"रसायन विज्ञान": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 |पृष्ठ ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
{{भारतकोश पर बने लेख}} | |||
{{लेख सूचना | {{लेख सूचना | ||
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 | |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 |
१२:१४, १३ फ़रवरी २०१५ के समय का अवतरण
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
रसायन विज्ञान
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 |
पृष्ठ संख्या | 46-58 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | पर्सी ब्राउन |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सत्यप्रकाश |
जैसे जैसे समाज का विकास हुआ, रसायन विज्ञान का विकास भी उसी के साथ हुआ। प्रकृति में पाई जानेवाली अगाध संपत्ति और उसका उपभोग कैसे किया जाए, इस आधार पर इसकी नींव पड़ी। घर, भोजन, वस्त्र, नीरोग रहने की आकांक्षा, और आगे चलकर विलास की सामग्री तैयार करने की प्रवृत्ति ने इस शास्त्र के व्यावहारिक रूप को प्ररय दिया। अथर्वांगिरस ने इस देश में काष्ठ और शिलाओं के मंथन से अग्नि उत्पन्न की। अग्नि सभ्यता और संस्कृति की केंद्र बनी। ग्रीक निवासियों की कल्पना में प्रोमीथियस पहली बार अग्नि को देवताओं से छीनकर मानव के उपयोग के लिए धरती पर लाया।
भारत में और भारत से बाहर लगभग सभी प्राचीन देशों, चीन, अरब, यूनान में भी, मनुष्य की दो चिर आकांक्षाएँ थीं : (१) किस प्रकार रोग, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाए अर्थात् संजीवनी की खोज या अमरुल की प्राप्ति हो और (२) लोहे के समान अधम धातुओं को कैसे स्वर्ण के समान मूल्यावान् धातुओं में परिणत किया जाए। मनुष्य ने देखा कि बहुत से पशु प्रकृति में प्राप्त बहुत सी जड़ी बुटियाँ खाकर अपना रोग दूर कर लेते हैं। मनुष्य ने भी अपने चारों ओर उगनेवाली वनस्पतियों की मीमांसा की और उनसे अपने रोगों का निवारण करने की पद्धति का विकास किया। महर्षि भरद्वाज के नेतृत्व में हिमालय की तजहटी में वनस्पतियों के गुणधर्म जानने के लिए आज से २,५०० वर्ष पूर्व एक महान् सम्मलेन हुआ, जिसका विवरण चरक संहिता में मिलता है। पिप्पली, पुनर्नवा, अपामार्ग आदि वनस्पतियों का उल्लेख अथर्ववेद में है। यजुर्वेद में स्वर्ण, ताम्र, लोह, त्रपु या वंग तथा सीस धातुओं की ओर संकेत है। इन धातुओं के कारण धातुकर्म विद्या का विकास लगभग सभी देशो में हुआ। धीरे धीरे इस देश में बाहर से यशद और पारद भी आया। पारद भारत में बाहर से आया और माक्षिक तथा अभ्रक इस देश में थे ही, जिससे धीरे धीरे रसशास्त्र का विकास हुआ। सुरुत के समय शल्यकर्म का विकास हुआ, और ्व्राणों के उपचार के निमित्त क्षारों का उपयोग प्रारंभ हुआ। लवणों का उपयोग चरक काल से भी पुराना है। सुरुत में कॉस्टिक, या तीक्ष्ण क्षारों, को सुधाशर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। इससे पुराना उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। मयर तुत्थ (तुतिया), कसीस, लोहकिट्ट, सौवर्चल (शोरा), टंकण (सुहागा), रसक, दरद, शिलासीत, गैरिक, और बाद को गंधक, के प्रयेग से रसशास्त्र में एक नए युग को जन्म दिया। नागार्जुन पारद-गंधक-युग का सबसे महान् रसवेत्ता है। रसरत्नाकर और रसार्णव ग्रंथ उसकी परंपरा के मुख्य ग्रंथ हैं। इस समय अनेक प्रकार की मूषाएँ, अनेक प्रकार के पातन यंत्र, स्वेदनी यंत्र, बालुकायंत्र, कोष्ठी यंत्र और पारद के अनेक संस्कारों का उपयोग प्रारंभ हो गया था। धातुओं के भस्म और उनके सत्य प्राप्त करने की अनेक विधियाँ निकाली गई और रोगोपचार में इनका प्रयेग हुआ। समस्त भोज्य सामग्री का भी बात, कफ, पित्त निवारण की दृष्टि से परीक्षण हुआ। आसव, कांजी, अम्ल, अवलेह, आदि ने रसशास्त्र में योग दिया।
भारत में वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद ने द्रव्य के गुणधर्मों की मीमांसा की। पृथवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों ने विचारधारा को इतना प्रभावित किया कि आजतक ये लोकप्रिय हैं। पंचज्ञानेद्रियों के पाँच विषय थे : गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द, और इनके क्रमश: सबंध रखनेवाले ये पाँच तत्व 'पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाश' ('क्षिति, जल, पावक गगन समीरा', तुलसीदास के शब्दों में) थे। कणाद भारतीय परमाणुवाद के जन्मदाता है। द्रव्य परमाणुओं से मिलकर बना है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु भिन्न भिन्न हैं। ये परमाणु गोल और अविभाज्य हैं। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक और फिर इनसे त्रयणुक आदि बनते हैं। पाक, या अग्नि के योग से पविर्तन हाते हैं। रासायनिक पविर्तन किस क्रम में होते हैं, इसकी विस्तृत मीमांसा कणाद दर्शन के परवर्ती आचार्यों ने की।
पंद्रहवीं-सोलहवीं शती तक यूरोप और भारत दोनों में एक ही पद्धति पर रसायन शास्त्र का विकास हुआ। सभी देशों में अलकीमिया का युग था। पर इस समय के बाद ये यूरोप में (निशेषतया इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस और इटली में) रसायन शास्त्र का अध्ययन प्रयोगों के आधार पर हुआ। प्रयोग में उत्पन्न सभी पदार्थों को तोलने की परंपरा प्रारंभ हुई। कोयला जलता है, धातुएँ भी हवा में जलती हैं। जलना क्या है, इसकी मीमांसा हुई। मालूम हुआ कि पदार्थ का हवा के एक विशेष तत्व ऑक्सीजन से संयोग करना ही जलना है। लोहे में जंग लगता है। इस क्रिया में भी लोहा ऑक्सीजन के साथ संयोग करता है। रासायनिक तुला के उपयोग ने रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन में सहायता दी। पानी के जल-अपघटन से हेनरी कैबेंडिश (Cavendish, १७३१-१८१० ई.) ने १७८१ ई. में हाइड्रोजन प्राप्त किया। जोज़ेफ ब्लैक (Black, १७२८-१७९९ ई.) ने कार्बन डाइऑक्सइड और कार्बोनेटों पर प्रयोग किए (१७५४ ई.)।
जोज़ेफ प्रीस्टलि (Priestley, १७३३-१८०४ ई.), शेले (Scheele) और लाब्बाज़्ये (Lavoisier, १७४३-१७९४ ई.) ने १७७२ ई. के लगभग ऑक्सीजन तैयार किया, राबर्ट बॉयल (Boyle, १६२७-१६९१ ई.) ने तत्वों की परिभाषा दी, जॉन डाल्टन (Dalton, १७६६-१८४४ ई.) ने परमाणुवाद की स्पष्ट कल्पना सामने रखी, आवोगाद्रो (Avogadro, १७७६-१८५६ ई.), कैनिज़ारो (Cannizzaro, १८२६-१९१० ई.) आदि ने अणु और परमाणु का भेद बताया। धीरे धीरे तत्वों की संख्या बढ़ने लगी। अनेक धातु और अधातु तत्व इस सूची में सम्मिलित किए गए। अनेक धातु और अधातु तत्व इस सूची में सम्मिलित किए गए। बिखरे हुए तत्वों का वर्गीकरण न्यूलँड्स (Newlands, १८६३ ई.), लोथरमेयर (Lothermeyer, १८३०-१९०७ ई.) और विशेषतया मेंडेलीफ (Mendeleev, १८३४-१९०७ ई.) ने किया। मेंडेलीफ ने अनेक अप्राप्त तत्वों के संबंध में भविष्यद्वाणी भी की। बाद में वे तत्व बिलकुल ठीक वैसे ही मिले, जैसा कहा गया था। डेवी (Davy, १७७८-१८२९ ई.) और फराडे (Faraday, १७९१-१८६७ ई.) ने गैसों और गैसों के द्रवीकरण पर काम किया। इस प्रकार रसायन शास्त्र का सर्वतोमुखी विकास होने लगा।
