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११:१३, ८ दिसम्बर २०११ का अवतरण
घोड़ा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 123 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | सिंपसन, जी. जी. |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
स्रोत | सिंपसन, जी. जी. : 'हॉसेंज़', ऑक्सफोर्ड युनि. प्रेस, न्यूयॉर्क (१९५१); कौल्बर्ट, ई. एच. : इवोल्यूशन ऑव वर्टिब्रेट्स, जॉन विले ऐंड सन्स, न्यूयॉर्क (१९६६); लीड़डेक्कर, आर. : दी हौर्स ऐंड इट्म रिलेविव्ज़, जी. एलेन एंड कं. लंदन (१९१२); ्व्राजेश बहादुर : जंतुजगत्, हिंदुस्तानी ऐकैडेमी, उत्तर प्रदेश, प्रयाग (१९३०); जगपति चतुर्वेदी : खुरवाले जानवर, किताब महल, इलाहाबाद (१९५५); नकुल; अश्वशास्त्रंम् (संस्कृत अंग्रेजी अनुवाद सहित)। (१९५२)। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राम शंकर टंडन |
घोड़ा मनुष्य से संबंधित संसार सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी न किसी रूप में सेवा की है। घोड़ा ईक्यूडी (Equidae) कुटुंब का सदस्य है। इस कुटुंब में घोड़े के अतिरिक्त वर्तमान यग का गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड-खर एंव खच्चर भी हैं। आदिनूतन युग (Eosin period) के ईयोहिप्पस (Eohippus) नामक घोड़े के प्रथम पूर्वज से लेकर आज तक के सारे पूर्वज और सदस्य इसी कुटुंब में सम्मिलित हैं। इसका वैज्ञानिक नाम ईक्वस (Equus) लैटिन शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ घोड़ा है, परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरी छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस (Equus caballus) है। इसके पालतू और जंगली संबंधी इसी नाम से जाने जाते हैं। जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापित करने का बाँझ संतान नहीं उत्पन्न होती। कहा जाता है, आज के युग के सारे जंगली घोड़े उन्हीं पालतू घोड़ों के पूर्वज हैं जो अपने सभ्य जीवन के बाद जंगल को चले गए और आज जंगली माने जाते हैं। यद्यपि कुछ लोग मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्किस्तान में मिलनेवाले ईक्वस प्रज्वेलस्की (Equus przwalski) नामक घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते हैं, तथापि वस्तुत: यह इसी पालतू घोड़े के पूर्वजों में से है। दक्षिणी अमरीका के जंगलों में आज भी घाड़े बृहत् झुंडों में पाए जाते हैं। एक झुंड में एक नर और कई मादाएँ रहती हैं। सबसे अधिक १,००० तक घोड़े एक साथ एक जंगल में पाए गए हैं। परंतु ये सब घोड़े ईक्वस कैबेलस के ही जंगली पूर्वज हैं और एक घोड़े को नेता मानकर उसकी आज्ञा में अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करते हैं। एक गुट के घोड़े दूसरे गुट के जीवन और शांति को भंग नहीं करते। संकटकाल में नर चारों तरफ से मादाओं को घेर खड़े हो जाते हैं और आक्रमणकारी का सामना करते हैं। एशिया में काफी संख्या में इनके ठिगने कद के जंगली संबंधी ५० से लेकर कई सौ तक के झुंडों में मिलते हैं। मनुष्य अनी आवश्यकता के अनुसार उन्हें पालतू बनाता रहता है।
