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'नायाधम्म कहाओं<ref>कहाओं' १/१६/७७- ८८ </ref> से पता चलता है कि उसके रचनाकाल तक 'ललियाएणामं गोट्ठी' (ललित गोष्ठी) का आयोजन होने लगा था। स्वयं शासक के संरक्षण में ऐसी गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनके सदस्य संपन्न कुल के हुआ करते थे। ऐसी गोष्ठियाँ केवल आमोदप्रमोद के लिये बुलाई जाती थीं। कथाकोश<ref>'कथाकोश' १/४/ | 'नायाधम्म कहाओं<ref>कहाओं' १/१६/७७- ८८ </ref> से पता चलता है कि उसके रचनाकाल तक 'ललियाएणामं गोट्ठी' (ललित गोष्ठी) का आयोजन होने लगा था। स्वयं शासक के संरक्षण में ऐसी गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनके सदस्य संपन्न कुल के हुआ करते थे। ऐसी गोष्ठियाँ केवल आमोदप्रमोद के लिये बुलाई जाती थीं। कथाकोश<ref>'कथाकोश' १/४/3४3६</ref> के अनुसार विचार विनिमय के माध्यम द्वारा ज्ञानार्जन के लिये जो सांस्कृतिक बैठकें हुआ करती थीं उन्हें 'गोष्ठीसमवाय' की संज्ञा प्राप्त थी। सामान्यत: ऐसी गेष्ठियाँ गणिकालय, सभामंडप अथवा किसी संपन्न नागरिक के यहँा अयोजित की जाती थीं। विचार विनिमय का विषय कला, साहित्य अथवा संगीत हुआ करता था। गुणी कलाकारों और साहित्यसेवियों को पुरस्कृत भी किया जाता था। कामसूत्र<ref>'कामसूत्र' १/४/3८५3९</ref> में 'पानगोष्ठियों' का उल्लेख मिलता है जिनमें नगरवधुएँ भी भाग लिया करती थीं। वहाँ पर चाट के साथ साथ सुरा सेवन की भी व्यवस्था रहती थी। इनका आयोजन कभी कभी उद्यानयात्रा के अवसरों पर हुआ करता था, अन्यथा ये नागरिकों के घरों में जुड़ा करती थीं। | ||
परंतु काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने काव्यपरीक्षण<ref>काव्यपरीक्षण १०/१७४७७ </ref> के लिये जिस काव्यगोष्ठी अथवा कविसमाज की व्यवस्था शासकों को दी है यह भिन्न कोटि की थी। प्राचीन काल की ऐसी काव्यगोष्ठियों में कभी कभी शास्त्रार्थ भी हुआ करते थे। कहा जाता है, कि ऐसी गोष्ठियों का सभापतित्व वासुदेव, शालिवाहन हाल, शूद्रक और साहसांक विक्रमादित्य तक ने की थी। मानसोल्लास <ref>मानसोल्लास पृ. १७१५८९ </ref> के अनुसार सोमेश्वर के दरबार में कभी कभी तीसरे पहर कवि गोष्ठियाँ भी हुआ करती थीं जिनमें कवि, गायक, विद्वान् और नैयायिक राजसिंहासन के पास बैठकर भाग लिया करते थे। ऐसे अवसरों पर पारितोषिक वितरण की व्यवस्था भी रहती थी, जहाँ सद्धर्मी भी आमंत्रित किए जाते थे। | परंतु काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने काव्यपरीक्षण<ref>काव्यपरीक्षण १०/१७४७७ </ref> के लिये जिस काव्यगोष्ठी अथवा कविसमाज की व्यवस्था शासकों को दी है यह भिन्न कोटि की थी। प्राचीन काल की ऐसी काव्यगोष्ठियों में कभी कभी शास्त्रार्थ भी हुआ करते थे। कहा जाता है, कि ऐसी गोष्ठियों का सभापतित्व वासुदेव, शालिवाहन हाल, शूद्रक और साहसांक विक्रमादित्य तक ने की थी। मानसोल्लास <ref>मानसोल्लास पृ. १७१५८९ </ref> के अनुसार सोमेश्वर के दरबार में कभी कभी तीसरे पहर कवि गोष्ठियाँ भी हुआ करती थीं जिनमें कवि, गायक, विद्वान् और नैयायिक राजसिंहासन के पास बैठकर भाग लिया करते थे। ऐसे अवसरों पर पारितोषिक वितरण की व्यवस्था भी रहती थी, जहाँ सद्धर्मी भी आमंत्रित किए जाते थे। |
०७:०२, १८ अगस्त २०११ का अवतरण
गोष्ठी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 44 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | नर्मदेवर चतुर्वेदी |