इस पचिमी रसायन के दो उपांग थे : इनॉगैनिक (अजैव पदार्थों से संबंधित) और ऑर्गेनिक (सजीव पदार्थों से संबंधित)। शर्करा, वसा, मोम, फलों में पाए जानेवाले अम्ल, प्रोटीन, रंग आदि सब सजीव रसायन के अंग थे। लोगों का विवास था कि ये पदार्थ प्रकृति स्वयं अपनी प्रयोगशाला में संलेषित नहीं हो सकते। रसायनज्ञों ने इन पदार्थों का विलेषण प्रारंभ किया। कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन, इन चार तत्वों के योग से बने हुए सहस्रों यौगिकों से रसायनज्ञों का परिचय हुआ। पता चला कि किसी यौगिक को समझने के लिए केवल इतना ही आवयक नहीं है कि इस यौथ्गक में कौन कौन से तत्व किस अनुपात में है, यह भी जानना आवयक है कि यौगिक के अणु में इन तत्वों के परमाणु किस क्रम में सज्जित है। इनका रचनाविन्यास जानना आवयक हो गया। फ्रैंकलैड (Frankland, १८२५-१८९७ ई.), ज़्हेरार (Gerhardt), लीबिख (Liebig), द्यूमा (Dumas), बर्ज़ीलियस (Berzelius) आदि रसायनज्ञों ने इन यौगिकों में पाए जानेवाले मूलकों की खोज की, जैसे मेथिल, एथिल, मेथिलीन, कार्बोक्सिल इत्यादि। इस प्रकार सजीव पदार्थों के आधार की ईटोंं का पता चल गया, जिनके रचनाविन्यास द्वारा विभिन्न यौगिकों की विद्यमानता संभव हुई। केकूले (Kekule) ने १८६५ ई. में खुली रृंखला के यौगिकों के साथ साथ बंद रृंखला के यौगिकों का भी प्रतिपादन किया (बेन्ज़ीन की संरचना)। बंद रृंखलाओं के यौगिकों ने कार्बनिक रसायन में एक नए युग का प्रवर्तन किया। नेफ्थालीन, क्विनोलीन, ऐं्थ्राासीन आदि यौगिकों में एक से अधिक वलयों का समावेश हुआ।
कार्बनिक रसायन का एक महत्वपूर्ण युग वलर (Wohler) की यूरिया-संलेषण-विधि से आरंभ होता है। १८२८ ई. में उन्होंने इनॉर्गैनिक या अजैव रसायन के ढंग की विध से अमोनियम सायनेट, (NH4CHO), बनाना चाहा। उसने देखा कि अमोनियम सायनेट ताप के भेद से अनुकूल परिस्थितियों में यूरिया (H2N. CO. NH2) में स्वत: परिणत हो जाता है (देखें यूरिया)।
अब तक यूरिया केवल जैव जगत् का सदस्य माना जाता था। वलर ने अपने इस संलेषण से यह सिद्ध कर दिया कि जैव रसायन में जिन यौगिकों का प्रतिपादन किया जाता है, उनका भी संलेषण रासायनिक विधियों से प्रयोगशालाओं में हो सकता है। इस नवीन कल्पना ने जैव रसायन को एक नया रूप दिया। जैव रसायन का जीव से संबंध न रहा। अब जैव रसायन कार्बनिक रसायन मात्र रह गया और इसलिए अजैव रसायन को हम लोग अकार्बनिक रसायन कहने लगे। वैसे तो कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों रसायनों के बीच का भेद अब सर्वथा मिट चुका है।
रसायनशास्त्र के अध्ययन का क्षेत्र बड़ा व्यापक है, नीचे दिए चित्र से इसका कुछ अनुमान हो सकता है :
रसायन विज्ञान का क्षेत्र दूसरे विज्ञानों के समन्वय से प्रति दिन विस्तृत होता जा रहा है। फलत: आज हम भौतिक एवं रसायनभौतिकी, जीव रसयन, शरीर-क्रिया-रसायन, समान्य रसायन, कृषि रसायन, आदि अनेक नवीन उपांगों के नाम भी सुनते हैं। विज्ञान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें रसायन की विशिष्ट नवीनताओं का प्रस्फुटन न हुआ हो।
द्रव्य निर्माण के मूल तत्व
संसार में इतने विभिन्न पदार्थ इतनी विभिन्न विधियों से विभिन्न परिस्थितियों में तैयार होते रहते हैं कि आचर्य होता है। जो भोजन हम ग्रहण करते हैं, वह शरीर में रुधिर, मांस, वसा, विविध ग्रंथिरस, अस्थि, मज्जा, मलमूत्र आदि में परिणत होता है। भोज्य पदार्थ वनस्पतियों के शरीर में तैयार होते हैं। भोजन के सृजन और विभाजन का चक्र निरंतर चलता रहता है। यह सब बताता है कि पकृति कितनी मितव्ययी है। रासायनिक अभिक्रियाओं का आधार द्रव्य की अविनाशिता का नियम है। रसयनज्ञ इस आस्था पर अपने रासायनिक समीकरणों का निर्माण करता है कि द्रव्य न तो बनाया जा सकता है और न इसका विध्वंस हो सकता है। द्रव्य का गुणधर्म उन अणुओं का गुणधर्म है जिनसे द्रव्य बना है। वे अणु स्वयं परमाणुओं से बने हैं। प्रकृति में सौ से ऊपर तत्व हैं। प्रत्येक तत्व के परमाणु परस्पर भिन्न हैं, पर भिन्नता भी आकस्मिक नहीं है। एक तत्व दूसरे तत्व से उत्तरोत्तर कुछ भिन्न होता जाता है। डाल्टन ने परमाणुवाद की नींव डाली। बॉयल ने तत्व की कल्पना दी। मोज़लि (Moseley) ने १९१३-१४ ई. में परमाणुसंख्या का महत्व बताया। प्रत्येक तत्व का एक क्रमांक, या परमाणुसंख्या है तथा यह परमाणुसंख्या पूर्णांक है। मेंडेलीफ की आवर्तसारणी में तत्वों का वर्गीकरण परमाणुभारों की अपेक्षा से किया गया था। मोज़लि के बाद परमाणुसंख्या का महत्व मिला और इस संख्या के हिसाब से तत्वों का आवर्त वर्गीकरण किया गया। यह नियम बड़ा महत्व पूर्ण था कि तत्वों के गुणधर्म उनकी परमाणुसंख्या के आवर्ती फलन है।
द्रव्य की अविनाशिता के नियम ने रासायनिक समीकरणों की पद्धति को जन्म दिया। वर्जीलियस (१७७९-१८४८ ई.) ने तत्वों की सकेतपद्धति को जन्म दिया। रसायनज्ञों न समीकरणों द्वारा एक नई भाषा निर्धारित की। रसायन के समीकरण रसयनविज्ञान की भाषा हैं। अणुओं के सूत्र और इन सूत्रों के आधार पर बने हुए समीकरणों द्वारा रसायनज्ञ दुरूह रासायनिक परिवर्तनों को व्यक्त करन का प्रयत्न करता है। जितना महत्वद्रव्य की अविनाशिता के इस नियम का था, उतना ही महत्व अभी ऊपर बताए गए आवर्ती नियम का भी हुआ। तत्वों और उनसे बने हुए यौगिकों के गुणधर्म आकस्मिक नहीं हैं। ये परमाणुसंख्या पर निर्भर हैं।
यह परमाणुसंख्या केवल निराधार अंक नहीं है। यह परमाणु की रचना की द्योतक है। डाल्टन का परमाणु अविभाज्य था, पर १९वीं शती के अंत में पता चला कि यह अविभाज्य नहीं है। परमाणु स्वयं मिली जुली एक सत्ता है। परमाणु के केंद्र में एक नाभिक है, जिसमें परमाणु का लगभग समस्त भार निहित है और जिसपर धनात्मक आवेश रहता है। इस नाभि के चारों ओर इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते हैं। यह चक्कर वृत्ताकार परिधियों पर लगता है। ऐसी कल्पना नील्स बोर (Bohr) ने १९१३ ई. में दी। आर्नल्ड सोमरफेल्ड (Sommerfeld, १८६८-१९५१ ई.) ने कहा कि इन परिधियों में कुछ परिधियाँ दीर्घवृत्त या अंडाकार भी हो सकती हैं। रेडिंगर (Schrodinger, जन्म १८८७ ई.) ने बताया कि परमाणु और इलेक्ट्रॉन सभी तरंगमय हैं, और उसने इनकी स्थितियों को तरंग समीकरणों द्वारा व्यक्त किया। परमाणु के नाभिक पर कितना धन आवेश है और अमुक तत्व के परमाणु में कितने इलेक्ट्रॉन हैं, यह बात तत्व की परमाणुसंख्या से व्यक्त होती है।
बीसवीं शती में परमाणु के विभाजन पर कार्य हुआ, अर्थात् परमाणु के नाभिक का विखंडन किया गया। अनेक प्रकार के सूक्ष्म खंड मिले, जिनका अध्ययन इस युग में रसायन और भौतिकी का स्वतंत्र उपांग बन गया। इस विखंडन में द्रव्य का कभी कभी लोप, या तिरोभाव देखा गया। आइंस्टाइन ने अपना प्रसिद्ध समीकरण बीसवीं शती के प्रथम दशक (१९०५ ई.) में ही दिया था : ऊर्जा (ऊ) = द्रव्य भार ´ (प्रकाश का वेग)२, अथवा ऊ=मप्र२, (म=द्रव्य भार, प्र=प्रकाश का वेग)। अत: पता चल गया कि द्रव्य का विलोप होने पर कितनी ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। आज का युग इस नाभिक ऊर्जा के उपयोग का युग हैं। इसका ध्वंसकारी रूप परमाणु बम विस्फोट में हुआ।
परमाणु नाभिकों के विखंडन से हमें निम्नलिखित खंड मिले :
- इलेक्ट्रॉन
इस पर ४.८´१०-१० स्थि.वै.मा. (e.s.u.) अर्थात् एक इकाई ऋण आवेश है। इसका भार ९.१´१०-२८ ग्राम (हाइड्रोजन परमाणु का १/१८३७) है।
- पॉज़िट्रॉन
ऐंडरसन (Anderson) ने १९३२ ई. में इसकी खोज की। इसपर एक इकाई धनात्मक आवेश है। शेष बातों में यह इलेक्ट्रॉन के समान है। हमारे विव में ये पाज़िट्रॉन (e+, या इ+) क्षणभंगुर हैं। इलेक्ट्रॉनों (e-, या इ-) से अभिक्रिया कर दोनों विलुप्त हो जाते हैं, और इनसे विद्युच्चुंबकीय विकिरण मिलते हैं।
इ++इ- (e++e-) -- विद्युच्चुंबकीय विकिरण
- प्रोटॉन
इसपर एक इकाई, अर्थात् +४.८´१०-१० स्थि.वै.मा. (e.s.u.) धन अवेश रहता है। इसका भार १.६७´१०-२० ग्राम (या १.००८१ परमाणुभार इकाई) है। यह हाइड्रोजन परमाणु का नाभिक है।
- न्यूट्रॉन
१९३२ ई. में चैडविक (Chadwick) ने इसकी खोज की। इसपर शून्य आवेश है। इसका १.००८९३ परमाणुभार इकाई है। वेरिलियम और ऐल्फा कणों के संघात से यह उत्पन्न होता है। इसकी अंत: भेदकता बहुत अधिक है।
- न्यूट्रिनो
इसका भार भी लगभग शून्य है और आवेश भी शून्य है। इसकी कल्पना पाउलि (Pauli) ने प्रस्तुत की, जिसे आधार पर उसने बीटा कणों के अव्ह्रास के कोणीय आवेग समन्वय की व्याख्या की।
