्रति विo है। यह वास्तव मान से ८।३४।३७ पलादि अधिक है। इतने समय में सूर्य की गति ८.२७" होती है। इस प्रकार हमारे वर्षमान के कारण ही अयनगति की अधिक कल्पना है। वर्षों की गणना के लिये सौर वर्ष का प्रयोग किया जाता है। मासगणना के लिये चांद्र मासों का। सूर्य और चंद्रमा जब राश्यादि में समान होते हैं तब वह अमांतकाल तथा जब ६ राशि के अंतर पर होते हैं तब वह पूर्णिमांतकाल कहलाता है। एक अमांत से दूसरे अमांत तक एक चांद्र मास होता है, किंतु शर्त यह है कि उस समय में सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में अवश्य आ जाय। जिस चांद्र मास में सूर्य की संक्रांति नहीं पड़ती वह अधिमास कहलाता है। ऐसे वर्ष में १२ के स्थान पर १३ मास हो जाते हैं। इसी प्रकार यदि किसी चांद्र मास में दो संक्रांतियाँ पड़ जायँ तो एक मास का क्षय हो जाएगा। इस प्रकार मापों के चांद्र रहने पर भी यह प्रणाली सौर प्रणाली से संबद्ध है। चांद्र दिन की इकाई को तिथि कहते हैं। यह सूर्य और चंद्र के अंतर के १२वें भाग के बराबर होती है। हमारे धार्मिक दिन तिथियों से संबद्ध है१ चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उसे चांद्र नक्षत्र कहते हैं। अति प्राचीन काल में वार के स्थान पर चांद्र नक्षत्रों का प्रयोग होता था। काल के बड़े मानों को व्यक्त करने के लिये युग प्रणाली अपनाई जाती है। वह इस प्रकार है:

कृतयुग (सत्ययुग) १७,२८,००० वर्ष

द्वापर १२,९६,००० वर्ष

त्रेता ८, ६४,००० वर्ष

कलि ४,३२,००० वर्ष

योग महायुग ४३,२०,००० वर्ष

कल्प १००० महायुग ४,३२,००,००,००० वर्ष

सूर्य सिद्धांत में बताए आँकड़ों के अनुसार कलियुग का आरंभ १७ फरवरी, ३१०२ ई. पू. को हुआ था। युग से अहर्गण (दिनसमूहों) की गणना प्रणाली, जूलियन डे नंबर के दिनों के समान, भूत और भविष्य की सभी तिथियों की गणना में सहायक हो सकती है।

मध्य ग्रह गणना

ग्रह की मेषादि के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमा को एक भगण कहते हैं। सिद्धांतग्रथों में युग, या कल्पग्रहों, के मध्य भगण दिए रहते हैं। युग या कल्प के मध्य सावन दिनों की संख्या भी दी रहती है। यदि युग या कल्प के प्रारंभ में ग्रह मेषादि में हों तो बीच के दिन (अहर्गण) ज्ञात होने से मध्यम ग्रह को त्रैराशिक से निकाला जा सकता है। भगण की परिभाषा के अनुसार बुध और शुक्र की मध्यम गति सूर्य के समान ही मानी गई है। उनकी वास्तविक गति के तुल्य उनकी शीघ्रोच्च गति मानी गई है। ये ग्रह रेखादेश, अर्थात्‌ उज्जयिनी, के याम्योत्तर के आते हैं, जिन्हें देशांतर तथा चर संस्कारों से अपने स्थान के मयम सर्योदयासन्नकालिक बनाया जाता है।

