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घोषणापत्र
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 126 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | हीरेंद्रनाथ मुखोपाध्याय |
घोषणापत्र प्राय: एक व्यक्ति या समूह द्वारा उन सिद्धांतों और नीतियों की घोषणा है जिसमें आम जनता का हित निहित हो। समसामयिक जीवन से संबंधित घोषणा का साधारणतम रूप वह है जिसे राजनीतिक दल, विशेषकर चुनाव के अवसर पर, प्रसारित करते हैं। ऐसे दलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे जनता को अपने चुनाव में समर्थन की माँग का कारण बताते हुए उन नीतियों तथा योजनाओं को भी स्पष्ट करें, जिन्हें वे अपनी सरकार बनाने पर कार्यान्वित करेंगे।
गंभीर अर्थ में मानव की कुछ उदात्त वाणियाँ (Pronouncements) घोषणापत्र की प्रकृति में उपस्थित समझी जा सकती हैं। वस्तुत: वह ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति का साक्षात्कार है जिससे उसका लाभ अधिक से अधिक लोग उठा सकें। जब हमारे भारतीय ऋषियों ने 'सोऽहम्' (वह मैं हूँ) और 'तत्वमसि' (वह तू है) की घोषण की तो महान् घोषणापत्रों की भाँति यह चरम सत्य की अभिव्यक्ति थी। जब हमारे आश्रमों से यह सुंदर शब्द ध्वनित हुआ- 'शृण्वंतु विश्वे अमृतस्य पुत्रा: आ येधामानि दिव्यानि तस्थु:, जानाम्यहं तं पुरुषं महांतमादित्य वर्णम् तमस: परस्तात्' तो यह घोषणापत्र का एक शालीनतम उदाहरण बन गया।
बाइबिल में वर्णन है कि जब प्रभु ईसा पीटर की भाँति शिष्य बनने को उत्सुक मछुओं से मिले, उन्होंने संक्षेप में उनसे कहा- 'मेरा अनुसरण करो'। तत्पश्चात् पर्वतशिखर से उन्होंने एक महत्वपूर्ण उपदेश दिया जो धर्म का महान् घोषणापत्र है। रोमनों के लिये सेंट पाल के तथा ईसाई कारिंथियनों और दूसरों के लिये लिखे गए अन्य धर्मपत्र प्राय: घोषणापत्रों की शैली में हैं किंतु ये अत्यंत हृदयस्पर्शी हैं। इस्लाम का प्रचार आश्चर्यजनक रूप से 'कुरान शरीफ़' के नारे से हुआ। वह उत्कृष्ट घोषणापत्र के रूप में समझा जा सकता है- 'ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है, और मोहम्मद उसका पैगंबर है।'
जब प्लेटो ने अपने 'रिपब्लिक' में यह विचार प्रतिपादित किया कि 'राज्य के अध्यक्ष दार्शनिक हों, और दार्शनिक अध्यक्ष हों' तब उसने एक अर्थ में संसार के सम्मुख चिरस्थायी शक्ति और आकर्षण का घोषणापत्र प्रस्तुत किया। टामस मोर (१६वीं शताब्दी) ने मानव जाति को अपने 'यूटोपिया' ग्रंथ द्वारा दूसरा घोषणापत्र दिया। रूसो का 'सोशल कांट्रैक्ट' (१८वीं शताब्दी) जो 'मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न हुआ था, किंतु सर्वत्र बंधन में है', आदि अविस्मरणीय शब्दों से आंरभ होता है, मानवीय चेतना का महान् घोषणापत्र है। इसी श्रेणी में साम्यवादी घोषणापत्र (१८४८) आता है जिसे मार्क्स ने एंजेल्स के सहयोग से लिखा।
अंग्रेजी क्रांति (१६४१-६०) ने बहुत बड़ी संख्या में पत्र पत्रिकाओं को जन्म दिया। वे सभी तत्कालीन विचारों को व्यक्त करनेवाले बहुत प्रभावशाली घोषणापत्र थे। 'लेवेलर्स', 'डिगर्स' और विशेषत: मिल्टन ने 'कामनवेल्थ' के उत्थान के लिये बहुत लिखा। मिल्टन ने सम्राट् के मृत्युदंड को न्यायपूर्ण सिद्ध करते हुए कुछ पुस्तकें लैटिन में लिखीं ताकि उनका अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर प्रचार हो। वे सभी सच्चे अर्थों में अंग्रेजी क्रांति के घोषणापत्र थे।
ब्रिटेन के विरुद्ध अमरीकी उपनिवेशों में विद्रोह ने स्वतंत्रता के एलना (Declaration) के रूप में एक बहुत गंभीर घोषणापत्र प्रस्तुत किया। इसका अनुसरण फ्रांसीसी क्रांति के लेखपत्र ने, जो संसार के लिय घोषणापत्र था, मनुष्य के अधिकारों को घोषित करके किया (१७९१)। यह कथन, कि सभी मनुष्य समान उत्पन्न हुए हैं, और उन्हें जीवनयापन, स्वतंत्रता और सुखभोग के समान अधिकार हैं, संसार की संपत्ति हो गया है।
अंग्रेज कवि शेली (१७९२-१८२२) ने कवियों को 'अज्ञापित विधायक' कहा है। उसकी कुछ कविताएँ घोषणापत्रों के समान हैं। जैसे- ओ पवन, इस सुप्त जग के लिये मेरे होठों द्वारा (घोषित) दिव्य संदेश का तूर्य बन जा यदि शीत ऋतु आती है क्या वसंत दूर रह सकता है?
