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लेख सूचना
विवाह
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 11
पृष्ठ संख्या 107
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी, फूलदेव सहाय वर्मा, मुकंदीलाल श्रीवास्तव
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1969 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कैलाश चंद्र श्रीवास्तव

विवाह मानव समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या संस्था है। यह समाज का निर्माण करनेवाली सबसे छोटी इकाई-परिवार-का मूल है। इसे मानव जाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान साधन माना जाता है। इस शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री समाज द्वारा स्वीकार की गई परिवार की स्थापना करनेवाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि[१] के शब्दों में विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जानेवाला, अनेक विधियों से संपन्न होनेवाला तथा कन्या को पत्नी बनानेवाला संस्कार है। रघुनंदन के मतानुसार उस विधि को विवाह कहते हैं जिससे कोई स्त्री (किसी की) पत्नी बनती है। वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया है, जो इस संबंध को करनेवाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है।

विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जानेवाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी पति ओर पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में पति का शब्दार्थ है पालन करनेवाला तथा भार्या का अर्थ है भरणपोषण की जाने योग्य नारी।। पति के संतान और बच्चों पर कुछ अधिकार माने जाते हैं। विवाह प्राय: समाज में नवजात प्राणियों की स्थिति का निर्धारण करता है। संपत्ति का उत्तराधिकार अधिकांश समाजों में वैध विवाहों से उत्पन्न संतान को ही दिया जाता है।

विवाह का उद्गम

मानव समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में 19वीं शताब्दी में वेखोफन (1815-80 ई.), मोर्गन (1818-81 ई.) तथा मैकलीनान (1827-81) ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था कि मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नरनारियों को यथेच्छ कामसुख का अधिकार था। महाभारत (1।122।3-31) में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा है कि पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। कहा जाता है, भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर लार्ड एवबरी, फिसोन, हाविट, टेलर, स्पेंसर, जिलनकोव लेवस्की, लिय्यर्ट और शुर्त्स आदि पश्चिमी विद्वानों ने विवाह की आदिम दशा कामचार (प्रामिसकुइटी) की अवस्था मानी। क्रोपाटकिन व्लाख और ्व्राफाल्ट ने प्रतिपादित किया कि प्रारंभिक कामचार की दशा के बाद बहुभार्यता (पोलीजिनी) या अनेक पत्नियाँ रखने की प्रथा विकसित हुई और इसके बाद अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने (मोनोगेमी) का नियम प्रचलित हुआ।

किंतु चार्ल्स डार्विन ने प्राणिशास्त्र के आधार पर विवाह के आदिम रूप की इस कल्पना का प्रबल खंडन किया, वैस्टरमार्क, लौंग ग्रास तथा क्राले प्रभृति समाजशास्त्रियों ने इस मत की पुष्टि की। प्रसिद्ध समाजशास्त्री रिर्क्ख ने लिखा है कि हमारे पास इस कल्पना का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि भूतकाल में कभी कामचार की सामान्य दशा प्रचलित थी। विवाह की संस्था मानव समाज में जीवशास्त्रीय आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इसका मूल कारण अपनी जाति को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता है। यदि पुरुष यौन संबंध के बाद पृथक्‌ हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह केवल मानव समाज में ही नहीं, अपितु मनुष्य के पूर्वज समझे जानेवाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं। अत: कामचार से विवाह के प्रादुर्भाव का मत अप्रामाणिक और अमान्य है।

विवाह के विभिन्न पक्ष

वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पतिपत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और स्वार्थत्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नरनारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतानप्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उन्हें अवलंब देगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है, मनुष्य तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता (श. ब्रा., 5।2।1।10)। पुरुष प्रकृति के बिना और शिव शक्ति के बिना अधूरा है।

विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। वैदिक युग में यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य था, किंतु यज्ञ पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, अत: विवाह सबके लिए धार्मिक दृष्टि से आवश्यक था। पत्नी शब्द का अर्थ ही यज्ञ में साथ बैठनेवाली स्त्री है। श्री राम का अश्वमेध यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सका था, अत: उन्हें सीता की प्रतिमा स्थापित करनी पड़ी। याज्ञवल्क्य (1।89) ने एक पत्नी के मरने पर यज्ञकार्य चलाने के लिए फौरन दूसरी पत्नी के लाने का आदेश दिया है। पितरों की आत्माओं का उद्धार पुत्रों के पिंडदान और तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास ने भी विवाह को हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य बताया है। रोमनों का भी यह विश्वास था कि परलोक के मृत पूर्वजों का सुखी रहना इस बात पर अवलंबित था कि उनका मृतक संस्कार यथाविधि हो तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए उन्हें अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहें। यहूदियों की धर्मसंहिता के अनुसार विवाह से बचनेवाला व्यक्ति उनके धर्मग्रंथ के आदेशों का उल्लंघन करने के कारण हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। विवाह का धार्मिक महत्व होने से ही अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है।

मई, 1955 से लागू होनेवाले हिंदू विवाह कानून से पहले हिंदू समाज में धार्मिक संस्कार से संपन्न होनेवाला विवाह अविच्छेद्य था। रोमन कैथोलिक चर्च इसे अब तक ऐसा धार्मिक बंधन समझता है। किंतु अब औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न होनेवाले परिवर्तनों से तथा धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है।

