"बाबू कुँवरसिंह": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "३" to "3") |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "१" to "1") |
||
पंक्ति १०: | पंक्ति १०: | ||
|मुद्रक=नागरी मुद्रण वाराणसी | |मुद्रक=नागरी मुद्रण वाराणसी | ||
|संस्करण=सन् 1976 ईसवी | |संस्करण=सन् 1976 ईसवी | ||
|स्रोत=मथुरादास दीक्षित : बाबू कुँवरसिंह, भारती पुस्तक माला, कलकत्ता, संवत् | |स्रोत=मथुरादास दीक्षित : बाबू कुँवरसिंह, भारती पुस्तक माला, कलकत्ता, संवत् 1९८०; दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह : कुँवरसिंह एक अध्ययन, अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन मंडल, पटना, 1९५५इ.। | ||
|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | |उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | ||
|कॉपीराइट सूचना=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी | |कॉपीराइट सूचना=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी | ||
पंक्ति २२: | पंक्ति २२: | ||
|अद्यतन सूचना= | |अद्यतन सूचना= | ||
}} | }} | ||
कुँवरसिंह, बाबू | कुँवरसिंह, बाबू 1८५७ ई. के भारतीय स्वातंत्रय संग्राम के क्रांतिकारी वीर सेनानी। 1७८२ ई.(11८९ फसली के आसपास) बिहार प्रदेश के जगदीशपुर नामक ग्राम में जन्म हुआ। बचपन और युवावस्था घोड़े की सवारी, निशानेबाजी और शिकारी जीवन में बीतने के कारण किसी प्रकार फारसी में गुलिस्ताँ तक की शिक्षा प्राप्त की। वे हिंदी और संस्कृत भाषा के भी ज्ञाता थे। अपने पिता बाबू साहबजादा सिंह की मृत्यु के बाद वे 1२3७ फसली (1८3०) में जगदीशपुर की गद्दी पर बैठे। उनकी जमींदारी का विस्तार बिहार प्रदेश के आरा जिले के जगदीशपुर, पीरो परगना, नोनार, आरा, बारहगाँवा आदि अनेक मौजों और परगनों तक था, जिसकी वार्षिक आय लगभग साढ़े ९ लाख रुपए थी। जगदीशपुर की कचहरी न्याय के लिए प्रसिद्ध थी। इनके राज दरबार में कविराम प्रधान कवि थे। | ||
अँगरेज शासकों द्वारा कतिपय युद्धों में लड़ने के लिए देशी सिपाहियों को धर्मविरुद्ध समुद्रमार्ग होकर बाहर जाने की आज्ञा, नई बंदूकों के टोटे पर गौ और सूअर की चर्बी चढ़ाए जाने की अफवाह तथा देशी रियासतों, राजे रजवाड़ों एवं देश की तत्कालीन विक्षोभजनक परिस्थिति के कारण बंगाल के देशी सिपाहियों के दल से | अँगरेज शासकों द्वारा कतिपय युद्धों में लड़ने के लिए देशी सिपाहियों को धर्मविरुद्ध समुद्रमार्ग होकर बाहर जाने की आज्ञा, नई बंदूकों के टोटे पर गौ और सूअर की चर्बी चढ़ाए जाने की अफवाह तथा देशी रियासतों, राजे रजवाड़ों एवं देश की तत्कालीन विक्षोभजनक परिस्थिति के कारण बंगाल के देशी सिपाहियों के दल से 1८५७ ई. में जो विप्लव शुरू हुआ, वह कुछ ही महीनों के भीतर दिल्ली, लखनऊ , कानपुर, झाँसी, ग्वालियर, प्रयाग, पटना आदि स्थानों में फैल गया। दिल्ली की गद्दी पर बहादुरशाह के पुन: बैठने की अफवाह के कारण पटना के मुसलमानों में खलबली मच गई। बिहार प्रदेश में फैलते विद्रोह को शांत करने के लिए पटना के तत्कालीन