- मेलॉन
१९३५ ई. में यूकावा (Yukawa) ने इनकी कल्पना प्रस्तुत की। मेसॉनों का भार इलेक्ट्रॉनों और प्रोटॉनों के बीच का है। कॉस्मिक (cosmic) या अंतरिक्ष किरणों में इनकी विद्यमानता पाई गई। मेसॉन कई प्रकार के हैं, जैसे पाई मेसॉन (p+, p-, p°) और म्यू मेसॉन (m+, m-)। धनात्मक पाई मेसॉन (p+) धन नाभिक से उतनी शीघ्र क्रिया नहीं करेगा जितना कि त्रणात्मक पाई मेसॉन (p-)। पाई मेसॉन इलेक्ट्रॉन से २८५ गुना भारी होते हैं और म्यू मेसॉन २१६ गुना।
- नाभिक रसायन का युग
इन परमाणु विखंडों द्वारा ऐसे अनेक नए तत्वों का संलेषण भी हुआ है, जो प्रकृति में पाए¢ नहीं जाते, पर जिनके अस्तित्व की संभावना हो सकती थी। संलेषित तत्व निम्न हैं (कोष्ठक में इनके परमाणुभार दिए हैं) :
टेक्नीशियम (४३) बर्केलियम (९७)
प्रोमीथियम (८५) कैलिफोर्नियम (९८)
फ्रांसियम (८७) आइंस्टाइनियम (९९)
नेप्चूनियम (९३) फर्मियम (१००)
ऐमेरिकियम (९४) मेंडेलीवियम (१०१)
क्यूरियम (९६) नोवेलियम (१०२)
मेंडेलीफ के समय में उसकी आवर्त सारणी में कुछ स्थान रिक्त थे। अब न केवल वे सब भर गए हैं, बल्कि यूरेनियम के बाद भी १० कृत्रिम तत्वों का इस सारणी में और समावेश किया गया है।
ऐस्टन (Aston) ने १९१९ ई. में समस्थानिकों (isotopes) को पृथक् कर प्राउट (Prout) की उस कल्पना का समर्थन किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रत्येक तत्व हाइड्रोजन पूर्णसंख्या होनी चाहिए। ऐस्टन के इन प्रयोगों के फलस्वरूप न केवल समस्थानिकों को पृथक् करने का ही प्रयास किया गया, बल्कि उनके गुणधर्मों का अध्ययन भी किया गया। यूरि (Urey) के प्रयोगों के फलस्वरूप साधारण हाइड्रोजन से बने हुए पानी के भीतर ही भारी हाइड्रोजन के भी अस्तित्व का पता चला (१९२९ ई.)। हाइड्रोजन के तीन समस्थानिक, जिनको क्रमश: हाइड्रोजन, ड्यूटीरियम, और ट्राइटियम (T) कहते हैं, क्रमश: १, २, और ३ परमाणुभार के हैं, पर उन सब की परमाणुसंख्या १ ही है (अर्थात् नाभिक पर एक इकाई धनात्मक आवेश हैं, 1H1, 1D2, 1T3) भारी हाइड्रोजन और भारी पानी का महत्व इस परमाणु युग में बहुत बढ़ गया है, क्योंकि इनकी सहायता से न्यूट्रॉनों की गति में सामंजस्य लाया जा सकता है। न्यूट्रॉनों की सहायता से अनेक नए समस्थानिकों का सृजन भी कृत्रिम विधियों से किया गया है। कृत्रिम रेडियेऐक्टिव आयोडीन, कार्बन१४ आदि, जिनका उपयोग चिकित्साकार्य में एवं रासायनिक अभिक्रियाओं के अध्ययन में बढ़ रहा है। कार्बन१४ की सहायता से भूवैज्ञानिक युगों की तिथियों का निर्धारण करने में सहायता मिलती हैं।
साधारण यूरेनियम-२३८ में थोडी सी मात्रा यूरेनियम-२३५ की भी मिलती है, जो यूरेनियम का ही एक समस्थानिक है। इस समस्थानिक का उपयोग परमाणु बम में किया गया। न्यूट्रॉनों के सघात से यह समस्थानिक बेरिय-१३९ और क्रिप्टॉन-९४ में विखंडित हुआ, कुछ न्यूट्रॉन नाभिक में से बाहर निकले और कुछ द्रव्य का लोप हुआ, जिसकी ऊर्जा बनी।
एक एक विखंडन क्रिया में १८०-२०० मिली इलेक्ट्रॉन वोल्ट, अर्थात् (१.८-२.०)´१०८ इलेक्ट्रॉन बोल्टा, ऊर्जा प्राप्त होती है। साधारण यूरेनिय में से यूरेनियम-२३५ का पृथक् करना सरल कार्य न था, पर अतुल संपत्ति का व्यय करके द्वितीय महायुद्ध के समय यह रमसाध्य कार्य भी सफलतापूर्वक संपन्न किया गया।
नाभिकों के विखंडन का कार्य जितने महत्व का है, नाभिकों के सघनन का कार्य उससे कम नहीं है। हल्के तत्वों के परमाणु परस्पर संयुक्त होकर कुछ भारी तत्व भी दे सकते हैं। इन प्रक्रियाओं को संलयन प्रक्रिया, या संघनन प्रक्रिया कहते हैं। इन प्रक्रियाओं के लिए लाखों, करोड़ों डिगरी ताप की आवयता होती है, पर एक बार प्रक्रिया का आरंभ होने पर प्रक्रिया में स्वत: उच्च ताप की ऊष्मा प्राप्त होने लगती है। इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण सूर्य ऊष्मा का भंडार है। कार्बन द्वारा उत्प्रेरित होकर सूर्य में हाइड्रोजन से हीलियम बनता रहता है।
जिन हाइड्रोजन बमों के आतंक की इस युग में इतनी चर्चा है, वह भी लगभग इसी प्रकार की नाभिक संघनन या नाभिक संलयन प्रक्रियाओं द्वारा बनते हैं, जिनमें भारी हाइड्रोजन, १हा२, (1H2) के नाभिक भाग लेते हैं। हाइड्रोजन बम परमाणु विखंडन से प्राप्त बमों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रबल और ध्वंसकारी हैं।
अकार्बनिक, या सामान्य रसायन
कार्बन का छोड़कर शेष सभी तत्वों और उनके योगिकों की मीमांसा करना अकार्बनिक रसायन का क्षेत्र है। बोरॉन, सिलिकन, जर्मेनियम आदि तत्व भी लगभग उसी प्रकार के विविध यौगिक बनाते हैं, जैसे कार्बन। पर इस पार्थिव सृष्टि में उनका उतना महत्व नहीं है जितना कार्बन यौगिकों का, इसलिए कार्बनिक रसायन का अन्य तत्वों से पृथक् रासायनिक क्षेत्र मान लिया गया है। मनुष्य एवं वनस्पतियों का जीवन कार्बन यौगिकों के चक्र पर निर्भर है, अत: कार्बनिक यौगिकों को एक अलग उपांग में रखना कुछ अनुचित नहीं है। यह कार्बन ही है जो पृथ्वी पर पाए जानेवाले सामान्य ताप (०° से ४०°) पर अनेक स्थायी समावयवी यौगिक दे सकता है।
अकार्बनिक रसायन में जिन तत्वों का उल्लेख है, उनमें से कुछ धातु हैं, और कुछ अधातु। अधातु तत्वों में कुछ मुख्य ये हैं :
- गैस
हाइड्रोजन, हीलियम, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, फ्लुओरीन निऑन, क्लोरीन, आर्गन, क्रिप्टॉन, तथा ज़ीनॉन।
- ठोस
बोरॉन, कार्बन, सिलिकन, फास्फोरस, गंधक, जर्मेनियम, आर्सेनिक, मोलिब्डेनम, टेल्यूरियम तथा आयोडीन।
- द्रव
ब्रोमीन
धातुओं में केवल पारद ऐसा है जो साधारण ताप पर द्रव है। प्राचीन ज्ञात धातुएँ सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, वंग या राँगा, सीसा, जस्ता और पारा हैं। लगभग सभी सभ्य देशों का इन धातुओं से पुराना परिचय है। सोना और चाँदी स्वतंत्र रूप में प्रकृति में पाए जाते हैं। शेष धातुएँ प्रकृति में सल्फाइड, सल्फेट, या ऑक्साइड के रूप में मिलती हैं। इनसे शुद्ध धातुएँ प्राप्त करना सरल था। धातुओं के उन यौगिकों को जिनमें से धातुएँ आसानी से अलग की जा सकती थीं, हम अयस्क कहेंगे। इन अयस्कों को बहुधा कोयले के साथ तपा लेने पर ही धातु शुद्ध रूप में मुक्त हो जाती है (देखें ताँबा, लोहा)।
फैराडे और डेवी के समय से विद्युत्धारा का उपयोग बढ़ा, और जैसे जैसे डायनेमो की बिजली अधिक सस्ती प्राप्त होने लगी, उसका उपयोग विद्युद्विलेषण में बढ़ने लगा। उसकी सहायता से लवणों में से (उनके विलयनों के विद्युद्विलेषण से अथवा ऊँचे ताप पर गलित लवणों के विद्युद्विलेषण से) अनेक धातुएँ पृथक् की जा सकीं। ताँबे का एक यौगिक तूतिया (कॉपर सल्फेट) है। पानी में बने इसे विलयन में से विद्युत् धारा द्वारा ताँबा पृथक् किया जा सकता है। विद्युत्धारा के प्रयोग से मैग्नीशियम, सोडियम, लिथियम, पोटैशियम, कैल्सियम, बेरियम आदि धातुएँ, उनके लवण को गलाकर, पृथक् की गई।
अकार्बनिक रसायन के प्रारंभिक युग में धातुओं के जिन यौगिकों को बनाने का विशेष प्रयास किया जाता था, वे ये थे : ऑक्साइड, हाइड्रॉक्साइड, फ्लुओराइड, क्लोराइड, ब्रोमाइड, आयोडाइड, सल्फाइड, सल्फाइट, सल्फेट, थायोसल्फेट, ऐसीटेट, ऑक्सलेट, नाइट्राइड, नाइट्रेट, सावनाइड, कार्बाइड, कार्बोनेट, बाइकार्बोनेट, फॉस्फेट, आर्सिनेट, टंग्स्टेट, मालिब्डेट, यूरेनेट। इन यौगिकों का तैयार करना साधारणतया सरल है। ऑक्साइड या कार्बोनेटों पर उपयुक्त अम्लों की अभिक्रिया से वे बनाए जा सकते हैं। विलेय लवणों के विलयनों में ऋण आयन (ऐनायन) मिलाकर इनमें से कुछ के अवक्षेप लाए जा सकते हैं, यदि ये अवक्षेप्य लवण पानी में अविलेय हों।
