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कथावत्थु स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स की लिखी हुई एक स्थविरवादी रचना है जिसका समय लगभग तीसरी शताब्दी ई.पू. माना जाता है। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के १०० वर्ष बाद वज्जिपुत्तक भिक्षुओं ने संघ के अनुशासन का उल्लंघन किया और 'महासंघिक' नामक संप्रदाय की स्थापना की जिसमें पाँच और शाखाओं का उद्भव बाद में हुआ। पहले जिस बौद्ध धर्म को प्रथम संगीति में एक निश्चित रूप प्राप्त हुआ था, उसमें अशोक के समय तक आते आते ११ संप्रदाय और उदित हो गए थे।  
कथावत्थु स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स की लिखी हुई एक स्थविरवादी रचना है जिसका समय लगभग तीसरी शताब्दी ई.पू. माना जाता है। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 1०० वर्ष बाद वज्जिपुत्तक भिक्षुओं ने संघ के अनुशासन का उल्लंघन किया और 'महासंघिक' नामक संप्रदाय की स्थापना की जिसमें पाँच और शाखाओं का उद्भव बाद में हुआ। पहले जिस बौद्ध धर्म को प्रथम संगीति में एक निश्चित रूप प्राप्त हुआ था, उसमें अशोक के समय तक आते आते 11 संप्रदाय और उदित हो गए थे।  


इस प्रकार सब मिलाकर, ऐसा माना जाता है कि ई.पू. तीसरी शताब्दी तक बौद्ध धर्म में कुल १८ संप्रदाय प्रचार में आ चुके थे। इतने वैभिन्य और विवाद को देखकर मूल बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए अशोक ने बुद्ध के महापरिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद २५३ अथवा २४६ ई.पू. में पाटलिपुत्र में बौद्ध भिक्षुओं की एक सभा बुलाई, जिसके सभापति स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने १८ निकायों में से केवल थेरवाद या स्थविरवाद को मूल बौद्ध धर्म मानकर शेष १७ निकायों के दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण किया और उसे कथावत्थुप्पकरण नामक ग्रंथ में प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ उसी समय से अभिधम्मपिटक का अंग माना जाने लगा।  
इस प्रकार सब मिलाकर, ऐसा माना जाता है कि ई.पू. तीसरी शताब्दी तक बौद्ध धर्म में कुल 1८ संप्रदाय प्रचार में आ चुके थे। इतने वैभिन्य और विवाद को देखकर मूल बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए अशोक ने बुद्ध के महापरिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद २५३ अथवा २४६ ई.पू. में पाटलिपुत्र में बौद्ध भिक्षुओं की एक सभा बुलाई, जिसके सभापति स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने 1८ निकायों में से केवल थेरवाद या स्थविरवाद को मूल बौद्ध धर्म मानकर शेष 1७ निकायों के दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण किया और उसे कथावत्थुप्पकरण नामक ग्रंथ में प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ उसी समय से अभिधम्मपिटक का अंग माना जाने लगा।  


इस ग्रंथ में विरोधी संप्रदायों के २१६ सिद्धांतों का खंडन है जिसे २३ अध्यायों में विभक्त किया गया है, किंतु उक्त विरोधी संप्रदायों का नामोल्लेख इसमें नहीं मिलता। उन संप्रदायों के नामों का पता पाँचवीं शताब्दी में आचार्य बुद्धघोष द्वारा लिखित 'कथावत्थु अट्ठकथा' (कथावस्तु अर्थकथा) नामक ग्रंथ से लगता है जिसमें निराकृत २१६ सिद्धांतों को १७ संप्रदायों से पृथक-पृथक रूप में संबद्ध भी किया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि कथावत्थु में कुछ अशोकपरवर्ती संप्रदायों के भी दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण मिलता है। यह तो पूर्णतया स्पष्ट है कथावत्थु में संप्रदायों के नामों का उल्लेख नहीं है। अत: यह अनुमान स्वाभाविक है कि मोग्गलिपुत्त तिस्स के समय में जो सिद्धांत जीवित थे, वे ही बाद में संप्रदाय रूप में विकसित हो गए।  
इस ग्रंथ में विरोधी संप्रदायों के २1६ सिद्धांतों का खंडन है जिसे २३ अध्यायों में विभक्त किया गया है, किंतु उक्त विरोधी संप्रदायों का नामोल्लेख इसमें नहीं मिलता। उन संप्रदायों के नामों का पता पाँचवीं शताब्दी में आचार्य बुद्धघोष द्वारा लिखित 'कथावत्थु अट्ठकथा' (कथावस्तु अर्थकथा) नामक ग्रंथ से लगता है जिसमें निराकृत २1६ सिद्धांतों को 1७ संप्रदायों से पृथक-पृथक रूप में संबद्ध भी किया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि कथावत्थु में कुछ अशोकपरवर्ती संप्रदायों के भी दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण मिलता है। यह तो पूर्णतया स्पष्ट है कथावत्थु में संप्रदायों के नामों का उल्लेख नहीं है। अत: यह अनुमान स्वाभाविक है कि मोग्गलिपुत्त तिस्स के समय में जो सिद्धांत जीवित थे, वे ही बाद में संप्रदाय रूप में विकसित हो गए।  