१८४८ में 'साम्यवादी घोषणापत्र' प्रकाशित हुआ जो सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन का आधारभूत सैद्धांतिक विवरण प्रस्तुत करता है, जिसकी चुनौती समसामयिक इतिहास का बहुत बड़ा तथ्य है। राष्ट्रसंघ का प्रतिज्ञापत्र (१९१९) और संयुक्त राष्ट्र (१९४५) का शासनपत्र जैसे प्रलेख भी सच्चे अर्थों में घोषणापत्र कहे जा सकते हैं, जो संसार की महत्वाकांक्षा व्यक्त करते हैं। राजनीतिक दलों के घोषणापत्र, जिनमें निर्वाचन के अवसर पर उनके सिद्धांत, नीतियाँ और योजना संबंधी प्रस्ताव जनता के संमुख स्पष्ट किए जाते हैं, अधिक प्रचलित हैं किंतु इस वस्तुस्थिति को स्मरण रखना बहुत हितकर है कि घोषणापत्र इतिहास में प्रभावशाली ढंग से महत्वपूर्ण रहे हैं।
घोषणापत्र, साम्यवादी (कम्यूनिस्ट मैनिफस्टो) : नवंबर, १८४७ के अंत में लंदन में साम्यवादी संघ की दूसरी कांग्रेस हुई। इसमें उस काल्पनिक समाजवाद की भर्त्सना की गई जिसका विश्वास तत्कालीन समाजवादियों में प्राय: सामान्य रूप से जम गया था। उस अधिवेशन में षड्यंत्रकारी नीतियों का वहिष्कारकर संगठन को नया रूप दिया गया और एक नई योजना की घोषणा की गई। नवनिर्मित क्रांतिकारी मंच (प्लेटफार्म) के साम्यवादी सिद्धांतों को अंगीकृत कर घोषणापत्र का प्रारूप प्रस्तुत करने का कार्य कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिक एंजेल्स को सौंपा गया।
इस प्रकार साम्यवादी घोषणापत्र (१८४८) का प्रादुर्भाव हुआ जो प्राय: सर्वश: मार्क्स का कार्य था और जिसपर उस तेजस्वी विचारक की असाधारण प्रतिभा की गहरी छाप थी। यह घोषणापत्र अपनी विषयवस्तु और विचाराधारा में पूर्णत: मौलिक था। इसके साथ ही यह पत्र एक ऐतिहासिक तर्कमीमांसा, युक्तियुक्त विश्लेषण, कार्यक्रम तथा भविष्यवाणी था। मित्र शत्रु दोनों वर्गों ने इसे मूर्धन्य कृति माना है।
साम्यवादी घोषणापत्र में इतनी स्पष्टता और शक्ति है जितनी मार्क्स को अबतक प्राप्त न हुई थी, और जितनी, एकाध चमत्कारों एकाध चमत्कारों को छोड़, पीछे भी कभी संभव न हो सकी। इसके अंतर्गत उन्होंने उस पूँजीवाद का ऐतिहासिक उद्देश्य गंभीरतापूर्वक प्रमाणित किया जिसमें उत्पादन के साधनों का तो प्रबल विकास हुआ था किंतु उनका उपयोग सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं हो रहा था। इसमें उन्होंने सर्वहारा और मध्यमवर्ग के बीच के तीव्र विरोध, उत्पादन की अराजकता के रूप में प्रकट पूँजीवाद के अंतर्द्वंद्व, वितरण की असमता और संकटों (क्राइसिसों) प्रत्यक्ष किया है। पूँजीवाद की कब्र खोदनेवाले नए समाजवादी समाज के विधाता के श्रमिक प्रोलतरियत (सर्वहारा वर्ग) की ऐतिहासिक विश्वव्यापी भूमिका मार्क्स ने अपनी महान प्रतिभा द्वारा प्रतिष्ठित की है।