अकार्बनिक रसायन की अनेक अभिक्रियाएँ चार वर्गो में विभाजित की जाती हैं : (१) शिथिलीकरण या उदासीनीकरण अभिक्रिया, (२) अवक्षेपण अभिक्रिया, (३) अपचयन या अवकरण अभिक्रिया और (४) उपचयन या ऑक्सीकरण अभिक्रिया। अंतिम दो का एक संयुक्त नाम अपचयोपचय या रिडॉक्स (redox) अभिक्रिया भी दिया गया है।
संकुल, या संकीर्ण लवण
कभी कभ ऐसा देखा जाता है कि अवक्षेपक की अधिक मात्रा छोड़ने पर अवक्षेप घुल जाता है। यह विलेय वस्तुत: संकुल आयन बनने के कारण होता है। रजत नाइट्रेट के विलयन में पोटैशियम साइआनाइड का विलयन छोड़ने पर रजत साइआनाइड का अवक्षेप आता है, पर यह अवक्षेप पोटैशियम साइआनाइड और मिलाने पर घुल जाता है।
ताम्र सल्फेट के विलयन में अमोनिया छोड़ने पर पहले तो ताम्र हाइड्रॉक्साइड का अवक्षेप आवेगा, जो अमोनिया के अधिक्य में घुलकर चटक नीला विलयन देगा। इसमें [ता (ना हा३)४]++ [Cu (N H3)4]++ संकुल आयन बनता है।
कीलेट, या प्रखर यौगिक
बहुत से धात्विक आयन कार्बनिक अभिकर्मकों के साथ विचित्र यौगिक बनाते हैं, जिनमें संयोजकताएँ नखर, या चील के पंजों, के समान अणुओं को थामे रहती हैं। इन्हें कीलेट (Chelate) या नखर यौगिक कहते हैं।
अकार्बनिक पदार्थों के औद्योगिक उपयोग
कुछ अकार्बनिक यौगिक इतनी अधिक व्यापारिक मात्रा में तैयार किए जाते हैं कि इनका नाम 'हैवी केमिकल्स' पड़ गया है। सलफ्यूरिक अम्ल, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, नाइट्रिक अम्ल, कॉस्टिक सोडा, सोडियम कार्बोनेट, अमोनियम लवण आदि की गिनती इस वर्ग में है। प्रत्येक वर्ष एक करोड़ टन गंधक सलफ्यूरिक अम्ल के रूप में, ३० लाख टन नाइट्रोजन अमोनिया और नाइट्रिक अम्ल के रूप में, और २० लाख टन क्लोरीन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, ब्लीचिंग पाउडर (विरंजन चूर्ण) और क्लोरीन के रूप में व्यवसाय में खर्च होता है।
हवा के नाइट्रोजन का उपयोग नाइट्रोजन यौगिकों के बनाने में होता है। नाइट्रोजन को ऑक्सीजन के साथ संयुक्त कराके नाइट्रिक ऑक्साइड बनाते हैं, पर अमोनिया के आक्सीकरण द्वारा नाइट्रिक ऑक्साइड बनाना अच्छी विधि है। ऑस्टवाल्ड (Ostwald) ने यह बताया कि प्लैटिनम जाली के पृष्ठ पर, ८००° पर अमोनिया का ऑक्सीकरण होता है। इस नाइट्रिक ऑक्साइड से नाइट्रोजन परॉक्साइड और नाइट्रिक अम्ल एवं नाइट्रेट तैयार कर लेते हैं। यह सफल व्यावसायिक विधि है।
हावर (Haber) ने हवा के नाइट्रोजन से अमोनिया तैयार करने की व्यापारिक विधि १९१३ ई में प्रथ यूरोपीय महायुद्ध के समय निकाली। २५० वायुमंडल दाब पर और ५००°-५५०° ताप पर लाह धातु से उत्प्रेरित होकर, लगभग १०% अभिक्रिया नाइट्रोजन और हाइड्रोजन के संयोग की होती है। अब तो लगभग सभी देशों में अमोनिया और अमोनिया लवण इस विधि से तैयार किए जाते हैं, जिनका विशेष उपयोग खाद के रूप में होता है। नाइट्रोजन का व्यावसायिक उपयोग विस्फोटकों में भी होता है।
सलफ्यूरिक अम्ल का व्यवसाय संसार के प्रमुखतम व्यवसायों में माना जाता है (देखें सलफ्यूरिक अम्ल)।
सलफ्यूरिक आदि अम्लों के समान ही क्षारों के निर्माण की भी उपयोगिता है (देखें चूना और क्षार निर्माण)।
अकार्बनिक व्यवसायों में विरंजक चूर्ण का व्यवसाय भी बड़े महत्व का है (देखें विरंजक चूर्ण)।
सिलिकेटों का उपयोग अब बढ़ता जा रहा है। काच का व्यवसाय तो प्रसिद्ध ही है (देखें काच)। सिलिकन और कार्बनिक यौगिकों से बने कुछ यौगिकों का नाम सिलिकोन है। ये मोम से मिलकर बहुत अच्छा स्नेहक (lubricant) और पॉलिश बनाते हैं। ये सूत के धागों को अच्छी चमक देते हैं। इनसे बने रेज़िन विद्युत् अवरोधक होते हैं। सिलिकोन से रबर के समान लचीले पदार्थ भी बनते हैं। अभ्रक नामक प्राकृतिक सिलिकेट अपने विविध गुणों के लिए प्रसिद्ध है।
कार्बनिक रसायन
संयोजकताएँ (जिनके द्वारा अणु में परमाणु एक दूसरे के साथ संबद्ध होते हैं) दो प्रकार की होती हैं : वैद्युत् संयोजकता (electrovalency) और सहसंयोजकता (covalency)। अकार्बनिक लवणों में अणु में परमाणु, या मूलक, बहुधा विद्युत् संयोजकता द्वारा संबद्ध रहते हैं और ये अणु न केवल विलयनों में ही आयनों में विभक्त हो जाते हैं, बल्कि ठोस क्रिस्टलों में भी इनके आयन विशेष स्थिति में विद्यमान् रहते हैं।
कार्बन परमाणु की बाह्यतम परिधि पर चार इलेक्ट्रॉन (.) हैं। यह अपने चारों ओर चार और इलेक्ट्रॉन लेकर अपना अष्टक पूरा कर सकता है। एक कार्बन परमाणु इस प्रकार चार हाइड्रोजनों से भी संयुक्त हो सकता है, या क्लोरीन के चार परमाणुओं से। यह संयोजन विद्युत् संयोजन से भिन्न है। न तो कार्बन टेट्राक्लोराइड विलयनों में विभाजित होकर क्लोराइड आयन देता है और मेथेन विभाजित होकर हाइड्रोजन आयन। दो दो इलेक्ट्रॉनों के भागीदार बनने पर एक एक बंध बनता है। अत: कार्बन की सहसंयोजकता ४ है। कई कार्बन परमाणु भी सहसंयोजकताओं द्वारा आपस में उत्तरोत्तर क्रम से संयुक्त हो सकते हैं। इसी प्रकार साइक्लोपेंटेन, का५हा१० (C5H10), में ५ कार्बनों का बंद वलय, और साइक्लोहेक्सेन, का६हा१२ (C6H12), में ६ कार्बनों का बंद वलय है।
कभी कभी अणुओं में असंतृप्त संयोजकताएँ होती हैं। यदि दो कार्बन परमाणुओं के बीच में ४ इलेक्ट्रॉनों की भागीदारी हो, तो कहा जाएगा कि इनके बीच में एक द्विबंध है, और ६ इलेक्ट्रॉनों की भागीदारी हो तो कहेंगे कि इनके बीच में त्रिबंध हैं।
एकबंध (:) द्विबंध (::) की अपेक्षा और द्विबंध त्रिबंध (:::) की अपेक्षा अधिक प्रबल है। जिन यौगिकों में द्विबंध हैं, वे अधिक अस्थायी और अधिक असंतृप्त हैं।
बेन्ज़ीन, का६हा६ (C6H6), बाद वलय का एक यौगिक है। इसमें तीन द्विबंध भी माने जा सकते हैं, पर यह विशेष रूप से स्थायी है। इसके प्रत्येक दो कार्बनों के बीच का एक बंध अनुनादी माना जाता है, जिसके कारण बेन्ज़ीन वलय को विशेष स्थायित्व प्राप्त होता है (देखें वेन्ज़ीन)।
इस प्रकार के अनुनादी गुणों के कारण ऐरोमैटिक नाभिक (जैसा बेन्ज़ीन में है) ऐलिफैटिक की अपेक्षा भिन्न समझे जाते हैं। कार्बनिक यौगिकों की विशेषता उनकी विस्तृत समावयता के कारण है। एक ही अणु के विभिन्न गुणवाले अनेक यौगिक होते हैं। साइक्लोप्रोपेन और प्रोपिलीन दोनों का एक ही अणु सूत्र का३हा६ (C3H6) है।
दिग्विन्यास समावयता के कारण् भी कार्बनिक यौगिकों में बहुत भिन्नता पाई जाती है। मलेइक अम्ल (सिस रूप) और फूमैरिक अम्ल (ट्रान्स रूप) में इसी कारण अंतर है। दोनों अम्लां के भौतिक और रासायनिक गुणों में अंतर है (देखें फूलैरिक और मलेइक अम्ल)।
लैक्टिक अम्ल, कहा३. काहाऔहा. काऔऔहा (CH3. CH. OH. COOH) में एक असममित कार्बन परमाणु है। जिस कार्बन की चार संयोजकताओं से भिन्न भिन्न मूलक संयुक्त हों, वह असममित कार्बन कहलाता है। जिन अणुओं में इस प्रकार के असममित कार्बन होंगे, वे विलयनों और क्रिस्टनों में प्रकाश-घूर्णन प्रदर्शित करते हैं। इनके अणु दक्षिण-भ्रामी (द-) और वामी भ्रामी (वा-) और निष्क्रिय तीनों रूपों में पाए जा सकते हैं। ८ ऐल्डोपेंटोस और १६ ऐल्डो-हेक्से की कल्पना ही प्रस्तुत नहीं की, उन्हें पृथक् करके उनका रचना विन्यास भी स्पष्ट कर दिया। ८ पेंटोस ये हैं : लिक्सोस, ज़ाइलो, ऐरेबिनोस और रिबोस और इन चारों के दक्षिणभ्रामी और वामभ्रामी दो दो रूप।
ऐल्डोहेक्सोस में ४ असममित कार्बन हैं। अत: ये १६ प्रकार के होंगे। आठ दक्षिणभ्रामी और आठ वामभ्रामी (देखें कार्बोहाइड्रेट)।
अणुओं की रचना तीनों विमाओं में प्रसारित हैं, न केवल दो विमाओं के धरातल में। इन संरचनाओं में अनेक प्रकार की समावयवताएँ संभव हैं और कार्बनिक रसायन के अध्ययन में इन सबका महत्व है।