कमिश्नर मि. टेलर ने जमींदारों और राजाओं की एक बैठक 1८ जून, 1८५७ को बुलवाई। आमंत्रण दिए जाने पर भी कुँवर सिंह उस बैठक में सम्मिलित नहीं हुए। जुलाई, 1८५७ की दूसरी बैठक में भी जब वे नहीं आए तब अंग्रेज शासकों की शंका बढ़ी। एक दिन आरा कचहरी के जज की टेबुल पर प्राप्त एक गुमनाम पत्र के आधार पर वे बागी घोषित कर विद्रोहियों के नेता करार दिए गए। दूसरी ओर स्वातंत््रय समर के अन्य सेनानियों द्वारा रोटी और कमल के माध्यम से संग्राम में भाग लेने के लिए बाँटा जाने वाला निमंत्रण कुँवरसिंह को मिला। जब आरा का कलक्टर उन्हें गिरफ्तार करने के लिये चला, वे जगदीशपुर छोड़कर सेना का संगठन करते हुए स्वातंत््रय समर में कूद पड़े। दानापुर छावनी के बागी सिपाही उनकी सेना में आ मिले। | ||
२७ जुलाई, | २७ जुलाई, 1८५७ को कुँवरसिंह की सेना ने आरा शहर पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। कारागार के कैदी मुक्त कर दिए गए। कुँवरसिंह की पदाति सेना में राजपूत, पठान, किसान, कुम्हार, मुराव, बढ़ई, लोहार, बागी सिपाही, पेंशनयाफ्ता सिपाही आदि हर वर्ग के लोग थे। 3० जुलाई, तक आरा हाउस पर जहाँ अंग्रेज छिपे थे, घेरा डाले रहे। रात्रि में सेना ने कूच किया और गाँगी नाले को पार करते समय कप्तान डन्वर की सेना से हुई मुठभेड़ में कुँवरसिंह की दूसरी विजय हुई। २ अगस्त को बीबीगंज और 1२ अगस्त को दिलावर ग्राम में अंग्रेजों की बड़ी सेना से क्रांतिकारी पराजित हुए। आरा और जगदीशपुर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। परंतु कुँवरसिंह ने हार न मानी। वे सहसराम और रोहतासदुर्ग की ओर बढ़े। सरकारी सैन्य की ४० वीं पल्टन उनकी सेना से आ मिली। रींवा पर आक्रमण करने के बाद कुँवरसिंह ने कानपुर में ताँतिया टोपे, नाना साहब और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से मिलकर क्रांति की योजनाएँ बनाई। कालपी की लड़ाई में उनके पौत्र बीरभंजनसिंह खेत रहे। कुँवरसिंह छह महीने तक बाँदा, सुल्तानपुर, गोंडा, लखनऊ, प्रयाग, मिरजापुर, बनारस (वाराणसी) और गाजीपुर आदि जीलों में क्रांति की लहर दौड़ाते आजमगढ़ पहुँचे और अतरौलिया नामक ग्राम पर 1७ मार्च, 1८५८ को आक्रमण पर उसे अपने अधिकार में कर लिया। २७ मार्च का कर्नल डेम्स भी ससैन्य हारे। लार्ड कैनिग ने लार्ड मार्क, मेजर डगलस, वेनविल, लागडेन, जनरल ल्यूगार्डन और हैमिल्टन को भेजा। लार्ड मार्क ६ अप्रैल को कुँवरसिंह की सेना से पराजित हुए। जनरल वेनविल और हैमिल्टन टौंस तट पर हारे। 1७ अप्रैल को मेजर डगलस ने पलायन किया फिर जनरल ल्यूगार्डन की सेना ने कुँवरसिंह का पीछा किया। अंग्रेजी फौजों का मुकाबला करते हुए कुँवरसिंह जगदीशपुर की ओर बढ़ें। बिलिया जिला के बहुआरा घाट से गंगा नदी पार करते समय एक अंग्रेज की बंदूक से उनके दाहिने हाथ की केहुनी पर गोली लगी। उन्होंने घायल हाथ काटकर गंगा को समर्पित कर दिया। २२ अप्रैल, 1८५८ को कुँवरसिंह ने जनरल ली० ग्रांड की सेना को पराजित कर अपनी राजधानी जगदीशपुर पर पुन: अधिकार कर लिया। हाथ का जख्म ठीक न हो सकने के कारण अंतिम विजय के तीसरे दिन अर्थात् २५ अप्रैल, 1८५८ को वीर सेनानी कुँवरसिंह की मृत्यु हो गई। अपने शासन के अंतिम काल में बाबू कुँवरसिंह ने ब्राह्मणों और कर्मचारियों को जागीरें दीं। जितौरा में शिकारगाह, जगदीशपुर में शिवमंदिर और तालाब, आरा में धर्मन बीबी की मसजिद, अनेक महल, धर्मशालाएँ, बाग बगीचे तथा जंगलों को कटवाकर गरीबों के लिए बस्तियों का निर्माण आदि अनेक कीर्तिकाय किए। | ||