इस कथावत्थु का अनुवर्तन बाद में संप्रदाय रूप में विकसित हो गए। इस कथावत्थु का अनुवर्तन बाद के दीपवंस और महावंस जैसे ग्रंथों में मिलता है। प्रथम ईस्वी शताब्दी में रचित मिलिंद पञ्हों नाम के प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ के उपदेष्टा भदंत नागसेन के ऊपर भी कथावत्थु का पर्याप्त प्रभाव माना जाता है। अनेक लोगों का मत है कि मिलिंद पञ्हों के रचयिता भदंत नागसेन ही थे। इस प्रकार कथावत्थु का महत्व स्थविरवादी सिद्धांत, तद्विरोधी मतों के सैद्धांतिक परिचय, उनके उदय के इतिहास आदि की दृष्टि से सर्वथा स्वीकार्य है।
इस कथावत्थु का अनुवर्तन बाद में संप्रदाय रूप में विकसित हो गए। इस कथावत्थु का अनुवर्तन बाद के दीपवंस और महावंस जैसे ग्रंथों में मिलता है। प्रथम ईस्वी शताब्दी में रचित मिलिंद पञ्हों नाम के प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ के उपदेष्टा भदंत नागसेन के ऊपर भी कथावत्थु का पर्याप्त प्रभाव माना जाता है। अनेक लोगों का मत है कि मिलिंद पञ्हों के रचयिता भदंत नागसेन ही थे। इस प्रकार कथावत्थु का महत्व स्थविरवादी सिद्धांत, तद्विरोधी मतों के सैद्धांतिक परिचय, उनके उदय के इतिहास आदि की दृष्टि से सर्वथा स्वीकार्य है।

०८:४५, १२ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
कथावत्थु
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 382
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक नागेंद्रनाथ उपाध्याय

कथावत्थु स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स की लिखी हुई एक स्थविरवादी रचना है जिसका समय लगभग तीसरी शताब्दी ई.पू. माना जाता है। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 1०० वर्ष बाद वज्जिपुत्तक भिक्षुओं ने संघ के अनुशासन का उल्लंघन किया और 'महासंघिक' नामक संप्रदाय की स्थापना की जिसमें पाँच और शाखाओं का उद्भव बाद में हुआ। पहले जिस बौद्ध धर्म को प्रथम संगीति में एक निश्चित रूप प्राप्त हुआ था, उसमें अशोक के समय तक आते आते 11 संप्रदाय और उदित हो गए थे।

इस प्रकार सब मिलाकर, ऐसा माना जाता है कि ई.पू. तीसरी शताब्दी तक बौद्ध धर्म में कुल 1८ संप्रदाय प्रचार में आ चुके थे। इतने वैभिन्य और विवाद को देखकर मूल बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए अशोक ने बुद्ध के महापरिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद २५३ अथवा २४६ ई.पू. में पाटलिपुत्र में बौद्ध भिक्षुओं की एक सभा बुलाई, जिसके सभापति स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने 1८ निकायों में से केवल थेरवाद या स्थविरवाद को मूल बौद्ध धर्म मानकर शेष 1७ निकायों के दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण किया और उसे कथावत्थुप्पकरण नामक ग्रंथ में प्रस्तुत किया। यह ग्रंथ उसी समय से अभिधम्मपिटक का अंग माना जाने लगा।

इस ग्रंथ में विरोधी संप्रदायों के २1६ सिद्धांतों का खंडन है जिसे २३ अध्यायों में विभक्त किया गया है, किंतु उक्त विरोधी संप्रदायों का नामोल्लेख इसमें नहीं मिलता। उन संप्रदायों के नामों का पता पाँचवीं शताब्दी में आचार्य बुद्धघोष द्वारा लिखित 'कथावत्थु अट्ठकथा' (कथावस्तु अर्थकथा) नामक ग्रंथ से लगता है जिसमें निराकृत २1६ सिद्धांतों को 1७ संप्रदायों से पृथक-पृथक रूप में संबद्ध भी किया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि कथावत्थु में कुछ अशोकपरवर्ती संप्रदायों के भी दार्शनिक सिद्धांतों का निराकरण मिलता है। यह तो पूर्णतया स्पष्ट है कथावत्थु में संप्रदायों के नामों का उल्लेख नहीं है। अत: यह अनुमान स्वाभाविक है कि मोग्गलिपुत्त तिस्स के समय में जो सिद्धांत जीवित थे, वे ही बाद में संप्रदाय रूप में विकसित हो गए।

इस कथावत्थु का अनुवर्तन बाद में संप्रदाय रूप में विकसित हो गए। इस कथावत्थु का अनुवर्तन बाद के दीपवंस और महावंस जैसे ग्रंथों में मिलता है। प्रथम ईस्वी शताब्दी में रचित मिलिंद पञ्हों नाम के प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ के उपदेष्टा भदंत नागसेन के ऊपर भी कथावत्थु का पर्याप्त प्रभाव माना जाता है। अनेक लोगों का मत है कि मिलिंद पञ्हों के रचयिता भदंत नागसेन ही थे। इस प्रकार कथावत्थु का महत्व स्थविरवादी सिद्धांत, तद्विरोधी मतों के सैद्धांतिक परिचय, उनके उदय के इतिहास आदि की दृष्टि से सर्वथा स्वीकार्य है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