विवाह का आर्थिक पक्ष भी अब निर्बल होता जा रहा है। प्रसूति के समय में तथा उसके बाद कुछ काल तक कार्यक्षम न होने के कारण पत्नी को पति के अवलंब की आवश्यकता होती है, इस कारण दोनों में श्रमविभाजन होता है, पत्नी बच्चों के लालन पालन और घर के काम को सँभालती है और पति पत्नी तथा संतान के भरणपोषण का दायित्व लेता है। 18वीं शताब्दी के अंत में होनेवाली औद्योगिक क्रांति से पहले तक विवाह द्वारा उत्पन्न होनेवाली परिवार आर्थिक उत्पादन का केंद्र था; कृषक अथवा कारीगर अपने घर में रहता हुआ अन्न वस्त्रादि का उत्पादन करता था; परिवार के सब सदस्य उसे इस कार्य में सहायता देते थे। घरेलू आवश्यकता की लगभग सभी वस्तुओं का उत्पादन घर में ही परिवार के सब सदस्यों द्वारा हो जाने के कारण परिवार आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी इकाई था। किंतु कारखानों में वस्त्र आदि का निर्माण होने से उत्पादन का केंद्र घर नहीं, मिलें बन गईं। मिलों द्वारा प्रभूत मात्रा में तैयार किए गए माल ने घर में इनके उत्पादन को अनावश्यक बना दिया। विवाह एवं परिवार की संस्था से उसके कुछ आर्थिक कार्य छिन गए, स्त्रियाँ कारखानों आदि में काम करने के कारण आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो गईं, इससे उनकी स्थिति में कुछ अंतर आने लगा है। फिर भी, पत्नी और बच्चों के पालनपोषण के आर्थिक व्यय को वहन करने का उत्तरदायित्व अभी तक प्रधान रूप से पति का माना जाता है। पति द्वारा उपार्जित धन पर उसकी पत्नी और वैध पुत्रों का ही अधिकार स्वीकार किया जाता है।

विवाह का एक कानूनी या विधिक पक्ष भी है। परिणय सहवास मात्र नहीं है। किसी भी मानव समाज में नरनारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार नहीं दिया जाता, जब तक इसके लिए समाज की स्वीकृति न हो। यह स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड को अथवा कानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होनेवाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। अनेक आधुनिक समाजों में विवाह को वरवधू की सहमति से होनेवाला विशुद्ध कानूनी अनुबंध समझा जाता है। किंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि यह अन्य सभी प्रकार के अनुबंधों या संविदाओं से भिन्न है क्योंकि उनमें अनुबंध करनेवाले व्यक्ति इसकी शर्तें तय करते हैं, किंतु विवाह के कर्तव्य और दायित्व वरवधू की इच्छा पर अवलंबित नहीं हैं; वे समाज की रूढ़ि, परंपरा और कानून द्वारा निश्चित होते हैं।

विवाह का समाजिक और नैतिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होनेवाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती है, बालक को किसी समाज के आदर्शों के अनुरूप ढालने का तथा उसके चरित्रनिर्माण का प्रधान साधन परिवार है। यद्यपि आजकल शिशुशालाएँ, बालोद्यान, स्कूल और राज्य बच्चों के पालन, शिक्षण और सामाजीकरण के कुछ कार्य अपने ऊपर ले रहे हैं, तथापि यह निर्विवाद है कि बालक का समुचित विकास परिवार में ही संभव है। प्रत्येक समाज विवाह द्वारा मनुष्य की उद्दाम एवं उच्छृंखल यौन भावनाओं पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रित करता है और समाज में नैतिकता की रक्षा करता है।

किसी भी समाज में मनुष्य विवाह करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं है। उसे इस विषय में कई प्रकार के नियमों का पालन करना पड़ता है। ये नियम प्रधान रूप से निम्नलिखित बातों के संबंध में होते हैं-(1) वरवधू के चुनाव के नियम, (2) पत्नी प्राप्त करने के नियम, (3) विवाह संस्कार की विधियाँ, (4) विवाह के विभिन्न रूप (5) विवाह की अवधि के नियम।

वरवधू चुनने के नियम (अतर्विवाह और बहिर्विवाह)

लगभग सभी समाजों में वधू चुनने के संबंध में दो प्रकार के नियम होते हैं। पहले प्रकार के नियम अंतर्विवाह विषयक (एंडोगेमस) होते हैं। इनके अनुसार एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियों को उसी वर्ग के अंदर रहनेवाले व्यक्तियों में से ही वधू को चुनना पड़ता है। वे उस वर्ग से बाहर के किसी व्यक्ति के साथ विवाह नहीं कर सकते। दूसरे प्रकार के (बहिर्विवाही) नियमों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को एक विशिष्ट समूह से बाहर के व्यक्तियों के साथ ही, विवाह करना पड़ता है। ये दोनों नियम ऊपर से परस्परविरोधी होते हुए भी वास्तव में ऐसे नहीं हैं, क्योंकि इनका संबंध विभिन्न प्रकार के समूहों से होता है। इन्हें वृत्तों के उदाहरण से भली भाँति समझा जा सकता है। प्रत्येक समाज में एक विशाल बाहरी वृत्त होता है। इस वृत्त से बाहर किसी व्यक्ति के साथ वैवाहिक संबंध वर्जित होता है, किंतु इस बड़े वृत्त के भीतर अनेक छोटे छोटे समूहों के अनेक वृत्त होते हैं, प्रत्येक व्यक्ति को इस छोटे वृत्त के समूह के बाहर, किंतु बड़े वृत्त के भीतर ही विद्यमान किसी अन्य समूह के व्यक्ति के साथ विवाह करना पड़ता है। हिंदू समाज में इस प्रकार का विशाल वृत्त जाति का है और छोटे वृत्त विभिन्न गोत्रों के हैं। सामान्य रूप से इस शताब्दी के आरंभ तक प्रत्येक हिंदू को अपनी जाति के भीतर, किंतु गोत्र से बाहर विवाह करना पड़ता था। वह अपनी जाति से बाहर और गोत्र के भीतर विवाह नहीं कर सकता था।