संसार के वास्तविक जंगली घोड़े ईक्वस प्रज़्वलेस्की का नाम रूसी यात्री, कर्नल एन. एम. प्रज़्वेलस्की, के नाम पर रखा गया है, क्योंकि इन्हें एक जंगली घोड़ा एक अधिकारी ने जैसान (Zaisan) में भेंट किया था। यह वर्तमान घोड़े और घोड़खर के बीच का जानवर था। इसकी चारों टाँगों पर घोड़े के समान 'चेस्टनट' (chestnut) थे, परंतु घोड़खर के समान केवल इसकी पँूछ के निचले भाग पर लंबे बाल थे। शरीर का रंग बादामी (अरुण) था और पीठ पर पीलापन। पिछले हिस्से पर और हल्का रंग था, जो उदर पर बिल्कुल सफेद हो गया था। शरीर पर कोई काली पट्टी नहीं थी। गर्दन पर छोटे और सीधे बाल थे, किंतु कानों के बीच और माथे पर न थे। खोपड़ी और खुर घोड़े के समान थे। कोबडो (Kobdo) जिले में २० वर्ष बाद बहुत से इसी प्रकार के बच्चे मंगोलिया से मिले थे। उसके बाद भी इस प्रकार के जंगली घोड़े कई बार मिल चुके हैं। कहा जाता है कि हिमयुग के अंत तक अमरीका से सारे घोड़े समाप्त होकर प्राय: लुप्त हो गए। यही नहीं, इस काल में रहनेवाले अन्य अनेक बड़े बड़े जानवर भी किसी अज्ञात कारण से लुप्त हो गए। यूरेशिया में भी हिमयुग में जंगली घोड़े पर्याप्त संख्या में थे, परंतु आज एशिया के स्टेप्स (steppes) में प्रज़्वेलस्की घोड़े के अतिरिक्त कोई वास्तविक जंगली घोड़ा नहीं मिलता। टट्टू नाम के ठिगने घोड़े, जो आज भारत और एशिया के अन्य भागों में मिलते हैं, सब पालतू घोड़े के पूर्वज है।
पालतू बनाने का इतिहास
घोड़े को पालतू बनाने का वास्तविक इतिहास अज्ञात है। कुछ लोगों का मत है कि ७,००० वर्ष पूर्व दक्षिणी रूस के पास आर्यों ने प्रथम बार घोड़े को पाला। बहुत से विज्ञानवेत्ताओं और लेखकों ने इसके आर्य इतिहास को बिल्कुल गुप्त रखा और इसके पालतू होने का स्थान दक्षिणी पूर्वी एशिया में कहा, परंतु वास्तविकता यह है कि अनंत काल पूर्व हमारे आर्य पूर्वजों ने ही घोड़े को पालतू बनाया, जो फिर एशिया से यूरोप, मिस्र और शनै: शनै: अमरीका आदि देशों में फैला। संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक 'शालिहोत्र' है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि 'शालिहोत्र' द्वारा अश्वचिकित्सा पर लिखत प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान (Veterinary Science) को 'शालिहोत्रशास्त्र' नाम दिया गया। महाभारत युद्ध के समय राजा नल और पांडवों में नकुल अश्वविद्या के प्रकांड पंडित थे और उन्होंने भी शालिहोत्र शास्त्र पर पुस्तकें लिखी थीं। शालिहोत्र का वर्णन आज संसार की अश्वचिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल में देशी अश्वचिकित्सक 'शालिहोत्री' कहा जाता है।
शालिहोत्र में चार दर्जन प्रकार के घोड़े बताए गए हैं। इस पुस्तक में घोड़ों का वर्गीकरण बालों के आवर्तों के अनुसार किया गया है। इसमें लंबे मुँह और बाल, भारी नाक, माथा और खुर, लाल जीभ और होठ तथा छोटे कान और पूँछवाले घोड़ों को उत्तम माना गया है। मुँह की लंबाई २ अंगुल, कान ६ अँगुल तथा पूँछ २ हाथ लिखी गई है। घोड़े का प्रथम गुण गति का होना बताया है। उच्च वंश, रंग और शुभ आवर्तोंवाले अश्व में भी यदि गति नहीं है, तो वह बेकार है। शरीर के अंगों के