कार्बन और आइड्रोजन के यौगिको को हाइड्रोकार्बन कहते हैं। मेथेन (CH4) सबसे छोटे अणुसूत्र का हाइड्रोकार्बन है। ईथेन (C2H6), प्रोपेन (C3H8) आदि इसके बाद के हैं, जिनमें क्रमश: एक एक कार्बन जुड़ता जाता है। हाइड्रोकार्बन तीन रेणियों के हैं: ईथेन रेणी, एथिलीन रेणी और ऐसीटिलीन रेणी। ईथेन रेणी के हाइड्रोकार्बन संतृप्त हैं, अर्थात् इनमें हाइड्रोजन की मात्रा और बढ़ाई नहीं जा सकती। एथिलीन में दो कार्बनों के बीच में ए द्विबंध (=) है, ऐसीटिलीन में त्रिगुण बंध (===) वाले यौगिक अस्थायी हैं। ये आसानी से ऑक्सीकृत एवं हैलोजनीकृत हो सकते हैं। हाइड्रोकार्बनों के बहुत से व्युत्पन्न तैयार किए जा सकते हैं, जिनके विविध उपयेग हैं। ऐसे व्युत्पन्न क्लोराइड, ब्रोमाइड, आयोडाइड, ऐल्कोहाल, सोडियम ऐल्कॉक्साइड, ऐमिन, मरकैप्टन, नाइट्रेट, नाइट्राइट, नाइट्राइट, हाइड्रोजन फास्फेट तथा हाइड्रोजन सल्फेट हैं। असतृप्त हाइड्रोकार्बन अधिक सक्रिय होता है और अनेक अभिकारकों से संयुक्त हा सरलता से व्युत्पन्न बनाता है। ऐसे अनेक व्युत्पंन औद्योगिक दृष्टि से बड़े महत्व के सिद्ध हुए हैं। इनसे अनेक बहुमूल्य विलायक, प्लास्टिक, कृमिनाशक ओषधियाँ आदि प्राप्त हुई हैं। हाइड्रोकार्बनों के ऑक्सीकरण से ऐल्कोहॉल ईथर, कीटोन, ऐल्डीहाइड, वसा अम्ल, एस्टर आदि प्राप्त होते हैं। ऐल्कोहॉल प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक हो सकते हैं। इनके एस्टर द्रव सुगंधित होते हैं। अनेक सुगंधित द्रव्य इनसे तैयार हो सकते हैं।
काष्ठ का भंजक आसवन
लकड़ी या काष्ठ में दो पदार्थ मुख्यतया होते हैं, सेलुलोस और लिगनिन। सेलुलोस का सधारण सूत्र (का६हा१०औ५)च [(C6H10O5)n] है। च (n) का मान इस सूत्र में ३,००० तक हो सता है। इस प्रकार सेलुलोस के अणु बड़े लंबे आकार के होते हैं और सेलुलोस के धागे बन सकते हैं। लिगनिन प्लास्टिक बंधक का काम करता है। इसकी रचना अज्ञात है। इसमें बेन्ज़ीन वलय, मेथॉक्सि मूलक, -औकाहा३ (-OCH3), पार्व रृंखलाएँ हैं। लकड़ी को ३८०° तक गरम करें तो इसमें से काफ़ी मात्रा में एक द्रव निकलता है, जिसमें ऐसीटिक अम्ल, मेथिल ऐल्कोहॉल, ऐसीटोन आदि पदार्थ होते हैं। ये पदार्थ सेल्यूलोस और लिगनिन के विभान से बनते हैं (देखें काठ कोयला)। काष्ठ के भंजक आसवन से निम्न यौगिक पृथक् किए जा सकते हैं : फॉर्मिक अम्ल, कई वसा अम्ल, असंतृप्त अम्ल, ऐसेटैल्डिहाइड, सेलिल ऐल्कोहॉल, मेथिल एथिल कीटोन, फरफरॉल, मेथिलाल, डाइमेथिल ऐसीटॉल, बेन्ज़ीन, ज़ाइलीन, क्यूमीन, सायमीन, फीनोल आदि। ऐसीटिक अम्ल, मेथिल एल्कोहॉल और ऐसीटोन, ये तीन पदार्थ पाइरोलिग्निअस अम्ल से विशेष रूप से प्राप्त किए जाते हैं।
पाइरोलिग्निअस अम्ल से प्राप्त मेथिल ऐल्कोहॉल के आक्सीकरण से फॉर्मेल्डिहाइड बनता है, जिसका आविष्कारक हॉफमन था (१८६७ ई.)। फार्मेल्डिहाइड व्यापारिक मात्रा में तेयार करने की विध पर्किन ने निकाली और इस पदार्थ की उपयोगिता का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।
ऐल्कोहलीय किण्वन
सुरा, आसव, मद्य, मैरेय आदि मादक पदार्थों को किण्वन विधि से तैयार करने की प्रथा बहुत पुरानी है और अच्छी सुराओं के लिए विशेष बीज-किण्व तैयार किए जाते थे, जिनकी उपस्थिति में यव, महुआ, गुड़, अंगूर के रस आदि से शराबें तैयार होती थीं। इन किण्वों के जो शराब बनाने वाले प्रेरकाणु होते हैं, उन्हें साधारण भाषा में यीस्ट कहा जाता है (देखे किण्वन और थीस्ट)।
कोयला, अलकतरा और उससे प्राप्त पदार्थ - देखें कोयला, अलकतरा, वेन्ज़ीन, नैफ्थेथलीन।
ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बनों के व्युत्पन्न
बेन्जीन के क्लोरिनेशन से क्लोरो व्युत्पंन, ब्रोमीनेशन से ब्रोमो व्युत्पंन, नाइट्रेशन से मोनोनाइट्रेट, डाइनाइट्रेट और ट्राइनाइट्रो व्युत्पन्न तथा सल्फोनीकरण से सल्फोनिक अम्ल व्युत्पंन प्राप्त होते हैं। फिर इनसे ऐनिलीन, फिनोल, ऐल्डिहाइड, कार्बोक्सिलिक अम्ल, सैलिसिलिक अम्ल, सैलोल, ऐस्पिरिन इत्यादि अनेक बड़े उपयोगी पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं।
एक और प्रसिद्ध यौगिक सोडियम ऐमिनोसैलिसिलेट (PAS) है, जिसका उपयोग स्ट्रेप्टोमाइसीन के साथ राजयक्ष्मा के उपचार में करते हैं।
बेन्ज़ीन वलय में एक से अधिक हाइड्रॉक्सिमूलक भी संस्थापित किए जा सकते हैं और इस प्रकार डाइहाइड्रिक, ट्राइहाइड्रिक फीनोलें तैयार की जा सकती हैं।
कैटिकोल कत्थे में होता है। आलू, सेब और बहुत सी तरकारियों चाकू से काटने पर काली पड़ जाती हैं। इन सब में कुछ कैटिकोल की मात्रा होती है, जो हवा के संपर्क में आक्सीकृत और बहुलीकृत होकर याम वर्ण के यौगिक देता है।
ऐल्केलॉइड
पौधों में से प्राप्त क्षारीय प्रवृत्ति के यौगिकों को पहले तो ऐल्केलॉइड कहा जाता था। अब उन सब पदार्थों को हम ऐल्केलाइड कहेंगे जिनकी प्रवृत्ति क्षारीय हो, जो वनस्पतिजगत् से उपलब्ध किए गए हों और जिनमें कम से कम एक नाइट्रोजन वाला विषमचक्रीय वलय हो। क्विनीन, मॉर्फीन, सिंकोनीन आदि ओषधियाँ ऐल्केलॉइड के उदाहरण हैं (देखें ऐलकालॉयड)।
प्रोटीन, पालिपेप्टाइड और एमिनो अम्ल
वानस्पतिक और जंतव जगत् से प्राप्त ये उपयोगी पदार्थ हैं और भोजन के परम आवयक अंग हैं। प्रोटीनों के जल अपघटन से ऐमिनों अम्ल मिलते हैं। कई ऐमिनों अम्ल मिलकर पोलिपेप्टाइड (बहु पेप्टाइड) बनाते हैं (देखें प्रोटीन)।
डाइऐज़ो यौगिक और ऐज़ो रंजक
१८५८ ई. में पीटर ग्रीस (Peter Griess) ने यह देखा कि ऐरोमैटिक ऐमिनो नाइट्रस अम्ल का प्रभाव उससे भिन्न है जो ऐलिफैटिक ऐमिनो पर साधारणतया देखा जाता है। उसने देखा कि ऐनिलीन नाइट्रस अम्ल (अथवा सोडियम नाइट्राइट और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल) से क्रिया करके एक नवीन यौगिक देता है, जिसका नाम वेन्ज़ीन डाइऐज़ोनियम क्लोराइड है। [देखें डायज़ोयौगिक तथा ऐज़ोयौगिक रंजक (कृत्रिम)]।
संलेषित औषिधियाँ
कार्बनिक रसायन के क्षेत्र में संलेषित यौगिकों का बड़ा सफल प्रयोग औषधियों के रूप में हुआ। वृक्ष और वनस्पतियों से प्राप्त ओषधियाँ वस्तुत: कार्बनिक ही हैं। इन औषधियों के सक्रिय अवयवों की रसायनज्ञों ने परीक्षा की। इनकी रासायनिक संरचना जानने के अनंतर उन्होंने इनका संलेषण किया और फिर इनके व्युत्पन्नों की ओषधि की दृष्टि से परीक्षा की। हम केवल कुछ ऐतिहासिक संलेषणों का यहाँ उल्लेख करेंगे।
- (क) पूतिनाशक
१८६७ ई. में लिस्टर (Lister) ने फीनोल में पेतिनाशक, या रागाणुनाशक, गुण देखे। शौचालयों में 'फिनायल' का, जिसमें कोलतार से प्राप्त अवयवों का मिरण है, जैसे क्रिसोल, क्रेसिलिक अम्ल, क्रिओसोट, क्लोरोज़ाइलीनोल इत्यादि, आज तक उपयोग किया जाता है। डेटोल (Dettol) में, जिसका इतना प्रचार है, क्लोरोजाइलीनोल, टर्पिनिओल, एल्कोहॉल, और थोड़ा अंडी के तेल का सबुन है। डी सी एम एक्स (DCMX) नाम से डाइक्लोरो-ज़ाइलीनोल का उपयोग १९५२ ई. से बहुत होने लगा है। कुछ रंगों का उपयोग भी चिकित्सा में पूतिनाशकों के रूप में होता है, जैसे जेनशियम वॉयलेट (क्रिस्टल वायलेट), ब्रिलिएंट ग्रीन, मेलेकाइट ग्रीन आदि, जो ट्राइफीनिल मेथेन वर्ग के रंग हैं।
काष्ठ, सेलुलोस आदि से बने पदार्थों को यदि कीटाणुओं ओर कर्फूदियों स बचाना हे, तो सैलिसित ऐनिलाइड [व्यापारिक नाम शिरलान (Shirlan)] का उपयोग करों, अथवा धातु साबुनों का उपयोग करें, जैसे जिंग नैफ्थीनेट और पारद के यौगिक, पेंटाक्लोराफ़ीनोल, डाइक्लोरोफीन [डी डी डी एम (DDDM) या डी डी एम (DDM): डाइहाइड्रॉक्सि डाइक्लोरो-डाइफेनिल मीथेन] आदि
- (ख) सामान्य और स्थानिक निचेतक, या मूर्च्छोत्पादी
ईथर नामक द्रव का निचेतक के रूप में पहली बार प्रयोग हुआ और इसने प्रसव और शल्यकर्म दोनों में बड़ी सहायता दी। ईथर का क्वथनांक कम, अर्थात् ३५°सें. है। यह इसका अवगुण हैं। १९५३ ई. में ट्राइफ्लोरो एथिल विनिल ईथर, काफ्लो३. काहा२. औकाहा=काहा२ (CF3. CH2. OCH=CH2), को ईथर से कहीं अधिक रेष्ठ पाया गया। क्लोरोफ़ार्म, काहाक्लो३ (CHCl3), एथिलक्लोराइड (CH3CH2Cl) और साइक्लोप्रोपेन, (काहा२)३ [(CH2)3], तो प्रसिद्ध है ही।