वधू के चुनाव के लिए निश्चित किए जानेवाले अंतर्विवाही समूह नस्ल (रेस) जनजाति (ट्राइब), जाति, वर्ण आदि कई प्रकार के होते हैं। अधिकांश वन्य एवं सभ्य जातियों में अपनी नस्ल या प्रजाति से बाहर विवाह करना वर्जित होता है। कैलिफोर्निया के रेड इंडियन गौरवपूर्ण यूरोपियन नस्ल के पुरुष के साथ विवाह करनेवाली रेड इंडियन स्त्री का वध कर देते थे। सं. रा. अमरीका के अनेक दक्षिणी राज्यों में नीग्रो के साथ श्वेतांग यूरोपियनों के विवाह को निषिद्ध ठहरानेवाले कानून बने हुए हैं। रोमन लोगों के बर्बर जातियों के साथ वैवाहिक निषेध के नियम का प्रधान कारण अपनी नस्ल की उत्कृष्टता और श्रेष्ठता का अहंकार तथा अपने से भिन्न जाति के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना है। इसी प्रकार अपनी जनजाति से बाहर भी विवाह निषिद्ध होता है। बिहार के ओरांवों के बारे में यह कहा जाता है कि यदि इनमें कोई अपनी जनजाति से बाहर विवाह कर ले तो उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है और उसे जब तक जाति में वापस नहीं लिया जाता जब तक वह अपनी भिन्न जातीय पत्नी का परित्याग न कर दे। प्राय: सभी धर्म भिन्न धर्मवालों से विवाह का निषेध करते हैं। यहूदी धर्म में ऐसे विवाह वर्जित थे। मध्ययुग में ईसाइयों और यहूदियों के विवाह कानून द्वारा निषिद्ध थे। कुरानशरीफ में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि इस्लाम न स्वीकार करनेवाले, नाना देवीदेवताओं की पूजा करने वाले व्यक्तियों के साथ विवाह वर्जित हैं। प्राचीन हिंदू समाज में अनुलोम (उच्च वर्ण के पुरुष के साथ उच्च वर्ण की स्त्री का विवाह) विवाहों का प्रचलन होते हुए भी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि अपने वर्णां में ही विवाह करते थे। बाद में इन वर्णों में विभिन्न जातियों का विकास हुआ और अपनी जातियों में ही विवाह के नियम का कठोरतापूर्वक पालन किया जाने लगा।

पश्चिमी देशों में जातिभेद की कठोर व्यवस्था न होने पर भी सामाजिक वर्ग-कुलीन वर्ग, नगरवासी (बुर्जुआ) व्यापारी वर्ग, किसान और मजदूर प्राय: अपने वर्गों में ही विवाह करे हैं। राजा राजवंशीय वर्ग में ही विवाह कर सकते हैं। राजवंश से भिन्न सामान्य वर्ग की स्त्रियों से यदि विवाह हो तो उस स्त्री को तथा उसकी संतान को राजकीय पद और उत्तराधिकार नहीं प्राप्त होते। ब्रिटिश सम्राट् एडवर्ड अष्टम ने अपनी राजगद्दी इसीलिए छोड़ी थी कि उसने राजकीय वर्ग से बाहर की एक साधारण स्त्री सिंपसन से विवाह किया था और यह ब्रिटिश परंपरा के अनुसार रानी नहीं बन सकती थी।

बहिर्विवाह

इसका तात्पर्य किसी जाति के एक छोटे समूह से तथा निकट संबंधियों के वर्ग से बाहर विवाह का नियम है। समाज में पहले को असगोत्रता का तथा दूसरे को असपिंडता का नियम कहते हैं। असगोत्रता का अर्थ है कि वधू वर के गोत्र से भिन्न गोत्र की होनी चाहिए। असपिंडता का आशय समान पिंड या देह का अथवा घनिष्ठ रक्त का संबंध न होना है। हिंदू समाज में प्रचलित सपिंडता के सामान्य नियम के अनुसार माता की पाँच तथा पिता की सात पीढ़ियों में होनेवाले व्यक्तियों को संपिड माना जाता है, इनके साथ वैवाहिक संबंध वर्जित है। प्राचीन रोम में छठी पीढ़ी के भीतर आनेवाले संबंधियों के साथ विवाह निषिद्ध था। 1215 ई. की लैटरन की ईसाई धर्मपरिषद् ने इनकी संख्या घटाकर चार पीढ़ी कर दी। अनेक अन्य जातियाँ पत्नी के मरने पर उसकी बहिन के साथ विवाह को प्राथमिकता देती हैं किंतु कैथोलिक चर्च मृत पत्नी की बहिन के साथ विवाह वर्जित ठहराता है। इंग्लिश चर्च में यह स्थिति 1907 तक बनी रही। कुछ जातियों में स्थानीय बहिर्विवाह का नियम प्रचलित है। इसका यह अर्थ है कि एक गाँव या खेड़े में रहनेवाले नरनारी का विवाह अर्जित है। छोटा नागपुर के ओरावों में एक ही ग्राम के निवासी युवक युवती का विवाह निषिद्ध माना जाता है, क्योंकि सामान्य रूप स वह माना जाता है कि ऐसा विवाह वर अथवा वधू के लिए अथवा दोनों के लिए अमंगल लानेवाला होता है।

