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गोपाल (प्रथम) गौड़ (उत्तरी बंगाल) पालवंश का प्रथम<ref>८वीं सदी</ref>राजा था। गुप्त और पुष्पभूतिवंश के ह्रास और अंत के बाद भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार तारानाथ और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चितरूप से सही मान लेना तो कठिन है, पर यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यो से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। यह भी लगता है कि उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई। संध्याकर नंदिकृत रामपालचरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात्‌ उत्तरी बंगाल बताया गया है। पर इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंग<ref>दक्षिणपूर्वी बंगाल</ref>पर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मात्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र धर्मपाल ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से गौड़ राज्य को तत्कालीन भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई। गोपाल के सुशासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। मंजुश्री मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और चैत्य बनवाए, बाग लगवाए, बाँध और पुल बँधवाए तथा देवस्थान और गुफाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र धर्मपाल।
गोपाल (प्रथम) गौड़ (उत्तरी बंगाल) पालवंश का प्रथम<ref>८वीं सदी</ref>राजा था। गुप्त और पुष्पभूतिवंश के ह्रास और अंत के बाद भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार तारानाथ और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चितरूप से सही मान लेना तो कठिन है, पर यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यो से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। यह भी लगता है कि उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई। संध्याकर नंदिकृत रामपालचरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात्‌ उत्तरी बंगाल बताया गया है। पर इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंग<ref>दक्षिणपूर्वी बंगाल</ref>पर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मात्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र धर्मपाल ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से गौड़ राज्य को तत्कालीन भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई। गोपाल के सुशासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। मंजुश्री मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और चैत्य बनवाए, बाग लगवाए, बाँध और पुल बँधवाए तथा देवस्थान और गुफाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र धर्मपाल।


गोपाल द्वितीय पालवंश की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद ९४८ ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्यदेवी था, जो राष्ट्रकूट कन्या थी। संभवत: उसकी कमजोरी के परिणामस्वरूप उत्तरी और पश्चिमी बंगाल पालों के हाथ से निकलकर हिमालय के उत्तरी क्षेत्रों से आनेवाली कांबोज नामक आक्रमणकारी जाति के हाथों चला गया। कदाचित्‌ चंदेलराज यशोवर्मा ने भी ९५३-५४ ई. के आसपास उसके क्षेत्रों पर धावा कर उसे हराया था। उसके कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे मगध और अंग मात्र में उसका राजनीतिक अधिकार ज्ञात होता है। उसकी मृत्यु कब हुई, यह कहना कठिन है।  
गोपाल द्वितीय पालवंश की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद ९४८ ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्यदेवी था, जो राष्ट्रकूट कन्या थी। संभवत: उसकी कमजोरी के परिणामस्वरूप उत्तरी और पश्चिमी बंगाल पालों के हाथ से निकलकर हिमालय के उत्तरी क्षेत्रों से आनेवाली कांबोज नामक आक्रमणकारी जाति के हाथों चला गया। कदाचित्‌ चंदेलराज यशोवर्मा ने भी ९५3-५४ ई. के आसपास उसके क्षेत्रों पर धावा कर उसे हराया था। उसके कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे मगध और अंग मात्र में उसका राजनीतिक अधिकार ज्ञात होता है। उसकी मृत्यु कब हुई, यह कहना कठिन है।  





०७:०१, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
गोपाल प्रथम
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 23
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विशुद्धानंद पाठक


गोपाल (प्रथम) गौड़ (उत्तरी बंगाल) पालवंश का प्रथम[१]राजा था। गुप्त और पुष्पभूतिवंश के ह्रास और अंत के बाद भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से विच्छृंखलित हो गया और कोई भी अधिसत्ताक शक्ति नहीं बची। राजनीतिक महत्वाकांक्षियों ने विभिन्न भागों में नए नए राजवंशों की नींव डाली। गोपाल भी उन्हीं में एक था। बौद्ध इतिहासकार तारानाथ और धर्मपाल के खालिमपुर के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि जनता ने अराजकता और मात्स्यन्याय का अंत करने के लिये उसे राजा चुना। वास्तव में राजा के पद पर उसका कोई लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, यह निश्चितरूप से सही मान लेना तो कठिन है, पर यह अवश्य प्रतीत होता है कि अपने सत्कार्यो से उसने जनमानस में अपने लिये उच्चस्थान बना लिया था। यह भी लगता है कि उसका किसी राजवंश से कोई संबंध नहीं था और स्वयं वह साधारण परिवार का व्यक्ति था, जिसकी कुलीनता आगे भी कभी स्वीकृत नहीं की गई। संध्याकर नंदिकृत रामपालचरित में गोपाल का मूल शासन वारेंद्र अर्थात्‌ उत्तरी बंगाल बताया गया है। पर इसमें संदेह नहीं कि धीरे धीरे पूरे वंग[२]पर उसका अधिकार हो गया और वह गौड़ाधिपति कहलाने लगा। जैसा अनुश्रुति से ज्ञात होता है, उसने मात्स्यन्याय का अंत किया और वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा की नींव अच्छी तरह रखी जो मगध के भी कुछ भागों तक फैल गई। उसकी राजनीतिक विजयों और सुशासन का लाभ उसके पुत्र धर्मपाल ने खूब उठाया और उसने बड़ी आसानी से गौड़ राज्य को तत्कालीन भारत की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनाने में सफलता पाई। गोपाल के सुशासन की तुलना पृथु और सगर के सुशासनों से की गई है। धार्मिक विश्वासों में वह संभवत: बौद्ध था और तारानाथ का कथन है कि उसने पटना जिले में स्थित विहार के पास नलेंद्र (नालंदा) विहार की स्थापना की। मंजुश्री मूलकल्प से भी ज्ञात होता है कि उसने अनेक विहार और चैत्य बनवाए, बाग लगवाए, बाँध और पुल बँधवाए तथा देवस्थान और गुफाएँ निर्मित कराई। उसके शासनकाल का निश्चित रूप से निर्णय नहीं किया जा सका है। अत: यह कहना भी कठिन है कि गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज का गौड़ाधिपति शत्रु गोपाल था अथवा उसका पुत्र धर्मपाल।

गोपाल द्वितीय पालवंश की पतनावस्था का राजा था। अपने पिता राज्यपाल की मृत्यु के बाद ९४८ ई. में उसने गद्दी पाई। उसकी माता का नाम भाग्यदेवी था, जो राष्ट्रकूट कन्या थी। संभवत: उसकी कमजोरी के परिणामस्वरूप उत्तरी और पश्चिमी बंगाल पालों के हाथ से निकलकर हिमालय के उत्तरी क्षेत्रों से आनेवाली कांबोज नामक आक्रमणकारी जाति के हाथों चला गया। कदाचित्‌ चंदेलराज यशोवर्मा ने भी ९५3-५४ ई. के आसपास उसके क्षेत्रों पर धावा कर उसे हराया था। उसके कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे मगध और अंग मात्र में उसका राजनीतिक अधिकार ज्ञात होता है। उसकी मृत्यु कब हुई, यह कहना कठिन है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ८वीं सदी
  2. दक्षिणपूर्वी बंगाल