सामानय निचेतना या मूर्च्छा पैदा करने की अपेक्षा स्थानिक निचेतना साधारण शल्यकर्म में बड़ी उपयोगी हैं। १८८४ ई. में कोलर (Koller) और फ्रॉयड (Freud) ने कोकेन का इस दृष्टि से प्रयोग किया। यह देखा गया कि पेराऐमिनो बेन्ज़ोइक अम्ल के व्युत्पन्न अच्छे स्थानिक निचेतक हैं। वेन्ज़ोकेन, ओकेन (नोवोकेन), एमीथोकेन आदि इसी वर्ग के यौगिक हैं।
- (ग) निद्राकारी
रोगी को अधिक कष्ट के समय निद्राकारियों का सेवन कराया जाता है, जिससे रोगी सो जाए। क्लोरलहाइड्रेट, [CCl3. CH(OH)2], का उपयोग इस कार्य में सबसे पुराना है। क्लोरोक्यूटोल [(CH3)2 C
(CCl3) OH.] के गुण भी क्लोरल हाइड्रेट के समान ही हैं। सबसे प्रसिद्ध निद्राकारी बार्विट्यूरिक अम्ल के व्युत्पंन हैं (यह अम्ल यूरिया और मैलोनिक अम्ल के संघनन से बनाया जाता है)।
इसका द्वि ऐमिल व्युत्पंन वार्विटोन नाम से विख्यात है और एथिल फेनिल व्युत्पन्न फीनोवार्विटोन (ल्यूमिनाल) नाम से। कोडीन, मॉर्फीन आदि ऐल्कैलायड भी निद्राकारी हैं, जो अफीम से निकाले जाते हैं। मॉर्फीन से पीड़ा की अनुभूति कम हो जाती है और कोडोन शमनकारी है।
- (घ) तंत्रोत्तेजक
स्नायुओं और मस्तिष्क की तंत्रिकाओं को उत्तेजन देनेवाली चीजों में चाय, काफी आदि प्रसिद्ध हैं। इनमें कैफीन, ज़ैन्थीन और इनसे मिलते जुलते प्यूरीन (Purine) वर्ग के यौगिक पाए जाते हैं। कोला के बीजों में कैफीन और थिओब्रोमीन होता है। एरगोट (Ergot) वर्ग के ऐल्कैलायडों में पेशियों को उत्तेजित करने का गुण है। ये ऐल्कैलॉइड लिसर्गिक अम्ल (lysergic acid) के व्युत्पन्न हैं। यह अम्ल अब संलेषित कर लिया गया है। मस्तिष्क के विकारों के उपचार में इससे सहायता मिलती है।
- (ङ) ज्वरनाशी और वेदनानाशी
ज्वर से ग्रस्त रोगी के शरीर का ताप जिन ओषधियों से कम हो जाए (ज्वर का कारण चाहे दूर न हो), वे इस वर्ग में आती हैं। कुछ ओषधियाँ केवल वेदना दूर करती हैं। सैलिसिलिक अम्ल, ज्वरहारियों में, सबसे पुराना है। इसका एक ऐसीटिल व्युत्पन्न ऐस्पिरिन है, जो शिर पीड़ा की अनुभूति दूर करने में बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। फिनैसीटिन में ज्वर के ताप को कम कर देने के अच्छे गुण हैं। फिनैसिटीन ऐसीटो ऐनिलाइड का व्युत्पन्न है।
- (च) सल्फोनैमाइड और सल्फोन
१९३० ई. में यह देखा गया कि प्रोंटोसिल (prontosil) नामक लाल रंग में शाकाणु या वैक्टीरिया के मारने के गुण विद्यमान हैं। बाद को देखा गया कि एक सरल यौगिक सल्फऐनिलैमाइड में भी वैक्टीरिया मारने के गुण हैं। तब से इस वर्ग के सैकड़ों यौगिकों और व्युत्पन्नों की इस दृष्टि से परीक्षा की गई। ये सब यौगिक सल्फोनैमाइड वर्ग के कहे जाते हैं।
एफीड्रिन (ephedrine), का६हा५काहा(औहा) -काहा (नाहा काहा३) [C6H5. CH(OH). CH(NHCH3). CH3], और ऐड्रिनैलिन (adrenaline), (औहा)२का६हा४-काहा (औहा) काहा२.नाहा.काहा३ [(OH)2 C6H4-CH (OH) CH2. NH. CH3], का उपयोग भी तंत्रोत्तेजना के सल्फा पिरिडिन, एम ऐंड बी ६९३ (M & B 693) नाम से विख्यात है। पिरिमिडिन व्युत्पन्न भी (जैसे सल्फडाइऐज़ीन) बड़े गुणकारी सिद्ध हुए हैं।
- (छ) मलेरियानाशी
कुछ ओषधियाँ मलेरिया ज्वर दूर करने में बड़ी गुणकारी सिद्ध हुई हैं। सिनकोना की छाल से प्राप्त क्विनीन का नाम तो विख्यात है ही, इसका प्रचार अब भी बहुत है। १९२० ई से इस बात का प्रयत्न जर्मनी में होता रहा कि मलेरिया ज्वर को दूर करने की और भी ओषधियाँ प्राप्त की जाएँ। फलत: पेमाक्विन नामक यौगिक इस बात में सफल पाया गया (१९२४ ई.)। यह प्रथम संलेषित मलेरियानाशी था। १९३० ई. में एट्रीबिन (मेपाकिन और क्विनाक्रिन) भी अच्छे पाए गए। पेमाक्विन क्विनोलिन वर्ग का यौगिक है और मेपाक्रिन पीला एक्रिडिन रंग है।
गत महायुद्ध में ज़िन मलेरियानाशियों पर अमरीका में विशेष अनुसंधान हुए, उनमें प्रिमाक्विन और क्लोरोक्विन विशेष महत्व के पाए गए। पैलूड्रिन (Paludrine) प्रोग्वानिल हाइड्रोक्लोराइड का व्यापारी नाम है, यह भी मलेरिया रोग में काम आता है।
- (ज) ऐंटिबायोटिक
१९२८ ई. में सर ऐलेग्जेंडर फ्लेमिंग (A.Fleming) ने देखा कि कुछ वैक्टीरिया विशेष फफूँदियों की विद्यमानता में मरने लगते हैं। इसी परंपरा में पेनिसिलिन का आविष्कार हुआ। १९४६ ई. में पेनिसिलिन के बेन्ज़िल व्युत्पंन (पेनिसिलिन-g) का संलेषण भी कर लिया गया। इसकी रासायनिक संरचना निम्न है:
पेनिसिलिन की सामान्य संरचना पेनिसिलिन जी में, रा=का६ हा५ काहा२ (R=C6H5 CH2), बेन्जिल मूलक है। दूसरे मूलक भी प्रतिस्थापित किए जा सकते हैं। भूमि, या मिट्टी के भीतर पाए जानेवाले अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं का परीक्षण किया गया। सबसे पहली बार १९३९ ई. में ड्यूबॉस (Dubos) को सफलता मिली और उसने वैसिलस ब्रेविस (Bacillus brevis) नामक जीवाणु में से ग्रैमिसिडिन (Gramicidin) नामक पदार्थ प्राप्त किया जो पॉलिपेप्टाइडों का मिरण था। १९४४ ई. में स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ग्रिसियस (Streptomyces griseus) नाम जीवाणु का पता चला, जो राजयक्ष्मा के प्रति भी क्रियाशील था। १९४७ ई. में वेनिज़्वीला में एक जीवाणु का पता चला, जिससे क्लोरैफेनिकोल (Chloramphenicol) नाक यौगिक प्राप्त किय गया। इस प्रकार ऐसे ऐंटिबायोटिक द्रव्य का पता चला जो अनेक रोगों में अकेले ही का आ सकता था। इन सब अध्ययनों के फलस्वरूप क्लोरोमाइसेटिन का संलेषण किया गया। प्रोफेसर डुग्गर (Duggar) ने उस जीवाणु का पता चलाया जो एक सुनहरे रंग का पदार्थ भी देता था और जिसका नाम स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ऑरिओफेसियन्स (Streptomyces aureofaciens) था। इस जीवाणु से जो पदार्थ मिला उसे अॅरिओमाइसीन (Aureomycin) नाम से प्रयोग में लाया गया। १९४९ ई. में नेओमाइसीन (Neomycin) की खोज वैक्समैन और लेकेवेलियर (Waksman and Lechevalier) ने की। टेरामाइसीन (Terramycin) का आविष्कार बाद में फिजर समुदाय की प्रयोगशालाओं में हुआ। इस प्रकार पेनिसिलिन यग का आरंभ हुआ।
भौतिक रसायन
द्रव्य की अविनाशिता के नियम के साथ ही साथ भौतिक रसायन की नींव पड़ी, यद्यपि १९वीं शती के अंत तक भौतिक रसायन को रसायन का पृथक् अंग नहीं माना गया। वांट हाफ, विल्हेल्म ऑस्टवाल्ड और आरिनियस के कार्यें ने भौतिक रसायन की रूपरेखा निर्धारित की। स्थिर अनुपात और गुणित अनुपात एवं परस्पर अनुपात के नियमों ने, और बाद को आवोगाड्रो निय, गेलुसैक नियम आदि ने परमाणु और अणु की कल्पना को प्ररय दिया। परमाणुभार और अणुभार निकालने की विविध पद्धतियों का विकास किया गया। गैस संबंधी बॉयल और चार्ल्स के नियमों ने और ग्राहम के अविसरण नियमों ने इसमें सहायता दी। विलयनों की प्रकृति समझने में परासरण दाब संबंधी विचारों ने एक नवीन युग को जन्म दिया। पानी में घुलकर शक्कर के अणु उसी प्रकार अलग अलग हो जाते हैं जैसे शून्य स्थान में गैस के अणु। राउल्ट (Raoult) का वाष्पदाब संबंधी समीकरण विलयनों के संबंध में बड़े काम का सिद्ध हुआ।
- (१) बॉयल-चार्ल्स समीकरण
दा´आ=झ पा [P´V=R T]
यहाँ दा (P)=दाब, आ (V)= आयतन, पा (T)=परम ताप तथा झ (R) गैस नियतांक है। यह समीकरण १ ग्राम-अणु गैस के लिए है। यदि गैस च (n) ग्राम अणु हो, तो यह समीकरण दा´आ=च झ पा (P V= n R T) हो जाएगा।
- (२) ग्राहम का समीकरण
इसमे दो गैसों के लिए क्रमश: विसरण (diffusion) की गतियाँ गा१ (D1) और गा२ (D2) हैं, गैसों के घनत्व घ१ (d1) और घ२ (d2) है, उनके अणुभार अ१ (M1) और अ२ (M2) हैं, एवं किसी छोटे से छेद में होकर गैस के निचित आयतन के विसरण का समय क्रमश: स१ (t1) और स२ (t2) है।
- (३) डाल्टन का आंशिक दाब का नियम
दा=द१+द२+द३+.............