असपिंडता तथा असगोत्रता के नियमों के प्रादुर्भाव के कारणों के संबंध में समाजशास्त्रियों तथा नृवंशशास्त्रियों में बड़ा मतभेद है। एक ही गाँव में रहनेवाले अथवा एक गोत्र को माननेवाले समान आयु के व्यक्ति एक दूसरे को भाई बहिन तथा नजदीकी रिश्तेदार मानते हैं और इनमें प्राय: सर्वत्र विवाह वर्जित होता है। किंतु यहाँ यही प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह निषेध समाज में क्यों प्रचलित हुआ? सर हेनरी मेन, मोर्गन आदि विद्वानों ने यह माना है कि आदिम मनुष्यों ने निकट विवाहों के दुष्परिणामों को शीघ्र ही अनुभव कर लिया था तथा जीवनसंघर्ष में दीर्घजीवी होने की दृष्टि से उन्होंने निकट संबंधियों के घेरे से बाहर विवाह करने का नियम बना लिया। किंतु अन्य विद्वान्‌ इस मत को ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि आदिम मनुष्यों में अंतर्विवाह के दुष्परिणामों जैसी जटिल जीवशास्त्रीय प्रक्रिया को समझने की वुद्धि स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता। वैस्टरमार्क और हैवलाक एलिस ने इसका कारण नजदीकी रिश्तेदारों के बचपन से सदा साथ रहने के कारण उनमें यौन आकर्षण उत्पन्न न होने को माना है। अन्य विद्वानों ने इस व्याख्या को सही नहीं माना। ब्रैस्टेड ने यह बताया है कि प्राचीन मिस्र में समाज के सभी भागों में भाई बहिन के विवाह प्रचलित थे। बहिर्विवाह (एक्सोगेमी) शब्द को अंग्रेजी में सबसे पहले प्रचलित करनेवाले विद्वान्‌ मैकलीनान ने यह कल्पना की थी कि आरंभिक योद्धा जातियों में बालिकावध की दारुण प्रथा प्रचलित होने के कारण विवाह योग्य स्त्रियों की संख्या कम हो गई और दूसरी जनजातियों की स्त्रियों को अपहरण करके लाने की पद्धति से बहिर्विवाह के नियम का श्रीगणेश हुआ। किंतु इस कल्पना में बालिकावध एवं अपहरण द्वारा विवाह का अत्यधिक अतिरंजित और अवास्तविक चित्रण है। बहिर्विवाह का नियम प्रचलित होने के कुछ अन्य कारण ये बताए जाते हैं-दूसरी जातियों की स्त्रियों को पकड़ लाने में गर्व और गौरव की भावना का अनुभव करना, गणविवाह (एक समूह में सब पुरुषों का सब स्त्रियों का पति होना) की काल्पनिक दशा के कारण दूसरी जातियों से स्त्रियाँ ग्रहण करना। अभी तक कोई भी कल्पना इस विषय में सर्वसम्मत सिद्धांत नहीं बन सकी।

पत्नी प्राप्ति की विधियाँ

अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के नियमों का पालन करते हुए वधू को प्राप्त करने की विधियों के संबंध में मानव समाज में बड़ा वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। भार्याप्राप्ति की विभिन्न विधियों को अपहरण, क्रय और सहमति के तीन बड़े वर्गों में बाँटा जा सकता है। अपहरण की विधि का तात्पर्य पत्नी की तथा उसके संबंधियों की इच्छा के बिना उसपर बलपूर्वक अधिकार करना है। इसे भारतीय धर्मशास्त्र में राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम दिया गया है। यह आज तक कई वन्य जातियों में पाई जाती है। उड़ीसा की भुइयाँ जनजाति के बारे में कहा जाता है कि यदि किसी युवक का युवती से प्रेम हो, किंतु युवती अथवा उसके मातापिता उस विवाह के लिए सहमत न हों तो युवक अपनी मित्रमंडली की सहायता से अपनी प्रेमिका का अपहरण कर लेता है और इससे प्राय: भीषण लड़ाइयाँ होती हैं। संथाल, मुंडा, भूमिज, गोंड, भील और नागा आदि आरण्यक जातियों में यह प्रथा पाई जाती है। अन्य देशों और जातियों में भी इसका प्रचलन मिलता है।

पत्नीप्राप्ति का दूसरा साधन क्रय विवाह अर्थात्‌ पैसा देकर लड़की को खरीदना है। हिंदू शास्त्रों की परिभाषा के अनुसार इसे आसुर विवाह कहा जाता है। भारत की संथाल, हो, ओराँव, खड़िया, गोंड, भील आदि जातियों में कन्या के मातापिता को कन्याशुल्क (ब्राइड प्राइस) देकर पत्नी प्राप्त करने की परिपाटी है। हिंदू समाज के उच्च वर्ग में लड़कों का महत्व होने से उनके मातापिता कन्या के मातापिता से दहेज रूप में धन प्राप्त करते हैं, किंतु निम्न वर्ग में वन्य जातियों में कन्या का आर्थिक महत्व होने के कारण कन्या का पिता वर से अथवा वर के मातापिता से कन्या देने के बदले में धनराशि प्राप्त करता है। यदि वर धनराशि देने में असमर्थ होता है तो वह श्वशुर के यहाँ सेवा करके कन्याशुल्क प्रदान करता है। गोंडों और बैगा लोगों में श्वशुर के यहाँ इस प्रकार तीन से पाँच वर्ष तक नौकरी तथा कड़ी मेहनत करने के बाद पत्नी प्राप्त होती है। इसे सेवा विवाह भी कहा जाता है।

पत्नी-प्राप्ति का तीसरा साधन वरवधू के मातापिता की सहमति से व्यवस्थित किया जानेवाला विवाह है। इस शताब्दी के आरंभ तक हिंदू समाज में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित होने के कारण सभी विवाह इसी प्रकार के होते थे, अब भी यद्यपि शिक्षा के प्रसार तथा आर्थिक स्वावलंबन के कारण वरवधू की सहमति से होनेवाले प्रणय अथवा गंधर्व विवाहों की संख्या बढ़ रही है, तथापि अधिकतर विवाह अब भी मातापिता की सहमति से होते हैं।