गोष्ठी इस शब्द का अति प्राचीन प्रयोग 'ऐतरेय ब्राह्मण'[१] से मिलने लगता है। इस युग में चरागाहों से पशुओं को एकत्र कर किसी एक स्थान पर सुरक्षा की दृष्टि से रात बितानी पड़ती थी। ऐसे अवसरों पर किसी वृक्ष के नीचे बैठकर गोपगोपियों के बीच गप्प गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं। धीरे धीरे वे स्थान संगाठित होकर निवास के स्थायी स्थल बनते गए। गाथासप्तशती '[२] में गोट्ठं का प्रयोग इस संदर्भ में स्मरणीय हैं। सिंधी भाषा का गोठ शब्द भी गाँव का ही पर्याय है।
'नायाधम्म कहाओं[३] से पता चलता है कि उसके रचनाकाल तक 'ललियाएणामं गोट्ठी' (ललित गोष्ठी) का आयोजन होने लगा था। स्वयं शासक के संरक्षण में ऐसी गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनके सदस्य संपन्न कुल के हुआ करते थे। ऐसी गोष्ठियाँ केवल आमोदप्रमोद के लिये बुलाई जाती थीं। कथाकोश[४] के अनुसार विचार विनिमय के माध्यम द्वारा ज्ञानार्जन के लिये जो सांस्कृतिक बैठकें हुआ करती थीं उन्हें 'गोष्ठीसमवाय' की संज्ञा प्राप्त थी। सामान्यत: ऐसी गेष्ठियाँ गणिकालय, सभामंडप अथवा किसी संपन्न नागरिक के यहँा अयोजित की जाती थीं। विचार विनिमय का विषय कला, साहित्य अथवा संगीत हुआ करता था। गुणी कलाकारों और साहित्यसेवियों को पुरस्कृत भी किया जाता था। कामसूत्र[५] में 'पानगोष्ठियों' का उल्लेख मिलता है जिनमें नगरवधुएँ भी भाग लिया करती थीं। वहाँ पर चाट के साथ साथ सुरा सेवन की भी व्यवस्था रहती थी। इनका आयोजन कभी कभी उद्यानयात्रा के अवसरों पर हुआ करता था, अन्यथा ये नागरिकों के घरों में जुड़ा करती थीं।
परंतु काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने काव्यपरीक्षण[६] के लिये जिस काव्यगोष्ठी अथवा कविसमाज की व्यवस्था शासकों को दी है यह भिन्न कोटि की थी। प्राचीन काल की ऐसी काव्यगोष्ठियों में कभी कभी शास्त्रार्थ भी हुआ करते थे। कहा जाता है, कि ऐसी गोष्ठियों का सभापतित्व वासुदेव, शालिवाहन हाल, शूद्रक और साहसांक विक्रमादित्य तक ने की थी। मानसोल्लास [७] के अनुसार सोमेश्वर के दरबार में कभी कभी तीसरे पहर कवि गोष्ठियाँ भी हुआ करती थीं जिनमें कवि, गायक, विद्वान् और नैयायिक राजसिंहासन के पास बैठकर भाग लिया करते थे। ऐसे अवसरों पर पारितोषिक वितरण की व्यवस्था भी रहती थी, जहाँ सद्धर्मी भी आमंत्रित किए जाते थे।
गोष्ठी का एक रूप किसी अंक के उपरूपक में भी मिलता है, जहाँ नौ दस पुरुषों तथा पाँच छह स्त्रियों का अभिनय अनिवार्य समझा जाता था। इसमें कैशिकीवत्ति की योजना, उदात्त वचनों के प्रयोग और गर्भ तथा विमर्श संधियों के अतिरिक्त शेष सभी संधियों का समावेश रहता है। अन्य बातों की सादृश्य नाटक जैसा है। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ की स्थापनाओं[८] की समानता 'शारदातनय' [९] के विचारों जैसी है।
जैनियों के आदिपुराण[१०] में ऋषभदेव के बाल्य जीवन की गोष्ठियों का वर्णन है, जहाँ पर कलागोष्ठी, पदगोष्ठी, जल्पगोष्ठी का वर्णन मिलता है जिसमें युद्धक्षेत्र के वीरों के कृत्यों का निदर्शन हुआ करता था।
मराठी में गोष्ठी का एक प्रयोग 'कानाफूसी' (रहस्यवार्ता) के अर्थ में पाया जाता है जिसका परिचय हमें मध्यकालीन संतों, भक्तों और योगियों के संवादमूलक गोष्ठियों द्वारा मिला करता है। हिंदी साहित्य क्षेत्र में भी साहित्यकारों, चित्रकारों आदि की गोष्ठियाँ कुछ सालों से होने लगी हैं।