मार्क्स के अनुसार सांमती समाज के भग्नावशेष से उठा वर्तमान मध्यवर्गीय समाज वर्गवैर को मिटा नहीं पाया। उसने केवल पुराने वर्गों के स्थान पर नए वर्ग खड़े कर दिए, अत्याचार के नए अवसर, संघर्ष के नए रूप प्रस्तुत कर दिए। वर्तमान राज्यशक्ति समूचे मध्यवर्ग के संगठित कार्यों के प्रशासन के लिये मात्र समिति के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है। उपज और उसके यातायात की मध्यवर्गीय दशाओं, मध्यवर्गीय सांपत्तिक संबंध और समग्र रूप से आधुनिक मध्यवर्गीय समाज ने उपज के शक्तिमय साधनों को माया द्वारा स्वायत्त कर लिया है- ये परिस्थितियाँ उस विवश जादूगर की सी हो गई हैं जो अपने जाद से पाताल से आत्माओं को बुला लेने के बाद फिर उन्हें नियंत्रित करने में असमर्थ हो जाता है। मध्यवर्गीय समाज जैसे जैसे विकसित होता है, उसका पतन भी वैसे ही वैसे समीप आता जाता है, क्योंकि वह समाज स्वयं अनिवार्यत: आधुनिक श्रमिकों, विजयी सर्वहाराओं जैसी उन शक्तियों को जन्म देता है जो उसे तोड़कर विघटित कर देंगी।
मार्क्स अपने घोषणापत्र में निर्भीकतापूर्वक लिखते हैं: सभी पूर्ववर्ती आंदोलन अल्पसंख्यकों के आंदोलन थे। सर्वहारा आंदोलन बहुमत द्वारा बहुसंख्यकों के हित में चलाया गया स्वतंत्र आंदोलन है। अंत में वह बहुत प्रभावशाली ढंग से कहते हैं : साम्यवादी अपने विचार और लक्ष्य छिपाने से इनकार करते हैं। वे स्पष्ट घोषित करते हैं, कि उनके उद्देश्यों की सिद्धि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने से ही हो सकती है। साम्यवादी क्रांति की संभावना से शासक वर्ग काँप उठे लेकिन सर्वहाराओं को सिवा अपनी बेड़ियों के कुछ खोना नहीं। इसके विरुद्ध उन्हें एक समूची दुनियां की संप्राप्ति होगी। सारे देशों के सर्वहाराओं, मिलकर एक हो जाओ।
घोषणापत्र का एक भाग मार्क्स से भिन्न सिद्धांतों और तत्कालीन समाजवादियों में प्रचलित अन्य आंदोलनों का विवेचन कर उन्हें अमान्य सिद्ध करता है। मार्क्स में अपने वास्तविक वातावरण की संकीर्ण सीमाओं से अपने को ऊपर उठा लेने की अद्भुत क्षमता थी; गोया वह चोटी पर खड़े होकर घटित होती उस विकास की धारा को देख रहे हों जिसें अतीत वर्तमान में समाकर दूर भविष्य में उदित हो रहा है। चूँकि वह घोषणापत्र कारखानों के मजदूरों के महान् और निरंतर बढ़ते हुए आंदोलन सें संबंधित था, निस्संदेह वह विद्वत्तापूर्ण सिद्धांतों का मात्र चार्टर नहीं है। वरन् सामाजिक क्रांति के जिन अघृण्य, अकाट्य नियमों में मार्क्स विश्वास करता था, यह घोषणापत्र उन्हीं की प्रबल अभिव्यक्ति है और इसकी शैली में वह जादू है जिससे इतिहास का हृदय स्पंदित हो उठता है।
स्तालिन ने इस घोषणापत्र को मार्क्सवाद के गीतों का गीत घोषित किया था१ साम्यवाद अथवा मार्क्स के संबंध में चाहे कोई जो सोचे, नि:संदेह यह अविस्मरणीय घोषणा है, जिसने इतिहास के एक समूचे युग को अच्छा या बुरा, भरपूर प्रभावित किया है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