पत्नी-प्राप्ति के उपर्युक्त साधन आधुनिक समाजशास्त्रीय विद्वानों के वर्गीकरण के आधार पर हैं। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने इन्हीं को ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच नामक आठ प्रकार के विवाहों का नाम दिया था। इनमें से पहले चार प्रकार के विवाह प्रशस्त तथा धर्मानुकूल समझे जाते थे। ये सब विवाह मातापिता की सहमति से किए जानेवाले उपर्युक्त विवाह के अंतर्गत हैं। धार्मिक विधि के साथ संपन्न होनेवाले सभी विवाहों में कन्या को वस्त्राभूषण से अलंकृत करके उसका दान किया जाता था। किंतु पिछले चार विवाहों में कन्या का दान नहीं होता, वह मूल्य से या प्रेम से या बलपूर्वक ली जाती है। आसुर विवाह उपर्युक्त क्रयविवाह का दूसरा रूप है। इसमें वर कन्या के पिता को कुछ धनराशि देकर उसे प्राप्त करता है। इसका प्रसिद्ध उदाहरण पांडु के साथ माद्री का विवाह है। गांधर्व विवाह वर और वधू के पारस्परिक प्रेम और सहमति के कारण होता है। इसका प्रसिद्धतम प्राचीन उदाहरण दुष्यंत और शकुंतला का विवाह था। राक्षस विवाह में वर कन्यापक्ष के संबंधियों को मारकर या घायल करके रोती चीखती कन्या को अपने घर ले आता था। यह प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी। इसका प्रसिद्ध उदाहरण श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी का तथा अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण है। पैशाच विवाह में सोई हुई, शराब आदि पीने से उन्मत्त स्त्री से एकांत में संबंध स्थापित करके विवाह किया जाता था। मनु ने (3।34) इसकी निंदा करते हुए इसे सबसे अधिक पापपूर्ण और अधम विवाह कहा है।

विवाह के संख्यात्मक रूप

बहुर्भायता, बहुभर्तृता, एक विवाह, यही-पति या पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के तीन रूप माने जाते हैं। जब एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है तो इसे बहुभार्यता या बहुपत्नीत्व (पोलीजिनी) कहते हैं। एक स्त्री के साथ एक से अधिक पुरुषों के विवाह को बहुभर्तृता या बहुपतित्व कहा जाता है। एक पुरुष के एक स्त्री के साथ विवाह को एक विवाह (मोनोगेमी) या एकपत्न्व्रीात कहा जाता है। मानव जाति के विभिन्न समाजों में इनमें से पहला और तीसरा रूप अधिक प्रचलित है। दूसरे रूप बहुभर्तृता का प्रचलन बहुत कम है। समाज में स्त्रीपुरुषों की संख्या लगभग समान होने के कारण इस अवस्था में कुछ पुरुषों द्वारा अधिक स्त्रियों को पत्नी बना लेने पर कुछ पुरुष विवाह से वंचित रह जाते हैं, अत: कुछ वन्य समाजों में एक मनुष्य द्वारा पत्नी बनाई जानेवाली स्त्रियों की संख्या पर प्रतिबंध लगाया जाता है और प्रथा द्वारा इसे निश्चित कर दिया जाता है। भूतपूर्व ब्रिटिश पूर्वी अफ्रीका की वासानिया जाति में एक पुरुष को तीन से अधिक स्त्रियों के साथ, लैंडू जाति में तथा इस्लाम में चार से अधिक स्त्रियों के साथ, उत्तरी नाइजीरिया की कुगंमा जाति में छह से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह की अनुमति नहीं दी जाती। राजाओं तथा सरदारों के लिए यह संख्या बहुत अधिक होती है। पश्चिमी अफ्रीका में गोल्डकोस्ट बस्ती के अशांति नामक राज्य के राजा के लिए पत्नियों की निश्चित सख्या, 3,333 थी। राजा लोग इन निश्चित संख्याओं का अतिक्रमण और उल्लंघन किस प्रकार करते हैं यह सऊदी अरब राज्य के संस्थापक इब्न सऊद के उदाहरण से स्पष्ट है। इस्लाम में चार से अधिक स्त्रियों से विवाह वर्जित है, अत: इब्न सऊद को जब किसी नवीन स्त्री से विवाह करना होता था तो वह अपनी पहली चार पत्नियों में से किसी एक को तलाक दे देता था। इस प्रकार उसने चार पत्नियों की मर्यादा का पालन करते हुए भी सौ से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह किया। कुछ वन्य जातियों में सरदारों द्वारा अपने समाज की इतनी अधिक स्त्रियों पर अधिकार कर लिया जाता है कि कुछ निर्धन युवा पुरुष विवाह के लिए वधू नहीं प्राप्त कर सकते। आस्ट्रेलिया की कुछ जातियों में ऐसे पुरुष को कई स्त्रियाँ रखनेवाले व्यक्ति को चुनौती देकर उससे पत्नी प्राप्त करने का अधिकार दिया जाता है। बहुभार्यता का एक विशेष रूप श्याली विवाह (सोरोरल sororal पोलिजिनी) अर्थात्‌ एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी की बहिनों से विवाह करना है। इसमें बड़ा लाभ संभवत: सौतिया डाह का कम होना तथा बहिनों को प्रेमपूर्वक मिलकर रहना है। यह प्रथा अमरीका के रेड इंडियनों में बहुत मिलती है।

