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|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 | |||
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|लेखक =ए.बी. केंप | |||
|संपादक=सुधाकर पांडेय | |||
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कटी-संहतियाँ यांत्रिकी में उन दंडों (छड़ों) के समूह को कहते हैं जो एक दूसरे से हिंज द्वारा ज़ड़े रहते हैं और जिनसे कोई विशेष प्रकार की गति प्राप्त होती है। कटी-संहतियों के उदाहरण अनेक यंत्रों में देखे जा सकते हैं। पैंटोग्राफ़ नामक यंत्र में चार छड़ रहते हैं जो एक दूसरे से हिंज द्वारा जुड़े रहते हैं। इसमें बिंदु क को स्थिर रखा जाता है और सुई ख को किसी वक्र पर फेरा जाता है। तब पेंसिल ग उस वक्र का प्रवर्धित अथवा लघवाकार चित्र उतार देता है। इस प्रकार इस यंत्र को दिए हुए चित्र से बड़ा अथवा छोटा चित्र खींचने के काम में लाया जाता है। | कटी-संहतियाँ यांत्रिकी में उन दंडों (छड़ों) के समूह को कहते हैं जो एक दूसरे से हिंज द्वारा ज़ड़े रहते हैं और जिनसे कोई विशेष प्रकार की गति प्राप्त होती है। कटी-संहतियों के उदाहरण अनेक यंत्रों में देखे जा सकते हैं। पैंटोग्राफ़ नामक यंत्र में चार छड़ रहते हैं जो एक दूसरे से हिंज द्वारा जुड़े रहते हैं। इसमें बिंदु क को स्थिर रखा जाता है और सुई ख को किसी वक्र पर फेरा जाता है। तब पेंसिल ग उस वक्र का प्रवर्धित अथवा लघवाकार चित्र उतार देता है। इस प्रकार इस यंत्र को दिए हुए चित्र से बड़ा अथवा छोटा चित्र खींचने के काम में लाया जाता है। | ||
०८:४८, ३० जुलाई २०११ का अवतरण
कटी संहतियाँ
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 367-368 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | ए.बी. केंप |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
स्रोत | हाउ टु ड्रॉ ए स्ट्रेट लाइन (१८७७) |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | गोरख प्रसाद |
कटी-संहतियाँ यांत्रिकी में उन दंडों (छड़ों) के समूह को कहते हैं जो एक दूसरे से हिंज द्वारा ज़ड़े रहते हैं और जिनसे कोई विशेष प्रकार की गति प्राप्त होती है। कटी-संहतियों के उदाहरण अनेक यंत्रों में देखे जा सकते हैं। पैंटोग्राफ़ नामक यंत्र में चार छड़ रहते हैं जो एक दूसरे से हिंज द्वारा जुड़े रहते हैं। इसमें बिंदु क को स्थिर रखा जाता है और सुई ख को किसी वक्र पर फेरा जाता है। तब पेंसिल ग उस वक्र का प्रवर्धित अथवा लघवाकार चित्र उतार देता है। इस प्रकार इस यंत्र को दिए हुए चित्र से बड़ा अथवा छोटा चित्र खींचने के काम में लाया जाता है।
वाट का ऋजु-लेखक
इन दिनों इन दिनों जब यंत्र के किसी भाग को ऋजु रेखा में चलाना रहता है तब ऐसा प्रबंध किया जाता है कि वह भाग दो स्थिर ऋजु भागों के बीच फिसले। वाष्प इंजन के आविष्कारक वाट के समय में इस प्रकार की युक्ति ठीक नहीं बन पाती थी, क्योंकि ऐसी युक्ति में बहुत सी शक्ति घर्षण द्वारा नष्ट हो जाती थी। इसलिए वाट ने १७८४ ई. में एक युक्ति की उपज्ञा की जिसे 'वाट्स पैरालेल मोशन' (वाट की समांतर गति) कहते हैं।
यदि तीन छड़ें, क ख, ख ग और ग घ, बिंदुओं ख तथा ग पर हिंजों द्वारा जुड़ी हों और बिंदुओं क तथा घ पर स्थिर हिंज हों तो हमें वाट की युक्ति मिल जाती है। यदि छड़ ख ग पर एक बिंदु च ऐसा लिया जाए कि क ख/ग घ उ च ग/खच तो बिंदु च छड़ों के समतल में केवल एक प्रकार से चल सकेगा; वह अँग्रेजी अंग ८ लिख सकेगा जो बहुत सँकरा होगा। वस्तुत: इस सँकरी आकृति के मध्य भाग प्राय: ऋजु रहते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि बिंदु च लगभग ऋजु रेखा में चलता है। वाट ने इसका उपयोग इंजन का पिस्टन चलाने में किया, परंतु सुविधा के लिए उसने तीन अतिरिक्त छड़ें जोड़ ली थीं, जिससे च की गति पैंटोग्राफ़ के सिद्धांत पर अन्यत्र पहुँच जाती है।
१९वीं शताब्दी के आरंभ में वाट के ऋजु-लेखक में सुधार करने की चेष्टा की गई। फ्रांस की सेना के एक लेफ़्टिनेंट पोसेलिए ने छह छड़ों की कटी-संहति बनाई जिससे एक बिंदु शुद्ध ऋजु रेखा में चलता था। इसे चित्र ३ में दिखाया गया है। इसमें खग उ गघ उ चख और कख उ कछ। बिंदु च और छ को स्थिर रखा जाता है; च छ की लंबाई क छ के बराबर रहती है। च अब केवल क के परित: एक वृत्त में चल सकता है; उसे इस वृत्त में चलाने पर बिंदु ग सरल रेखा में चलता है।
पोसेलिए की कटी-संहति में सात छड़ें रहती हैं। लोगों ने सोचा कि कम छड़ों से काम चलाया जाए तो अच्छा होगा। गणितज्ञ चेबिचफ़ ने 'सिद्ध' कर दिया कि पाँच अथवाइससे कम छड़ों की संहतियों से ऋजु-रेखात्मक गति प्राप्त नहीं हो सकती, परंतु उसका प्रमाण अशुद्ध निकला, क्योंकि १८७७ ई. में हार्ट ने पाँच छड़ों की कटी-संहित की उपज्ञा की जिससे सरल रेखा खींची जा सकती थी (द्र. प्रोसीडिंग्स, लंदन मैथेमैटिकल सोसायटी, १८७७)।
अन्य कई कटी-संहतियाँ बनी हैं जिनसे शांकव, समविभव वक्र आदि खींचे जा सकते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 367-368।