अनुसार भी घोड़ों के नाम, त््रयंड (तीन वृषण वाला), त्रिकर्णिन (तीन कानवाला), द्विखुरिन (दोखुरवाला), हीनदंत (बिना दाँतवाला), हीनांड (बिना वृषणवाला), चक्रवर्तिन (कंधे पर एक या तीन अलकवाला), चक्रवाक (सफेद पैर और आँखोंवाला) दिए गए हैं। गति के अनुसार तुषार, तेजस, धूमकेतु, एवं ताड़ज नाम के घोड़े बताए हैं। उक्त पुस्तक में घोड़े के शरीर में १२,००० शिराएँ बताई गई हैं। बीमारियाँ तथा उनकी चिकित्सा आदि, अनेक विषयों का उल्लेख पुस्तक में किया गया है, जो इनके ज्ञान और रुचि को प्रकट करता है। इसमें घोड़े की औसत आयु ३२ वर्ष बताई गई है।
घोड़े की उत्पत्ति और विकास का इतिहास
यद्यपि घोड़े की उत्पत्ति का काफी प्रमाण प्राप्त हो चुका है और उसके विकास के पूर्ण रूप से क्रमबद्ध अवशेष अमरीका और अन्य देशों में प्राप्त हो चुके हैं, फिर भी बहुत सी गुत्थियाँ अभी तक नहीं सुलझ पाई हैं। इन जीवाश्म अवशेषों से यह ज्ञात होता है कि ७,२५,००,००० वर्ष पूर्व की उत्पत्ति पृथ्वीतल पर नहीं हुई थी। कहा जाता है, घोड़े के और मनुष्य के प्रथम पूर्वजों का जन्म एक ही काल में हुआ, अर्थात् दोनों की उत्पत्ति एक साथ हुई। ५,५०,००,००० वर्ष पूर्व ईयोसीन या आदिनूतन युग के आरंभ में ईयोहिप्पस एवं हाइरैकोथीरियम (Hyracoatherium) नामक प्रथम घोड़े की उत्पत्ति हुई। यह पूर्वज लोमड़ी के समान छोटा था, जिसकी खोपड़ी अल्प विकसित थी, पैर पतले और लंबे, अगले पैरों में चार अँगुलियाँ, पिछले में तीन, दाँत ४४ और नीचे उपरिदंतवाले थे, जो इसके जंगली जीवन और कोमल पत्तों आदि के भोजन के अनुकूल थे। इस पूर्वज के फौसिल (जीवाश्म) उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा एशिया में प्राप्त हुए हैं। तब से क्रमश: घोड़े का विकास होता रहा है।
आदिनूतन युग के मध्य के औरोहिप्पस (Orohippus) और अंत के एपिहिप्पस (Epihippus) नामक पूर्वजों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन सब पूर्वजों के दाँतों में प्रगति होती रही और वे शाकाहारी जीवन के लिये अनुकूल हो रहे थे। एपिहिप्पस के कंकाल अभी तक नहीं मिल पाए हैं। अत: हमारे निष्कर्ष में अभी न्यूनता रह गई है। फिर २,००,००,००० वर्ष के बाद औलिगोसीन (Oligocene) या आदिनूतन युग में तीन अँगुलियोंवाले मेसोहिप्पस (Mesohippus) घोड़े की उत्पत्ति हुई। इसकी चौथी अँगुली नष्ट हो चुकी थी। यह आकार में आदिनूतन युग के घोड़ों से अधिक बड़ा तो नहीं था, परंतु इसके शरीर के अनेक अंगों में प्रगति हो गई थी। इसके सिर में घोड़े के समान मुँह, आँखे थोड़ी पीछे को, एवं मस्तिष्क थोड़ा बड़ा था। इसकी गर्दन छोटी, पीठ लंबी तथा टाँगे पतली लंबी और तीन अँगुलियोंवाली, थीं। चौथी अँगुली की एक छोटी सी गाँठ रह गई थी। दाँतों में भी प्रगति हो चुकी थी। इसी काल में माइयोहिप्पस नाम के घोड़े की भी उत्पत्ति हुई। यह मेसोहिप्पस से प्राय: बिल्कुल मिलता था। इसमें पाँचवीं अँगुली की चपती (splint) मेसोहिप्पस की चपती से काफी छोटी थी और इसके कपोलदंत भी अधिक जटिल हो गए थे। माइयोहिप्पस के कारण घोड़े के विकास की कहानी में थोड़ी जटिलता हुई है। इसी युग के ऐंकीथेरियम (Anchitherium) नामक घोड़े के