[P=p1+p2+p3+..........]
यहाँ किसी दिए हुए गैसों के मिरण में सब गैसों की समवेत दाब दा (P) है और उन गैसों की पृथक् पृथक् दाब द१ (p1), द२ (p2), द३ (p3)......आदि। ये सब गैसें आदर्श हों, इनका परम ताप पा (T) हो और सब गैसें आ (v) आयतन के पात्र में हों तो-
इसी प्रकार
चित्र:Chemistry-10.gif.... इत्यादि
अत: गैस मिरण में किसी एक गैस की आंशिक दाब, द१ के लिए :
- (४) परासरण दाब
इसका समीकरण भी गैस दाब के समीकरण के समान है। यदि किसी विलयन की संद्रता स (C) अणु प्रति इकाई आयतन हो और आयतन आ (V) हो (आ वह आयतन है, जिसमें विलयशील १ अणु घुला है), तो स (C)=१/आ, (1/V)। परासरण दाब दा के लिए समीकरण यह है :
दा´आ=झ ता, दा=झ ता स [P´V=R T, P=R T C]
- (५) राउल्ट (Rault) का नियम
एफ.एम. राउल्ट ने १८८७ ई. में, लगभग तनु विलयन में, वाष्पदाब के सापेक्ष अवनमन के संबंध में यह नियम दिया :
इसमें विलायक की वाष्पदाब द (p), विलयन की वाष्यदाब द० (p0), विलायक की वाष्पदाब में कमी D द (D p) और चित्र:Chemistry-20.gif विलयन की दाब में सापेक्ष अवनमन है। विलयन में विलायक के अणुओं की संख्या च२ (n2) है, और विलेय के अणुओं की संख्या च१ (n1) है।
अगर विलयन में विलेय का द्रव्यमान द्र (w), विलेय का अणुभर भ (m) शुद्ध विलायक का द्रव्यमान द्रा (W) और विलायक का अणुभार भा (M) हो, तो
(६) विलायक में विलेय के घुलने पर विलायक की वाष्पदाब में कमी आ जाती है, और इसी कारण शुद्ध विलायक के क्वथनांक से विलयन का क्वथनांक अधिक, और शुद्ध विलायक के हिमांक से विलयन का हिमांक कम, होता है। क्वथनांक की वृद्धि D पा (D T), विलयन की सांद्रता और विलेय के अणुभार, भ (M), और विलायक के नियतांक (या क्वथनांक का आणविक उत्कर्ष), काक्व (Kb) पर निर्भर है। नीचे के समीकरण में यह का काक्व १०० ग्राम विलायक की मात्रा के लिए है।
(क ग्राम विलेय ख ग्राम विलायक में घोला गया है)
इसी प्रकार हिमांक की कमी, D पा (D T) निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त होती है नियतांक, कह (Kf), हिमांक का आणविक अवनमन कहलाता है। १०० ग्राम विलायक के लिए यह नियतांक है।
काक्व (Kb) का संबंध विलायक के क्वथनांक पा (T) और उसके वाष्पीकरण गुप्त ऊष्मा, गु (L), से निम्नप्रकार है -
इसी प्रकार का समीकरण हिमांक के आणविक अवनमन नियतांक काह (Kf) के लिए भी है।
इसमें गु (L), हिमन की गुप्त उष्मा और पा (T) हिमांक है।
- (७) द्रव्यमान समानुपाती क्रिया या द्रव्यमात्रा क्रिया का नियम
१८९४ ई. में गुल्डवर्ग (Guldberg) और वागे (Waage) ने इस नियम का प्रतिपादन किया। नियम यह है : 'रसायनिक अभिक्रिया का वेग अभिक्रिया में भाग लेनेवाले पदार्थों के सक्रिय द्रव्यमानों का समानुपाती होता है।' इस नियम का उपयोग बहुधा उत्क्रमणीय (reversible) क्रियाओं के साम्य के संबंध में भी किया जाता है। अभिक्रिया व्यक्त करनेवाला सर्वसामान्य समीकरण निम्नलिखित है :
क का+ख खा+ग गा+...=क¢ का¢+ख¢ खा¢+ग¢ गा¢+...
[a A+b B+c C+. . .=a¢ A¢+b¢ B¢+c¢ C¢+. . . . ]
यहाँ क्रिया में भाग लेनेवाले पदार्थ का, खा, गा, (A, B, C) आदि हैं और क्रिया से उत्पन्न पदार्थ का¢, खा¢, गा¢.... (A¢, B¢, C¢) आदि हैं।
यह क्रिया उत्क्रमणीय है। साम्य स्थापित होने पर यदि का, खा, गा,.... (A, B, C....), का¢, खा¢, गा¢..... (A¢, B¢, C¢....) आदि की सांद्रताएँ क्रमश: (का), (खा), (गा),.... [(A), (B), (C),....], (का¢), (खा¢), (गा¢),.... [(A¢), (B¢), (C¢),....] आदि हों, तो सम्य नियतांक ट (K) निम्नलिखित होगा :
यह नियतांक ट (K) ताप पर र्निभर है। ऊष्मागतिकी के सिद्धांतों के अनुसार निम्न समीकरण द्वारा ट पर ताप, पा (T), का प्रभाव व्यक्त किया जाता है :
इस समीकरण में D ऊ(D u) अभिक्रिया की ऊष्मा है (देखें ऊष्मागतिकी)।
स्वतंत्र ऊर्जा, फा (F), और साम्यनियतांक, ट (K), में निम्न संबंध है, जिसे वांटहाफ का समपाती वक्र (isotherm) कहते हैं :
त फा=झ पा लघु ट - झ पा Su लघु स
d F=R T log K - R T Su log C
SC इस अभिक्रिया में भाग लेनेवाले पदार्थों की स्वयंमान्य सांद्रताएँ हैं।
- (८) गिब्ज (Gibbs) का कला नियम (Phase rule)
यदि किसी निकाय (system) से संघटकों (components) की संख्या स (C) हो, और कलाओं की संख्या क (P) हो ते स्वतंत्र चर राशियों की संख्या, या स्वातंत्र की मात्रा म (F), साम्य स्थापित होने पर निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त की जाती है :
क+म=स+२, (P+F=C+2)
अथवा म=स-क+२, (F=C-P+2)
यह गिब्ज़ का कला नियम कहलाता है। ऊष्मागतिकी संबंधी लेख में इस नियम की प्रतिपत्ति दी हुई है। इस नियम के आधार पर अनेक निकायों (जल, गंधक, मिरधातु, विलायक-मिरण) के विवरण रेखाचित्रों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं।
- (९) विद्युद्विलेषण संबंधी नियम
गाइकेल फैराडे (Faraday) ने १८८३ ई. में विद्युद्विलेषण संबंधी दो नियम दिए :
(क) विद्युत् धारा द्वारा उत्पन्न रासायनिक क्रिया विद्युत धारा की मात्रा की समानुपाती होती है, अर्थात् जितनी धारा प्रवाहित होगी उसी के अनुपात में कोई पदार्थ निक्षिप्त या विलीन होगा।
(ख) विद्युत् धारा की एक ही मात्रा द्वारा यदि कई पदार्थ निक्षिप्त, या विलीन हो रहे हों, तो उनकी मात्राएँ उसी अनुपात में होगी, जिसमें उनके रासायनिक तुल्यांक भार हैं।
इन दोनों नियमों को एक सम्मिलित समीकरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। यदि किसी पदार्थ की निक्षिपत मात्रा या विलीन मात्रा व (w) ग्राम, धारा की सामर्थ्य इ (I) ऐंपियर हो, धारा के प्रवाहित होने का समय स (t) सेकंड ओर तुल्यांक भार तु (e) हो तो
समें फै (F) को फैराडे इकाई कहते हैं। फै (फैराडे) विद्युत् की वह मात्रा है, जिसके प्रवाहित होने पर किसी भी पदार्थ का एक ग्राम तुल्यांक या तो निक्षिप्त होता है, या विलीन होता है :
फे=९६,५०० कूलंब
(१०) धन और ऋण विद्युदग्रों पर धनात्मक और ऋणात्मक आयन एक ही तुल्यमात्रा में विसर्जित होते हैं, किंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि ये आयन एक ही गति से कैथोड (cathode) या ऐनोड (anode) की ओर अग्रसर नहीं होते। यदि धनायन (cation) की गति गघ (wc) और ऋणायन (anion) की गति गअ (Ua) हो, तो धनायन की स्थानांतरण, या परिवहन (transferenc of transport) संख्या टघ (Tc) और ऋणायन की परिवहन संख्या, टअ (Ta) निम्नलिखित समीकरणों द्वारा व्यक्त की जाएगी :
हिटॉर्फ (Hittorf) ने १८५३ ई. में इस परिवहन संख्याओं के निकालने की विधि निकाली।
(११) आर्रेनियस (Arrhenius) ने १८८३-८७ ई. में विद्युद्वियोजन की कल्पना प्रस्तुत की। जल में घुलने पर विद्युद्विलेष्य, जैसे नमक, तूतिया, अम्ल, क्षार आदि, धन और ऋण आयनों में वियोजित हो जाते हैं। यह आवयक नहीं है कि विद्युद्विलेष्यों के समस्त अणु वियोजित होते हों। ऐसीटिक अम्ल आदि के समान निर्बल विद्युद्विलेष्य कुछ प्रतिशत ही वियोजित होते हैं, किंतु सोडियम क्लोराइड, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, कॉस्टिक सोडा आदि के समान सबल विद्युद्विलेष्य लगभग शत प्रतिशत वियोजन, या आयनन प्रस्तुत करते हैं। आयनन की मात्रा (degree of ionisation) a (ऐल्फा) विलयन की तनुता पर निर्भर है। आर्रेनियस ने आयनन की मात्रा विलयन की विद्युच्चालकता के आधार पर निकाली। यदि किसी विलयन की विशिष्ट चालकता (specific conductivity), अर्थात् विशिष्ट रोधकता (resistance) का व्युत्क्रम च (K) हो और विलयन की सांद्रता १ ग्राम तुल्य प्रति आयतन अ (v) घन सेंमी. हो, तो उसकी तुल्य चालकता (equivalent conductivity), त, (m), निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त की जाएगी :
त=च´अ, [m=K´v]
निर्बल विद्युत् अपघट्यों की तुल्य चालकताएँ विलयन की तनुता बढ़ने पर बढ़ती जाती हैं, और जब विद्युत् अपघट्यों शत प्रतिशत आयनित हो जाता है तो यह स्थिर हो जाती है। इस समय की तुल्य विद्युच्चालकता को अनंत तनुता की विद्युच्चालकता (mµ या तµ) कहते हैं। किसी तनुता, अ, पर विद्युचचालकता तअ हो और अनंत तनुता पर तµ तो आयनीकरण की मात्रा, a निम्न होगी :
अनंत तनुता पर आयनिक चालकताएँ (२५° सें.)