बहुभर्तृता अथवा एक स्त्री से अनेक पुरुषों के विवाह का सुप्रसिद्ध प्राचीन भारतीय उदाहरण द्रौपदी का पाँच पांडवों के साथ विवाह यह परिपाटी अब भी भारत के अनेक प्रदेशों - लद्दाख में, पंजाब के काँगड़ा जिले के स्पीती लाहौल परगनों में, चंबाकु, कुल्लू और मंडी के ऊँचे प्रदेशों में रहनेवाले कानेतों में, देहरादून जिले के जौनसार बाबर में, दक्षिण भारत में मलाबार के नायरो में, नीलगिरि के टोडों, कुरुंबों और कोटों में पाई जाती है। भारत से बाहर यह कुछ दक्षिणी अमरीकन इंडियन जातियों में मिलती है। इसके दो मुख्य प्रकार हैं। पहले प्रकार में एक स्त्री के आपस में सगे या सौतले होते हैं। इसे भ्रातृक बहुभर्तृता कहते हैं। द्रौपदी के पाँचों पति भाई थे। आजकल इस प्रकार की बहुभर्तृता देहरादून जिले में जौनसार बावर के खस लोगों में तथा नीलगिरि के टोडों में पाई जाती है। बड़े भाई के शादी करने पर उसकी पत्नी सब भाइयों की पत्नी समझी जाती है। इसके दूसरे प्रकार में एक स्त्री के अनेक पतियों में भाई का संबंध या अन्य कोई घनिष्ठ संबंध नहीं होता। इसे अभ्रातृक या मातृसत्ताक बहुभर्तृता कहते हैं। मलावार के नायर लोगों में पहले इस प्रकार की बहुभर्तृता का प्रचलन था।

बहुभर्तृता के उत्पादक कारणों के संबंध में समाजशास्त्रियों तथा नृवंशशास्त्रियों में प्रबल मतभेद है। वैस्टरमार्क ने इसका प्रधान कारण पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का संख्या में कम होना बताया है। उदाहरणार्थ नीलगिरि के टोडों में बालिकावध की कुप्रथा के कारण एक स्त्री के पीछे दो पुरुष हो गए, अत: वहाँ बहुभर्तृता का प्रचलन स्वाभाविक रूप से हो गया। किंतु राबर्ट ब्रिफाल्ट ने यह सिद्ध किया कि स्त्रियों की कमी इस प्रथा का एक मात्र कारण नहीं है। तिब्बत, सिक्किम, लद्दाख, लाहौल, आदि बहुभर्तृक प्रथावाले प्रदेशों में स्त्री पुरुषों की संख्या में कोई बड़ा अंतर नहीं है। कनिंघम के मतानुसार लद्दाख में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। अत: सुमनेट, लोर्ड, बेल्यू आदि विद्वानों ने इसका प्रधान कारण निर्धनता को माना है। सुमनेर ने इसे तिब्बत के उदाहरण से पुष्ट करते हुए कहा है कि वहाँ पैदावार इतनी कम होती है कि एक पुरुष के लिए कुटुंब का पालन संभव नहीं होता, अत: कई पुरुष मिलकर पत्नी रखते हैं। इससे बच्चे कम होते हैं, जनसंख्या मर्यादित रहती है और परिवार की भूसंपत्ति विभिन्न भाइयों के बँटवारे से विभक्त नहीं होती।

एक विवाह की प्रथा मानव समाज में सबसे अधिक प्रचलित और सामान्य परिपाटी है। जिन समाजों में बहुभार्यता की प्रथा है, उनमें भी यह प्रथा प्रचलित है क्योंकि बहुभार्यता की प्रथा का पालन प्रत्येक समाज में बहुत थोड़े व्यक्ति ही करते हैं। उदाहरणार्थ ग्रीनलैंड वासियों को बहुभार्यतावादी समाज कहा जाता है, किंतु क्राँज को इस प्रदेश में 20 में से एक पुरुष ही दो स्त्रियों से विवाह करनेवाला मिला याने वहाँ केवल पाँच प्रतिशत पुरुष अनेक स्त्रियों से विवाह के नियम का पालन करनेवाले थे। एकविवाह की व्यवस्था का प्रचलन सबसे अधिक होने का बड़ा कारण यह है कि अधिकांश समाजों में स्त्री पुरुषों की संख्या का अनुपात लगभग समान होता है और एक विवाह की व्यवस्था अधिकतम नरनारियों के लिए जीवनसाथी प्रस्तुत करती है। युद्ध, कन्यावध की दारुण प्रथा तथा काम धंधों की जोखिम स्त्रीपुरुषों की संख्या के संतुलन को कुछ हद तक बिगाड़ देते हैं, किंतु प्राय: यह संतुलन बना रहता है और एकविवाह की व्यवस्था में सहायक होता है, क्योंकि यह अधिकतम व्यक्तियों का विवाह का अवसर प्रदान करता है। सभ्यता की उन्नति एवं प्रगति के साथ कई कारणों से यह प्रथा अधिक प्रचलित होने लगती है : पहला कारण यह होता है कि बड़ा परिवार आर्थिक दृष्टि से बोझ बन जाता है। घरेलू पशुओं, नवीन औजारों तथा मशीनों के आविष्कार के कारण पत्नी की मजदूर के रूप में काम करने की उपयोगिता कम हो जाती है। संतान की प्रबल आकांक्षा में क्षीणता आना तथा सामाजिक गरिमा और प्रतिष्ठा के नए मानदंडों का विकास होना भी इसमें सहायक होता है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना का विकास, स्त्रियों की उच्च शिक्षा और दांपत्य प्रेम के नवीन आदर्श का विकास तथा सौतियाडाह के झगड़ों से छुटकारा भी एकविवाह तो समाज में लोकप्रिय बनाते हैं। पश्चिमी जगत में आजकल एकविवाह का नियम सार्वभौम है। हिंदू समाज में संतानप्राप्ति आदि के उद्देश्य पूर्ण करने के लिए प्राचीन शास्त्रकारों ने पुरुषों को बहुविवाह की अनुमति दी थी किंतु 1955 के हिंदू विवाह कानून ने इस पुरानी व्यवस्था का अंत करते हुए एकविवाह के नियम को आवश्यक बना दिया है।