अवशेष भी प्राप्त हुई हैं, जिसके दाँतों में माइयोहिप्पस के समान जटिलता नहीं थी। संभवत: यह माइयोहिप्पस पूर्वज से जन्मा और यूरोप, एशिया तथा अमरीका में माइयोसीन (Miocene), या मध्य नूतन, काल तक जीवित रहा। मेसोहिप्पस के साथ मेगाहिप्पस (Megahippus) और हाइपोहिप्पस (Hypohippus) नामक घोड़े भी आदिनूतन युग में पाए गए। इसके १,००,००,००० वर्ष बाद, अर्थात् आज से २,५०,००,००० वर्ष पूर्व, माइयोसीन (Miocene) या मध्यनूतन काल के मध्य और अंतिम भाग में मर्सीहिप्पस (Mercyhippus) नामक पूर्वजों ने जन्म लिया। ये पूर्वज शनै: शनै: वर्तमान युग के घोड़े के निकट आ रहे थे। इनके दाँत ऊँचे उपरिदंत जैसे होते गए, ताकि वे अपने मैदानी जीवन और वानस्पतिक भोजन का उपभोग कर सकें।
इनके कपोलदंत भी आज के घोड़े के समान हो गए थे और दाँतों में सीमेंट (cement) की सतह भी उत्पन्न हो गई, जो इससे पहले युगों के पूर्वजों में नहीं थी। इन पूर्वजों में शरीर की लंबाई बढ़ गई थी। सिर में मुँह, आंखें और मस्तिष्क आज के घोड़े जैसे ही हो गए थे। टाँगों की हड्डियाँ भी परिवर्तित हो गई थीं। बहि:प्रकोष्ठिका (radius) से अंत: प्रकोष्ठिका (ulna) जुड़ गई थी और बहिर्जधिका (Fibula) एक पतली पट्टी के समान रह गई थी। परंतु अभी तक टांगों में तीन अँगुलियाँ बाकी थीं, जिनमें बीच की अँगुली, जिसपर शरीर का भार रहता था, मोटी, बड़ी, और घोड़े के समान खुरवाली थी। मर्सीहिप्पस साधारणत: आज के टट्टू के समान प्रतीत होता था। अतिनूतन या प्लायोसीन (Pliocene) युग में आज से १,००,००,००० वर्ष पूर्व मर्सीहिप्पस ने अनेक नई जातियों को जन्म दिया, जिनमें से अधिकतर जातियाँ युग के अंत तक लुप्त हो गई। नीयोहिप्पेरियन (Neohipparion), हिप्पेरियन (Hipparion), नैनिहिप्पस (Nannihippus), कैलिहिप्पस (Calihippus) और प्लायोहिप्पस (Phiohippus) इस युग के प्रांरभ से प्राय: अंत तक विद्यमान थे। ये सब घोड़े उत्तरी अमरीका में मिले। केवल हिप्पेरियन अमरीका, यूरोप और एशिया सब जगह प्रकट हुआ। प्लायोहिप्पस आज के घोड़े ईक्वस का निकटतम पूर्वज था। यह इस युग का वह घोड़ा था जिसमें दोनों पार्श्व अँगुलियां पूर्णतया नष्ट हो गई थीं और शरीर के अंग प्राय: ईक्वस के समान हो गए थे। आज से १०,००,००० वर्ष पूर्व प्लायस्टोसीन (pleistocene), अर्थात् प्रातिनूतन युग, में आज का घोड़ा जन्मा। आस्ट्रेलिया के अतिरिक्त आज का घोड़ा संसार के सब देशों में इस युग में मिला। इस विकासक्रम में इयोहिप्पससे लेकर वर्तमान् घोड़े ईक्वस तक इनकी आकारवृद्धि, टाँगों का लंबा होना, बाँई दाईं अँगुलियों का क्रमश: कम होना और बीच क अँगुली का बराबर बढ़ते रहना मुख्य है। इसके साथ साथ इनक पीठ बराबर मजबूत और दृढ़ हाती गई और कृंतक (incisor) दाँत बराबर चौड़े होते गए। खोपड़ी गहरी और आँखों के आगे का हिस्सा लंबा हो गया। मस्तिष्क के आकार और जटिलता में वृद्धि होती गई। इस प्रकार एक छोटे से प्राणी से आज के विशालकाय और दृढ़ घोड़े का विकास हुआ। प्लायोसीन, या अतिनूतन युग, के निखातक नर्मदा की घाटी में मध्य भारत में और उत्तर में सिवालिक की चट्टानों में मिले हैं। इनको ईक्वस नामाद्रीकस एवं ई. सिवालेन्सिस