"जूपितर": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "१" to "1")
पंक्ति २८: पंक्ति २८:
वास्तव में जूपितर न केवल जातियों के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है, अपितु उसे एक मात्र महान्‌ नैतिक शक्ति रूप में भी मान्यता प्राप्त है, जिसका संबंध शपथ, संगठनों और संधियों से है। रोम के अनेक प्राचीन पवित्र विवाह-संस्कार जूपितर के पुजारियों की ही उपस्थिति में संपन्न हुए।
वास्तव में जूपितर न केवल जातियों के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है, अपितु उसे एक मात्र महान्‌ नैतिक शक्ति रूप में भी मान्यता प्राप्त है, जिसका संबंध शपथ, संगठनों और संधियों से है। रोम के अनेक प्राचीन पवित्र विवाह-संस्कार जूपितर के पुजारियों की ही उपस्थिति में संपन्न हुए।


लेकिन समय के अनुसार ''जूपितर'' संबंधी धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन तथा विकास होता रहा। रोमन राजतंत्र के अंतिम दिनों में जूपितर के नए मंदिरों का निर्माण हुआ और एक नवीन संस्कार के द्वारा उसे सर्वशक्तिमान्‌ 'जूपितर आप्तिमस मैक्सिमस' की संज्ञा दी गई। यह संस्कार समारोह प्रति वर्ष १३ सितंबर को मनाया जाता था जिसमें कांसुल, सीनेट-सदस्य, न्यायाधीश और पुरोहित सम्मिलित होते और अतीत में की गई शपथों को पूरा होने की प्रार्थना करते थे। उस अवसर पर इस महान्‌ देवता को पशुबलि दी जाती और अतीत में साम्राज्य की रक्षा के लिये उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती थी तथा भविष्य के लिये नई शपथ ग्रहण की जाती थी। बाद में यह दिन खेल कूद के समारोह का दिन बन गया, जो शत्रुओं पर विजय की खुशी में मनाया जाता था। शत्रुओं पर विजय के पश्चात्‌ खुशी के जलूस निकाले जाते और जूपितर के मंदिर पर जाकर उसके प्रति कृतज्ञता स्वरूप उसकी पूजा की जाती थी।
लेकिन समय के अनुसार ''जूपितर'' संबंधी धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन तथा विकास होता रहा। रोमन राजतंत्र के अंतिम दिनों में जूपितर के नए मंदिरों का निर्माण हुआ और एक नवीन संस्कार के द्वारा उसे सर्वशक्तिमान्‌ 'जूपितर आप्तिमस मैक्सिमस' की संज्ञा दी गई। यह संस्कार समारोह प्रति वर्ष 1३ सितंबर को मनाया जाता था जिसमें कांसुल, सीनेट-सदस्य, न्यायाधीश और पुरोहित सम्मिलित होते और अतीत में की गई शपथों को पूरा होने की प्रार्थना करते थे। उस अवसर पर इस महान्‌ देवता को पशुबलि दी जाती और अतीत में साम्राज्य की रक्षा के लिये उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती थी तथा भविष्य के लिये नई शपथ ग्रहण की जाती थी। बाद में यह दिन खेल कूद के समारोह का दिन बन गया, जो शत्रुओं पर विजय की खुशी में मनाया जाता था। शत्रुओं पर विजय के पश्चात्‌ खुशी के जलूस निकाले जाते और जूपितर के मंदिर पर जाकर उसके प्रति कृतज्ञता स्वरूप उसकी पूजा की जाती थी।


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

११:४५, १२ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
जूपितर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 31
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सत्यदेव विद्यालंकार (स्वर्गीय) पत्रकार

जूपितर रोमन धर्मशास्त्र में आकाश की आत्मा को जूपितर की संज्ञा दी गई है। वर्षा और विद्युत के देवता के रूप में इसकी पूजा की जाती है। वह रोमन जातियों का रक्षक माना गया है।

संपूर्ण इटली में पहाड़ी की चोटियों पर जूपितर की पूजा होती है। रोम के दक्षिण में अल्बान की पहाड़ी पर जूपितर की पूजा का सर्वाधिक प्राचीन केंद्र है। यह तीस लातीनी नगरों के उस संघ का केंद्रीय पूजास्थल था जिसका रोम भी सामान्य सदस्य था। स्वयं रोम में कैपीलोलिन की पहाड़ी पर जूपितर के प्राचीनतम मंदिर के अवशेष मिले हैं।

वास्तव में जूपितर न केवल जातियों के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है, अपितु उसे एक मात्र महान्‌ नैतिक शक्ति रूप में भी मान्यता प्राप्त है, जिसका संबंध शपथ, संगठनों और संधियों से है। रोम के अनेक प्राचीन पवित्र विवाह-संस्कार जूपितर के पुजारियों की ही उपस्थिति में संपन्न हुए।

लेकिन समय के अनुसार जूपितर संबंधी धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन तथा विकास होता रहा। रोमन राजतंत्र के अंतिम दिनों में जूपितर के नए मंदिरों का निर्माण हुआ और एक नवीन संस्कार के द्वारा उसे सर्वशक्तिमान्‌ 'जूपितर आप्तिमस मैक्सिमस' की संज्ञा दी गई। यह संस्कार समारोह प्रति वर्ष 1३ सितंबर को मनाया जाता था जिसमें कांसुल, सीनेट-सदस्य, न्यायाधीश और पुरोहित सम्मिलित होते और अतीत में की गई शपथों को पूरा होने की प्रार्थना करते थे। उस अवसर पर इस महान्‌ देवता को पशुबलि दी जाती और अतीत में साम्राज्य की रक्षा के लिये उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाती थी तथा भविष्य के लिये नई शपथ ग्रहण की जाती थी। बाद में यह दिन खेल कूद के समारोह का दिन बन गया, जो शत्रुओं पर विजय की खुशी में मनाया जाता था। शत्रुओं पर विजय के पश्चात्‌ खुशी के जलूस निकाले जाते और जूपितर के मंदिर पर जाकर उसके प्रति कृतज्ञता स्वरूप उसकी पूजा की जाती थी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