वैवाहिक विधियाँ

लगभग सभी समाजों में विवाह का संस्कार कुछ विशिष्ट विधियों के साथ संपन्न किया जाता है। यह नरनारी के पति-पत्नी बनने की घोषणा करता है, संबंधियों को संस्कार के समारोह में बुलाकर उन्हें इस नवीन दांपत्य संबंध का साक्षी बताया जाता है, धार्मिक विधियों द्वारा उसे कानूनी मान्यता और सामाजिक सहमति प्रदान की जाती है। वैवाहिक विधियों का प्रधान उद्देश्य नवीन संबंध का विज्ञापन करना, इसे सुखमय बनाना तथा नानाप्रकार के अनिष्टों से इसकी रक्षा करना है। विवाह संस्कार की विधियों में विस्मयावह वैविध्य है। किंतु इन्हें चार बड़े वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। पहले वर्ग में वर वधू की स्थिति में आनेवाले परिवर्तन को सूचित करनेवाली विधियाँ हैं। विवाह में कन्यादान कन्या के पिता से पति के नियंत्रण में जाने की स्थिति को द्योतित करता है। इंग्लैंड, पैलेस्टाइन, जावा, चीन में वधू को नए घर की देहली में प्रवेश के समय उठाकर ले जाना वधूद्वारा घर के परिवर्तन को महत्वपूर्ण बनाना है। स्काटलैंड में वधू के पीछे पुराना जूता यह सूचित करने के लिए फेंका जाता है कि अब पिता का उसपर कोई अधिकार नहीं रहा। दूसरे वर्ग की विधियों का उद्देश्य दुष्प्रभावों को दूर करना है। यूरोप और अफ्रीका में विवाह के समय दुष्टात्माओं को मार भगाने के लिए बाण फेंके जाते हैं और बंदूके छोड़ी जाती हैं। दुष्टात्माओं का निवासस्थान अंधकारपूर्ण स्थान होते हैं और विवाह में अग्नि के प्रयोग से इनका विद्रावण किया जाता है। विवाह के समय वर द्वारा तलवार आदि का धारण, इंग्लैंड में वधू द्वारा दुष्टात्माओं को भगाने में समर्थ समझी जानेवाली घोड़े की नाल ले जाने की विधि का कारण भी यही समझा जाता है। तीसरे वर्ग में उर्वरता की प्रतीक और संतानसमृद्धि की कामना को सूचित करनेवाली विधियाँ आती हैं। भारत, चीन, मलाया में वधू पर चावल, अनाज तथा फल डालने की विधियाँ प्रचलित हैं। जिस प्रकार अन्न का एक दाना बीसियों नए दानें पैदा करता है, उसी प्रकार वधू से प्रचुर संख्या में संतान उत्पन्न करने की आशा रखी जाती है। स्लाव देशों में वधू की गोद में इसी उद्देश्य से लड़का बैठाया जाता है। चौथे वर्ग की विधियाँ वर वधू की एकता और अभिन्नता को सूचित करती हैं। दक्षिणी सेलीबीज में वरवधू के वस्त्रों को सीकर उनपर एक कपड़ा डाल दिया जाता है। भारत और ईरान में प्रचलित ग्रंथिबंधन की पद्धति का भी यही उद्देश्य है।

विवाह की अवधि तथा तलाक

इस विषय में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। वेस्टरमार्क के मतानुसार सभ्यता के निम्न स्तर में रहने वाली, आखेट तथा आरंभिक कृषि से जीवनयापन करनेवाली, श्रीलंका की बेद्दा तथा अंडेमान आदिवासी जातियों में विवाह के बाद पतिपत्नी मृत्यु पर्यत इकट्ठा रहते हैं और इनमें तलाक नहीं होता। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है, उनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध माना जाता है। हिंदू एवं रोमन कैथोलिक इसाई समाज इसके सुंदर उदाहरण है। किंतु विवाहविच्छेद या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों में समानता है। विवाह मुख्य रूप से संतानप्राप्ति एवं दांपत्य संबंध के लिए किया जाता है, किंतु यदि किसी विवाह में ये प्राप्त न हों तो दांपत्य जीवन को नारकीय या विफल बनाने की अपेक्षा विवाहविच्छेद की अनुमति दी जानी चाहिए। इस व्यवस्था का दुरुपयोग न हो, इस दृष्टि से तलाक का अधिकार अनेक प्रतिबंधों के साथ विशेष अवस्था में ही दिया जाता है। तलाक का मुख्य आधार व्यभिचार है क्योंकि यह वैवाहिक जीवन के मूल पर ही कुठाराघात करनेवाला है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी है (देखें 'हिंदू विवाह अधिनियम 1955)।