नाम दिए गए। ये कंधे तक ५ फुट ऊँचे होते थे। आँखों के स्थान से आगे खोपड़ी में गड्ढा था। ये आज के घोड़े और मर्सीहिप्पस की बीच की स्थिति प्रकट करते हैं। प्रोफेसर वूल का मत है कि अरबी घोड़े की उत्पत्ति सिवालिक घोड़े से नर्मदा घोड़े द्वारा हुई, क्योंकि मर्सीहिप्पस के युग में ही भारत की सिवालिक पहाड़ियों में हिप्पेरियन के अवशेष प्राप्त हुए और इन्हें हिप्पोथीरियम ऐंटिलोपियम (Hippotherim antelopium) नाम दिया गया। भारत में इसपर अधिक खोज नहीं हुई है। ये दीर्घकाय, भारी घोड़े यूरोपीय, प्राचीन युद्धाश्वों के वंशज हैं। इनके पैर घने बालों से ढंके होते हैं।
१०,००,००० वर्ष पूर्व से अबतक मनुष्य ने अपनी बुद्धि के अनुसार घोड़े को पालतू बनाया और अन्यान्य अच्छी अच्छी नस्लों को पैदा किया। बोझा खींचने, घुड़दौड़ में दौड़ाने, सवारी करने और रथ आदि में चलनेवाले अलग अलग प्रकार के घोड़ों की उत्पत्ति हुई है। विदेशों में घोड़ों के नाम उनके जीवनक्रम के अनुसार दिए गए हैं। भारत में घोड़ों को उनके रंग तथा वंश के अनुसार मुश्की, अरबी आदि नाम दिए जाते हैं। कुछ लोगों का यह भ्रम है कि घोड़ा मनुष्य के बराबर बुद्धिमान होता है। वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार, इसकी बुद्धि सबसे मूर्ख मनुष्य से भी कम होती है। घोड़े में दृष्टि की तीव्रता होती है, क्योंकि संसार के स्थलीय जीवों में किसी प्राणी की आँख शरीर के अनुुपात में घोड़े के समान बड़ी नहीं होती। दृष्टि की तीव्रता होते हुए भी इसकी आँख में गर्तिका (fovea) नहीं होती। अत: इसके लिये हमारे समान दृष्टि को केंद्रित करना संभव नहीं है। बिना सिर घुमाए काफी क्षेत्र में देखना इसकी आँखों से संभव है। इसकी आँखें और नाक दोनों मनुष्य से अधिक सक्रिय होती हैं। कुछ घोड़ों में ईयोहिप्पस के समान ४४ दाँत होते हैं, परंतु साधारणत: नरों में ४० और मादाओं में ३६ दांत होते हैं। नरों में प्रत्येक हनु में कृंतक दाँतों के तनिक पीछे एक श्वदंत होता है, घोड़ियों में नहीं। घोड़े के अंगों की एक विशेष रचना चेस्टनट (chestnut) नाम का मस्सा होता है यह अगली टाँगों में घुटने के पिछले ऊपरी भाग पर एक लंबी चर्मकीली (कठोर त्वचा) के रूप में होता है, परंतु पिछली टांगों में यह एक छोटा धब्बा सा गुल्फ (टार्सस, Tarsus) के नीचे होता है पद की पिछली सतह पर, बालों के बीच छिपा हुआ एक अर्गट (Ergot) होता है। गधे में यह अर्गट घोड़े से बड़ा होता है। यह एक लुप्तावशेष (vestige) है, जो घोड़े के पूर्वजों में पैर को पृथ्वी पर टिकाने में सहायक होता था। ढाई साल में घोड़े के बच्चों के दूध के दाँत गिर जाते हैं। चार से छ: वर्ष की उम्र तक पूरे दाँत निकल अते हैं। पालतू घोड़े प्राय: बीस वर्ष की उम्र में बूढ़े हो जाते हैं। अधिक से अधिक ४५ वर्ष की उम्र तक के घोड़े देखे गए हैं। संस्कृत की भारतीय पुस्तकों में घोड़े के अनेक सुंदर चित्र, उसकी आकृति, सुंदरता, शुभ-अशुभ-लक्षण और वंश का वर्णन करते हुए दिए गए हैं। इन पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद भी शनै: शनै: प्रकाशित हो रहे हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