०७:०५, १८ अगस्त २०११ का अवतरण
बाबू कुँवरसिंह
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 50-51 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | मथुरादास दीक्षित, दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
स्रोत | मथुरादास दीक्षित : बाबू कुँवरसिंह, भारती पुस्तक माला, कलकत्ता, संवत् 1९८०; दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह : कुँवरसिंह एक अध्ययन, अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन मंडल, पटना, 1९५५इ.। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | गिरिजाशंकर सिंह |
कुँवरसिंह, बाबू 1८५७ ई. के भारतीय स्वातंत्रय संग्राम के क्रांतिकारी वीर सेनानी। 1७८२ ई.(11८९ फसली के आसपास) बिहार प्रदेश के जगदीशपुर नामक ग्राम में जन्म हुआ। बचपन और युवावस्था घोड़े की सवारी, निशानेबाजी और शिकारी जीवन में बीतने के कारण किसी प्रकार फारसी में गुलिस्ताँ तक की शिक्षा प्राप्त की। वे हिंदी और संस्कृत भाषा के भी ज्ञाता थे। अपने पिता बाबू साहबजादा सिंह की मृत्यु के बाद वे 1२3७ फसली (1८3०) में जगदीशपुर की गद्दी पर बैठे। उनकी जमींदारी का विस्तार बिहार प्रदेश के आरा जिले के जगदीशपुर, पीरो परगना, नोनार, आरा, बारहगाँवा आदि अनेक मौजों और परगनों तक था, जिसकी वार्षिक आय लगभग साढ़े ९ लाख रुपए थी। जगदीशपुर की कचहरी न्याय के लिए प्रसिद्ध थी। इनके राज दरबार में कविराम प्रधान कवि थे।
अँगरेज शासकों द्वारा कतिपय युद्धों में लड़ने के लिए देशी सिपाहियों को धर्मविरुद्ध समुद्रमार्ग होकर बाहर जाने की आज्ञा, नई बंदूकों के टोटे पर गौ और सूअर की चर्बी चढ़ाए जाने की अफवाह तथा देशी रियासतों, राजे रजवाड़ों एवं देश की तत्कालीन विक्षोभजनक परिस्थिति के कारण बंगाल के देशी सिपाहियों के दल से 1८५७ ई. में जो विप्लव शुरू हुआ, वह कुछ ही महीनों के भीतर दिल्ली, लखनऊ , कानपुर, झाँसी, ग्वालियर, प्रयाग, पटना आदि स्थानों में फैल गया। दिल्ली की गद्दी पर बहादुरशाह के पुन: बैठने की अफवाह के कारण पटना के मुसलमानों में खलबली मच गई। बिहार प्रदेश में फैलते विद्रोह को शांत करने के लिए पटना के तत्कालीन कमिश्नर मि. टेलर ने जमींदारों और राजाओं की एक बैठक 1८ जून, 1८५७ को बुलवाई। आमंत्रण दिए जाने पर भी कुँवर सिंह उस बैठक में सम्मिलित नहीं हुए। जुलाई, 1८५७ की दूसरी बैठक में भी जब वे नहीं आए तब अंग्रेज शासकों की शंका बढ़ी। एक दिन आरा कचहरी के जज की टेबुल पर प्राप्त एक गुमनाम पत्र के आधार पर वे बागी घोषित कर विद्रोहियों के नेता करार दिए गए। दूसरी ओर स्वातंत््रय समर के अन्य सेनानियों द्वारा रोटी और कमल के माध्यम से संग्राम में भाग लेने के लिए बाँटा जाने वाला निमंत्रण कुँवरसिंह को मिला। जब आरा का कलक्टर उन्हें गिरफ्तार करने के लिये चला, वे जगदीशपुर छोड़कर सेना का संगठन करते हुए स्वातंत््रय समर में कूद पड़े। दानापुर छावनी के बागी सिपाही उनकी सेना में आ मिले।
