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१०:०५, ११ जून २०१३ का अवतरण
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अंकोल
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 07 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री विनोद कुमार तिवारी |
अंकोल नामक पौधा अंकोट कुल का एक सदस्य है। वनस्पतिशास्त्र की भाषा में इसे 'एलैजियम सैल्बीफ़ोलियम' या 'एलैजियम लामार्की' भी कहते हैं। वैसे विभिन्न भाषाओं में इसे विभिन्न प्रकार के नामों से पुकारा जाता है, जो निम्नलिखित हैं-
- संस्कृत - अंकोट, दीर्घकील
- हिंदी दक्षिणी - ढेरा, थेल, अंकूल
- बँगला - आँकोड़
- सहारनपुर क्षेत्र - विसमार
- मराठी - आंकुल
- गुजराती - ओबला
- कोल - अंकोल एवं
- संथाली - ढेला
पौधे की आकृति
यह बड़े क्षुप या छोटे वृक्ष होते हैं, जो 3 से 6 मीटर लंबे होते हैं। इसके तने की मोटाई 2.5 फ़ुट होती है तथा यह भूरे रंग की छाल से ढका रहता है। पुराने वृक्षों के तने तीक्ष्णाग्र होने से काँटेदार या र्केटकीभूत होते हैं। इनकी पंक्तियाँ तीन से छह इंच लंबी, अपलक, दीर्घवतया लंबगोल, नुकीली या हल्की नोंक वाली, आधार की तरफ़ पतली या विभिन्न गोलाई लिए हुए होती हैं। इनका ऊपरी तल चिकना एवं निचला तल मुलायम रोमों से युक्त होता है। मुख्य शिरा से पाँच से लेकर आठ की संख्या में छोटी शिराएँ निकलकर पूरे पत्र दल में फैल जाती हैं। ये पत्तियाँ एकांतर क्रम में लगभग आधे इंच लंबे पूर्णवृत द्वारा पौधे की शाखाओं से लगी रहती हैं।
पुष्प तथा फल
पुष्प श्वेत एवं मीठी गंध से युक्त होते हैं। फ़रवरी से अप्रैल तक इस पौधे में फूल लगते हैं। बाह्य दल रोमयुक्त एवं परस्पर एक-दूसरे से मिलकर एक नलिकाकार रचना बनाते हैं, जिसका ऊपरी किनारा बहुत छोटे-छोटे भागों में कटा रहता है। इन्हें बाह्यदलपुंज दंत कहते हैं। इसमें लगने वाला फल बेरी कहलाता है, जो 5/8 इंच लंबा, 3/8 इंच चौड़ा काला अंडाकार तथा बाह्यदलपुंज के बढ़े हुए हिस्से से ढका रहता है। प्रारंभ में फल मुलायम रोमों से ढका रहता है, परंतु रोमों के झड़ जाने के बाद चिकना हो जाता है। गुठली या अंतभित्ति कठोर होती है। बीच का गूदा काली आभा लिए लाल रंग का होता है। बीज लंबोतरा या दीर्घवत् एवं भारी पदार्थों से भरा रहता है। बीज पत्र सिकुड़े होते हैं।
औषधिय गुण
इस पौधे की जड़ में 0.8 प्रतिशत अंकोटीन नामक पदार्थ पाया जाता है। इसके तेल में भी 0.2 प्रतिशत यह पदार्थ पाया जाता है। अपने रोग नाशक गुणों के कारण यह पौधा चिकित्साशास्त्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। रक्तचाप को कम करने में इसका पूर्ण बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है।
प्राप्ति स्थान
हिमालय की तराई, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, राजस्थान, दक्षिण भारत एवं बर्मा आदि क्षेत्रों में यह पौधा सरलता से प्राप्य है। (वि.कु.ति.)
टीका टिप्पणी और संदर्भ