मंद स्पष्ट ग्रह

स्पष्ट सूर्य और चंद्रमा की स्पष्ट गति जिस समय सबसे कम हो उस समय के स्पष्ट सूर्य और चंद्रमा का जितना भाग होगा उसे उनके मंदोच्च का भोग समझना चाहिए। स्पष्ट रवि चंद्र और मध्यम रवि चंद्र के अंतर को मंदफल कहते हैं। मंदोच्च से १८० की दूरी पर मंदनीच होगा। मंदोच्च से छह राशि तक स्पष्ट सूर्य चंद्र मध्यम सूर्य चंद्र से पीछे रहते हैं। इसलिये मंद फल ऋण होता है। मंदोच्च से मध्यम ग्रह के अंतर की मंदकेंद्र संज्ञा है। मंदोच्च से ३ राशि के अंतर पर मंदफल परमार्धिक होता है। उसे मंदांत्य फल कहते हैं। मंदनीच से मंदोच्च तक स्पष्ट ग्रह मध्यम ग्रह से आगे रहता है, अत: मंदफल धन होता है। मंदस्पष्ट रवि चंद्र के मंदफल को ज्ञात करने के लिये दो प्रकार के क्षेत्रों की कल्पना है, जिन्हें भंगि कहते हैं। पहली का नाम प्रतिवृत्त भंगि है। भू को केंद्र मानकर एक त्रिज्या के व्यासार्ध से वृत्त खींचा, वह कक्षावृत्त हुआ। इसके ऊर्ध्वाधरव्यास पर मंद अत्यफल की ज्या के तुल्य काटकर उस केंद्र से एक त्रिज्या व्यास से वृत्त खींचा वह मंदप्रतिवृत्त होगा। मध्यम ग्रह को मंदप्रतिवृत्त में चलता कल्पित किया। यदि कक्षा वृत्त में भी मंदकेंद्र के तुल्य चाप काटें तो वहाँ कक्षावृत्त का मध्यम ग्रह होगा। भूकेंद्र से प्रतिवृत्त स्थित ग्रह तक खींची गई रेखा कक्षावृत्त में जहॉ लगे वह मंदस्पष्ट ग्रह होगा। कक्षावृत्त के मध्यम और मंदस्पष्ट ग्रह का अंतर मंदफल होगा। नीचोच्च भंगि के लिये कक्षावृत्त पर स्थित मध्यम ग्रह से मंदांत्यफलज्या तुल्य व्यासार्ध से एक वृत्त खींच लेते हैं, जिसे मंदपरिधि वृत्त कहते हैं। कक्षावृत्त के केंद्र से मध्यम ग्रह से जाती हुई रेखा जहाँ मंदपरिधिवृत्त में लगे उसे मंदोच्च मानकर, मंद परिधि में विपरीत दिशा में, केंद्र के तुल्य अंशों पर ग्रह की कल्पना की जाती है। ग्रह से भूकेंद्र को मिलानेवाली रेखा (मंदकर्ण) जिस स्थान पर कक्षावृत्त को काटे वहाँ मंदस्पष्ट ग्रह होगा। इस प्रकार मंदस्पष्ट किए गए सूर्य और चंद्र हमें उन स्थानों पर दिखलाई देते हैं, क्योंकि उनका भ्रमण हमें पृथ्वीकेंद्र के सापेक्ष दिखलाई पड़ता है। शेष ग्रहों के लिये भी मंदफल निकालने की वैसी ही कल्पना है। उनका मंदोच्च स्पष्ट ग्रह से विलोमरीति द्वारा मंदस्पष्ट का ज्ञान करके ज्ञात करते हैं। ये मंदस्पष्ट ग्रह दृश्य नहीं होते, क्योंकि पृथ्वी उनके भ्रमण का केंद्र नहीं है। ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि मंदस्पष्ट ग्रह अपनी कक्षा में घूमते ग्रह का भोग (longitude) होता है। अतएव भूदृश्य बनाने के लिये पाँच ग्रहों के लिये शीघ्र फल की कल्पना की गई है।

स्पष्ट ग्रह

मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, तथा शनि को स्पष्ट करने के लिये शीघ्रफल की कल्पना है। इसके लिये भी मंद प्रतिवृत्त तथा मंदनीचोच्च जैसी भंगियों की कल्पना की जाती है, जिसके लिये मंद के स्थान पर शीघ्र शब्द रख दिया जाता है। अंतर्ग्रहों के लिये वास्तविक मध्यमग्रहों को ही शीघ्रोच्च कहते हैं। उनके माध्य अधिकतम रविग्रहांतर कोण (maxium elongation) को परमशीघ्रफल, परमशीघ्रफल की ज्या को शीघ्रांत्य फलज्या कहते हैं। ग्रह (मध्यमरवि) और शीघ्रोच्च का अंतर शीघ्रकेंद्र होता है। इसमें मंदफल के लिये बनाई गई भंगियों की तरह भंगियाँ बनाकर शीघ्रफल निकाला जाता है। इस प्रकार के संस्कार से ग्रह का इष्ट रविग्रहांतर कोण करके ग्रह की स्थिति ज्ञात हो जाती है। बहिर्ग्रहों के लिये रविकेंद्रिक परमलंबन की परमशीघ्रफल तथा रवि को शीघ्रोच्च मानकर शीघ्रफल ज्ञात किया जाता है। शीघ्रफल के संस्कार की विधि आचार्यों ने इस प्रकार निर्द्धारित की है कि उपलब्ध ग्रह का भोग यथार्थ आ सके।