विवाह का भविष्य

प्लेटो के समय से विचारक विवाह-प्रथा की समाप्ति की तथा राज्य द्वारा बच्चों के पालन की कल्पना कर रहे हैं। वर्तमान समय के औद्योगिक एवं वैज्ञानिक परिवर्तनों से तथा पश्चिमी देशों में तलाकों की बढ़ती हुई भयावह संख्या के आधार पर विवाह की संस्था के लोप की भविष्यवाणी करनेवालों की कमी नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस समय विवाह के परंपरागत स्वरूपों में कई कारणों से बड़े परिवर्तन आ रहे हैं। विवाह को धार्मिक बंधन के स्थान पर कानूनी बंधन तथा पति-पत्नी का निजी मामला मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। औद्योगिक क्रांति और शिक्षा के प्रसार से स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बन रही हैं। पहले उनके सुखमय जीवनयापन का एकमात्र साधन विवाह था, अब ऐसी स्थिति नहीं रही। विवाह और तलाक के नवीन कानून दांपत्य अधिकारों में नरनारी के अधिकारों को समान बना रहे हैं। धर्म के प्रति आस्था में शिथिलता और गर्भनिरोध के साधनों के आविष्कार ने विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को, प्राग्वैवाहिक सतीत्व और पवित्रता को गहरा धक्का पहुंचाया है। किंतु ये सब परिवर्तन होते हुए भी भविष्य में विवाहप्रथा के बने रहने का प्रबल कारण यह है कि इससे कुछ ऐसे प्रयोजन पूरे होते हैं, जो किसी अन्य साधन या संस्था से नहीं हो सकते। पहला प्रयोजन वंशवृद्धि का है। यद्यपि विज्ञान ने कृत्रिम गर्भाधान का आविष्कार किया है किंतु कृत्रिम रूप से शिशुओं का प्रयोगशालाओं में उत्पादन और विकास संभव प्रतीत नहीं होता। दूसरा प्रयोजन संतान का पालन है, राज्य और समाज शिशुशालाओं और बालोद्यानों का कितना ही विकास कर ले, उनमें इनके सर्वांगीण समुचित विकास की वैसी व्यवस्था संभव नहीं, जैसी विवाह एवं परिवार की संस्था में होती है। तीसरा प्रयोजन सच्चे दांपत्य प्रेम और सुखप्राप्ति का है। यह भी विवाह के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से संभव नहीं। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भविष्य में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्था बनी रहेगी, भले ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहें। [२]

हिंदू विवाह अधिनियम 1955

स्मृतिकाल से ही हिंदुओं में विवाहको एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। किंतु विवाह, जो पहले एक पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत, ऐसा नहीं रह गया है। कुछ विधिविचारकों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है। अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं वरन्‌ विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, (अधिनियम के अंतर्गत) वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।

अधिनियम की धारा 10 के अनुसार न्यायिक पृथक्करण निम्न आधारों पर न्यायालय से प्राप्त हो सकता है :

त्याग 2 वर्ष, निर्दयता (शारीरिक एवं मानसिक), कुष्ट रोग (1 वर्ष), रतिजरोग (3 वर्ष), विकृतिमन (2 वर्ष) तथा परपुरुष अथवा पर-स्त्री-गमन (एक बार में भी) अधिनियम की धारा 13 के अनुसार - संसर्ग, धर्मपरिवर्तन, पागलपन (3 वर्ष), कुष्ट रोग (3 वर्ष), रतिज रोग (3 वर्ष), संन्यास, मृत्यु निष्कर्ष (7 वर्ष), पर नैयायिक पृथक्करण की डिक्री पास होने के दो वर्ष बाद तथा दांपत्याधिकार प्रदान करनेवाली डिक्री पास होने के दो साल बाद 'संबंधविच्छेद' प्राप्त हो सकता है।

स्त्रियों को निम्न आधारों पर भी संबंधविच्छेद प्राप्त हो सकता है; यथा-द्विविवाह, बलात्कार, पुंमैथुन तथा पशुमैथुन। धारा 11 एवं 12 के अंतर्गत न्यायालय 'विवाहशून्यता' की घोषणा कर सकता है। विवाह प्रवृत्तिहीन घोषित किया जा सकता है, यदि दूसरा विवाह सपिंड और निषिद्ध गोत्र में किया गया हो (धारा 11)।

नपुंसकता, पागलपन, मानसिक दुर्बलता, छल एवं कपट से अनुमति प्राप्त करने पर या पत्नी के अन्य पुरुष से (जो उसका पति नहीं है) गर्भवती होने पर विवाह विवर्ज्य घोषित हो सकता है। (धारा 12)।

अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में निम्नांकित परिवर्तन किए गए हैं :

(1) अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है, चाहे वह किसी जाति का हो। (2) एकविवाह तय किया गया है। द्विविवाह अमान्य एवं दंडनीय भी है। (3) न्यायिक पृथक्करण, विवाह-संबंध-विच्छेद तथा विवाहशून्यता की डिक्री की घोषणा की व्यवस्था की गई है। (4) प्रवृत्तिहीन तथा विवर्ज्य विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है। परंतु इसके लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है। (5) न्यायालयों पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास करें। (6) बाद के बीच या संबंधविच्छेद पर निर्वाहव्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है। तथा (7) न्यायालयों को इस बात का अधिकार दे दिया गया है कि अवयस्क बच्चों की देख रेख एवं भरण पोषण की व्यवस्था करे।

विधिवेत्ताओं का यह विचार है कि हिंदू विवाह के सिद्धांत एवं प्रथा में परिवर्तन करने की जो आवश्यकता उपस्थित हुई है उसका कारण संभवत: यह है कि हिंदू समाज अब पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से अधिक प्रभावित हुआ है।

अधिनियम में नई विचारधाराओं को ग्रहण करने का प्रयास तो सुंदर किया गया है किंतु उससे अनेक जटिलताएँ उत्पन्न हो गई हैं। इसलिए यह अनुभव किया जा रहा है कि हिंदू समाज उनको अपनाने में झिझक रहा है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (3।20)
  2. सं. ग्रं. - वेस्टरमार्क : हिस्ट्री ऑव ह्यूमन मैरिज, 3रा खंड; हरिदत्त वेदालंकार : हिंदू विवाह का इतिहास।