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०८:०६, ११ अगस्त २०११ का अवतरण

संक्रमण मर्त्यलोक के सभी प्राणियों के जीवनक्रम में जन्म के पश्चात्‌ मृत्य एक अपरिहार्य घटना है। जीवनकाल में प्राणी अनेक बाह्य एवं आभ्यंतर, विषम परिस्थितियों एवं शरीर विनाशक तत्वों का ग्रास होता रहता है। इनका सामना करने की शरीर की शक्ति के क्षीण या दुर्बल होने पर, प्राय: वह मृत्यु का शिकार हो जाता है। इन कारणों में रोग एक प्रधान कारण है। रोगों में भी कुछ रोग तो ऐसे हैं जो पीड़ित प्राणियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध होने पर दूसरे व्यक्तियों में संक्रांत नहीं होते। इसके विपरीत दूसरे रोग पीड़ित व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अथवा अप्रयत्क्ष संपर्क, या उनके रोगोत्पादक, विशिष्ट तत्वों से दूषित पदार्थों के सेवन एवं निकट संपर्क, से एक से दूसरे व्यक्तियों पर संक्रमित हो जाते हैं। इसी प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में ऐसे रोगों को छुतहा रोग कहते हैं। रोगग्रस्त या रोगवाहक पशु या मनुष्य संक्रमण के कारक होते हैं। संक्रामक रोग तथा इन रोग के संक्रमित होने की क्रिया समाज की दृष्टि से विशेष महत्व की है, क्योंकि विशिष्ट उपचार एवं अनागत बाघाप्रतिषेघ की सुविधाओं के अभाव में इनसे महामारी फैल सकती है, जो कभी कभी फैलकर सार्वदेशिक रूप भी धारण कर सकती है।

जीवाणुओं की खोज

१९वीं शताब्दी में पाश्चात्य वैज्ञानिक पैस्टर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित किया कि जीवाणुओं द्वारा विशिष्ट व्याधियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। कॉक नामक वैज्ञानिक ने बैक्टीरिया अध्ययन की कतिपय प्रयोगशालीय पद्वतियों पर भी प्रकाश डाला। तत्पश्चात्‌ इस प्रकाश से प्रेरणा लेकर अनेक वैज्ञानिक संहारक रोगों के जनक इन जीवाणुओं की खोज में लग गए और १९वीं शताब्दी के अंतिम चरण में वैज्ञानिकों ने रोगजनक जीवाणुओं की खोज यथा पूयोत्पादक, राजयक्ष्मा, डिप्थीरिया, टाइफाइड, विसूचिका, धनुस्तंभ, प्लेग एवं प्रवाहिका आदि संक्रामक रोगों के विशिष्ट जीवाणुओं का पता लगाकर इनके गुणधर्म, संक्रमण एवं नैदानिक पद्धतियों पर भी प्रकाश डाला।

जीवाणुओं की उपस्थिति

रोगजनक, संक्रमण में किसी न किसी जीवाणु का प्राय: हाथ होता है। ये जीवाणु वायु, जल, भूमि तथा प्राणियों के शरीर में कहीं कम, कहीं अधिक तथा समय विशेष एवं विशेष जलवायु क्षेत्र में न्यूनाधिक संख्या में पाए जाते हैं। प्राय: एक विशिष्ट प्रकार की विकृति तथा लक्षण उत्पन्न करनेवाले संक्रमण में एक विशिष्ट प्रकार का जीवाणु उत्तरदायी होता है, किंतु कभी कभी एक से अधिक प्रकार के जीवाणुओं का संक्रमण एक साथ भी होता है, जिसे मिश्र संक्रमण कहते हैं, और कभी एक ही प्रकार की विकृति अनेक भिन्न प्रकार के जीवाणुसंक्रमण से भी होती है।

संक्रमण का कारण

संक्रामी व्यक्ति से अन्य स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में संक्रमण भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। फिरंग, सूजाक तथा विसर्प एवं मसूरिका आदि रोगों का संक्रमण मृत, संक्रांत या वाहक मनुष्य या पशु के प्रत्यक्ष संसर्ग से होता है। कुछ संक्रमण, जैसे जलसत्रास आदि, कुत्ते, स्यार तथा चूहे के काटने से होते हैं। श्वसनतंत्र के कुछ रोगों का संक्रमण खाँसने, छींकने या जोर से बोलते समय छोटे छोटे बिंदुओं के बाहर निकलने से समीप में बैठनेवालों को हो जाता है। इसे बिंदूक संक्रमण होना कहते हैं। संक्रांत, व्याधित या वाहक व्यक्ति के दूषित वस्त्र, पात्र, खाद्य, पेय, हाथ, यंत्र, शस्त्र, वायु एवं मुख संबंधी वस्तुओं के सेवन से अप्रत्यक्ष संक्रमण होता है। पाचन तंत्र के संक्रामक रोगों को फैलाने में घरेलू मक्खी एक प्रमुख यांत्रिक वाहक है। कुछ रोग जैसे मलेरिया, कालाजार, श्लीपद, प्लेग आदि का संक्रमण कीटाणुओं के वाहक मच्छर, पिस्सू, भुनगे, जूँ और किलनी के दंश से होता है।

संक्रमण की रोकथाम

अब इस दिशा में अत्यधिक सफलता प्राप्त की गई है तथा इस प्रकार के अधिकांश रोगों के जीवाणुओं का निश्चित रूप से पता लगा लिया गया है। परिणामत: इनके संक्रमण की रोकथाम की तथा चिकित्सा में भी पर्याप्त सफलता मिलने लगी है। ये रोगजनक जीवाणु अत्यंत सूक्ष्म होते हैं और केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखे जा सकते हैं। इसलिए इनको जीवाणु कहते हैं। सूक्ष्माकार के ही कारण इनकी लंबाई माइक्रोन (माइक्रोन = १ मिली. का श्वाँ भाग) में बतलाई जाती है। ये जीव वर्ग के एक कोशिकावाले अतिसूक्ष्म जीव होते हैं। संक्रमण के कुछ समय बाद रोगों के लक्षण उत्पन्न होते हैं। इस काल को उद्भवन काल कहते हैं। विभिन्न रोग-जनक-जीवाणुओं के उद्भवन काल भिन्न भिन्न होते हैं। सप्रति अधिकांश रोगजनक संक्रमणों के विशिष्ट निदान एवं चिकित्सा उपलब्ध हैं और आगे इस दिशा में तीव्रतापूर्वक कार्य हो रहा है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