ग्रहों की कक्षाएँ

ग्रहों की कक्षाएँ चंद्र, बुध, शुक्र, रवि, भौम, गुरु, शनि के क्रम से उत्तरोत्तर पृथ्वी से दूर हैं। इनका केंद्र पृथ्वी माना गया है१ यद्यपि ग्रहों के साधन के लिये प्रत्येक कक्षा का अर्धव्यास त्रिज्यातुल्य कल्पित किया है, तथापि उनकी अंत्यफलज्या भिन्न होने के कारण उनकी दूरी विभिन्न प्रकार की आती है। शीघ्रांत्यफलज्याओं और त्रिज्याओं की ग्रहकक्षाव्यासार्धं और रविकक्षाव्यासार्ध से तुलना करने पर बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति तथा शनि की कक्षाओं के व्यासार्ध पृथ्वी से रवि की दूरी के सापेक्ष .३६९४, .७२७८, .१.५१३९, .५.१४२९ तथा ९.२३०८ आते हैं। आधुनिक सूक्ष्म मान .३८७१, .७२३३, १.५२३७, ५.२०२८ तथा ९.५२८८ हैं। ग्रहकक्षा और क्रांतिवृत्त के संपात को पात कहते हैं। ग्रह के भ्रमणमार्ग को विमंडल कहते हैं। क्रांतिवृत्त तथा विमंडल के बीच के कोण को परमविक्षेप कहते हैं। इनके मान भूकेंद्रिक ज्ञात किए गए हैं। तमोग्रह राहु केतु सदा चंद्रमा के पातों पर कल्पित किए जाते हैं। पात की गति विलोम होती है।

ग्रहणाधिकारों में सूर्य तथा चंद्र के ग्रहणों का गणित है। चंद्रमा का ग्रहण भूछाया में प्रविष्ट होने से तथा सूर्यग्रहण चंद्रमा द्वारा सूर्य के ढके जाने से माना गया है। सूर्यग्रहण में लंबन के कारण भूकेंद्रीय चंद्र तथा हमें दिखाई देनेवोल चंद्र में बहुत अंतर आ जाता है। अत: इसके लिये लंबन का ज्ञान किया जाता है।

चंद्रश्रृंगोन्नति में चंद्रमा की कलाओं को ज्ञात किया जाता है। ग्रहच्छायाधिकार में ग्रहों के उदयास्त काल तथा इष्टकाल में वेध की विधि और पाताधिकार में सूर्य और चंद्रमा के क्रांतिसाम्य का विचार किया जाता है। भिन्न अयन तथा एक गोलार्ध में होने पर, सायन रिवचंद्र के योग १८०° के समय क्रांतिसाम्य होने पर, व्यतिपात तथा एक अयन भिन्न गोलार्ध में होने पर वही योग ३६०° के तुल्य हो तो क्रांतिसाम्य में वैधृति होती है। ये दोनों शुभ कार्यों के लिये वर्जित हैं। ग्रहयुति में ग्रहों के अति सान्निध्य की स्थितियों का (युद्ध समागम का) गणित है। भग्रहयुति में नक्षत्रों के नियामक दिए गए हैं।

भारतीय ज्योतिष प्रणाली से बनाए तिथिपत्र को पंचांग कहते हैं। पंचांग के पाँच अंग हैं : तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण। पंचांग में इनके अतिरिक्त दैनिक, दैनिक लगनस्पष्ट, ग्रहचार, ग्रहों के सूर्यसान्निध्य से उदय और अस्त और चंद्रोदयास्त दिए रहते हैं। इनके अतिरिक्त इनमें विविध मुहूर्त तथा धार्मिक पर्व दिए रहते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