२७ जुलाई, 1८५७ को कुँवरसिंह की सेना ने आरा शहर पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। कारागार के कैदी मुक्त कर दिए गए। कुँवरसिंह की पदाति सेना में राजपूत, पठान, किसान, कुम्हार, मुराव, बढ़ई, लोहार, बागी सिपाही, पेंशनयाफ्ता सिपाही आदि हर वर्ग के लोग थे। 3० जुलाई, तक आरा हाउस पर जहाँ अंग्रेज छिपे थे, घेरा डाले रहे। रात्रि में सेना ने कूच किया और गाँगी नाले को पार करते समय कप्तान डन्वर की सेना से हुई मुठभेड़ में कुँवरसिंह की दूसरी विजय हुई। २ अगस्त को बीबीगंज और 1२ अगस्त को दिलावर ग्राम में अंग्रेजों की बड़ी सेना से क्रांतिकारी पराजित हुए। आरा और जगदीशपुर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। परंतु कुँवरसिंह ने हार न मानी। वे सहसराम और रोहतासदुर्ग की ओर बढ़े। सरकारी सैन्य की ४० वीं पल्टन उनकी सेना से आ मिली। रींवा पर आक्रमण करने के बाद कुँवरसिंह ने कानपुर में ताँतिया टोपे, नाना साहब और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से मिलकर क्रांति की योजनाएँ बनाई। कालपी की लड़ाई में उनके पौत्र बीरभंजनसिंह खेत रहे। कुँवरसिंह छह महीने तक बाँदा, सुल्तानपुर, गोंडा, लखनऊ, प्रयाग, मिरजापुर, बनारस (वाराणसी) और गाजीपुर आदि जीलों में क्रांति की लहर दौड़ाते आजमगढ़ पहुँचे और अतरौलिया नामक ग्राम पर 1७ मार्च, 1८५८ को आक्रमण पर उसे अपने अधिकार में कर लिया। २७ मार्च का कर्नल डेम्स भी ससैन्य हारे। लार्ड कैनिग ने लार्ड मार्क, मेजर डगलस, वेनविल, लागडेन, जनरल ल्यूगार्डन और हैमिल्टन को भेजा। लार्ड मार्क ६ अप्रैल को कुँवरसिंह की सेना से पराजित हुए। जनरल वेनविल और हैमिल्टन टौंस तट पर हारे। 1७ अप्रैल को मेजर डगलस ने पलायन किया फिर जनरल ल्यूगार्डन की सेना ने कुँवरसिंह का पीछा किया। अंग्रेजी फौजों का मुकाबला करते हुए कुँवरसिंह जगदीशपुर की ओर बढ़ें। बिलिया जिला के बहुआरा घाट से गंगा नदी पार करते समय एक अंग्रेज की बंदूक से उनके दाहिने हाथ की केहुनी पर गोली लगी। उन्होंने घायल हाथ काटकर गंगा को समर्पित कर दिया। २२ अप्रैल, 1८५८ को कुँवरसिंह ने जनरल ली० ग्रांड की सेना को पराजित कर अपनी राजधानी जगदीशपुर पर पुन: अधिकार कर लिया। हाथ का जख्म ठीक न हो सकने के कारण अंतिम विजय के तीसरे दिन अर्थात् २५ अप्रैल, 1८५८ को वीर सेनानी कुँवरसिंह की मृत्यु हो गई। अपने शासन के अंतिम काल में बाबू कुँवरसिंह ने ब्राह्मणों और कर्मचारियों को जागीरें दीं। जितौरा में शिकारगाह, जगदीशपुर में शिवमंदिर और तालाब, आरा में धर्मन बीबी की मसजिद, अनेक महल, धर्मशालाएँ, बाग बगीचे तथा जंगलों को कटवाकर गरीबों के लिए बस्तियों का निर्माण आदि अनेक कीर्तिकाय किए।