धनायन | चालकता | ऋणायन | चालकता |
---|---|---|---|
हा+ (H+) | ३४९.८२ | औहा- (OH-) | १९८.५ |
पा+ (K+) | ७३.५२ | ब्रो- (Br-) | ७८.४ |
नाहा४+ (NH4+) | ७३.४ | आ- (I-) | ७६.८ |
सो+ (Na+) | ५०.११ | क्लो- (Cl-) | ७६.३४ |
र+ (Ag+) | ६१.९२ | नाओ३- (NO3-) | ७१.४४ |
निर्बल अम्लों के लिए ऑस्टवाल्ड (Ostwald) ने निम्नलिखित तनुता नियम (dilution law) प्रतिपादित किया :
इसमें अ (u) लीटर में यह आयतन है, जिसमें विद्युत् अपघट्य का एक ग्राम अणु मात्रा घुली हो। का (K), को विद्युत् अपघट्य का वियोजन नियतांक (dissociation constant) कहते हैं। सबल विद्युत् अपघट्य के लिए ऑस्टवाल्ड के इस समीकरण का उपयोग नहीं किया जा सकता। डेबाई (Debye) और हूकल (Huckel) ने १९२३ ई. में और ऑनसैगर (Onsager) ने १९२६ ई. में इन सबल विद्युत् विघट्यों की विद्युच्चालकता के लिए दूसरे समीकरण दिए। पोटैशियम क्लोराइड के लिए, जिसमें दो एकसंयोजी आयन, हैं, यह समीकरण इस प्रकार है :
वि (D) विलायक का परावैद्युतांक (dielectric constant) है, ता (T) परम ताप, य (h) यानता (viscosity) और स (C) विलयन की सांद्रता (अणु प्रति लीटर, या ग्राम-तुल्यांक प्रति लीटर) है। संक्षेप में इस समीकरण को इस प्रकार लिखेंगे :
इसमें का (A) और खा (B) दिए हुए विलयाक के लिए स्थिरांक हैं, जो ताप पर ही निर्भर हैं।
(१२) पानी निर्बल विद्युद्विलेष्य है :
हा२ औ = हा+ + औ हा
[H2 O = H++ O H]
पानी का आयनन नियतांक काम (Kw) = (हा+) (औ हा-) [H+] [OH-] = ८०.·९५ ´ १०-१४ (२५° सें. ताप के लिए)। पानी के इस आयनन के कारण ही जल-अपटन होता है। जल-अपघ्टन का नियतांक काह (Kh) पानी के आयनन नियतांक और निर्बल अम्ल, या निर्बल क्षार के वियोजन नियतांक, पर, काआ (Ka), अम्ल के लिए एवं काक्ष (Kh) क्षार के लिए, निर्भर है।
जल-अपटन नियतांक, का काह = चित्र:Chemistry-41.gif जहाँ ज (h) = जल अपघटन की मात्रा, अ (v) = लीटर में वह आयतन जितने में एक ग्राम अणु यौगिक घुला हो।
काह = चित्र:Chemistry-42.gif (सोडियम ऐसीटेट ऐसे निर्बल अम्ल के लवण के जल-अपघटन के लिए)
काह = चित्र:Chemistry-43.gif (अमोनियम क्लोराइड ऐसे निर्बल क्षार के लवण के लिए)।
काह = चित्र:Chemistry-44.gif (अमोनियम ऐसीटेट ऐसे निर्बल क्षार और निर्बल अमल से बने लवण के लिए)।
(१३) अम्ल और क्षारक - आयनन पर जो पदार्थ प्रोटॉन, या हाइड्रोजन आयन, हा+ (H+) देते हैं, वे अम्ल हैं और जो हाइड्रॉक्सिल आयन, औहा- (OH-) देते हैं, वे क्षारक (base) कहलाते हैं :
हाका = हा+ + का-
[ HA = H+ + A- ]
अम्ल प्रोटॉन
खा औ हा = खा+ + औहा-
[ B OH = B+ + OH- ]
ब्रान्स्टेड (Bronsted) और लाउरी (Lowry) की परिभाषा के अनुसार उस पदार्थ को अम्ल कहते हैं जिसकी प्रवृत्ति प्रोटॉनन दे देने की और क्षारक वह पदार्थ है जिसकी प्रवृत्ति प्रोटॉन ले लेने की हो
का = हा+ + खा
[A = H+ + B]
अम्ल प्रोटान क्षारक
पानी में घुले हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में निम्न साम्य है (पानी क्षारक का काम करता है)
हाक्लो + हा२औ = हा३औ + क्लो
[ HCl + H2O = H3O+ + Cl ]
अम्ल क्षारक अम्ल क्षारक
(विलयाक)
इसी प्रकार पानी (विलयाक) में घुले अमोनिया में निम्न साम्य है (पानी अम्ल का काम करता है) :
नाहा३ + हा२औ नाहा४ + औहा-
[ NH3 + H2O = NH4+ + OH-
क्षारक अम्ल अम्ल क्षारक
(विलायक)
(१४) हाइड्रोजन आयन सांद्रता एवं पी-एच, (pH) क्षारक - ऐसीटिक अम्ल पानी में घुलने पर शत प्रतिशत आयनित नहीं होता। इसी प्रकार अन्य अम्ल भी पूर्ण आयनित नहीं होते। विलयन की अम्लता हाइड्रोजन आयन की सांद्रता, साहा (CH) पर निर्भर है। यह सांद्रता अनेक विधियों से निकाली जा सकती है : (क) रंग सूचकों के रंगों की तुलनना करके तथा (ख) विद्युद्वाहकबल (e. m. f.) विधि का प्रयोग करके। विलयन के हाइड्रोजन आयन की सांद्रता के अनुसार अनेक रंगसूचक रंगों का चटकीलापन प्रदर्शित करते हैं।
हाडड्रोजन आयन की सांद्रता साहा (CH) व्यक्त करने की एक सरल प्रणाली पी-एच पद्धति कहलाती है। पी-एच और साहा (CH) (सी-एच) में निम्न संबंध है :
पी-एच = - लघु साहा या (-लघु सी-एच)
[pH = -log CH,] (B) (B)
जिस विलयन का पी-एच सात से कम होता है, वह अम्लीय है, सात के निकट के पी-एच वाला विलयन शिथिल, या उदासीन है, और सात से अधिक पी-एच वाला विलयन क्षारीय है।
- (१५) सूचक (Indicators)
बहुत से कार्बनिक रंग ऐसे हैं, जो विलयन की विशेष पी-एच की एच सीमा में रंग में परिवर्तन प्रदर्शित करते हैं। इन उपयोग अम्ल क्षारक अनुमापनों (titration) में होता है। ये सूचक स्वयं बहुत निर्बल अम्ल,या निर्बल क्षार, हैं।
हा सू = हा+ + सू- क्षारक
[ H In = H+ + In-]
इस साम्य के लिए सूचक नियतांक का
अगले पृष्ठ की सारणी में सूचकों के ज्ञातव्य विवरण दिए गए हैं।
- (१६) इलेक्ट्रोड विभव (Electrode Potential) - यदि हम किसी धातु को ऐसे विलयन में डुबाएँ, जिनमें उसी धातुवाले आयन हों, तो परासरण दाब के कारण आयनों की कुछ मात्रा धातु पर जमा होना चाहेगी और विलयन दाब के अनुसार धातु का कुछ अंश विलयन में घुलना चाहेगा। इन दोनों प्रक्रियाओं में साम्य उत्पन्न हो जाने की चेष्टा रहेगी। नर्न्स्ट (Nernst) इन प्रक्रियाओं पर विचार करके एकल इलेक्ट्रोड विभव (Single Electrode Potential) की कल्पना प्रस्तुत की।
सूचक सारणी
- पी-कासू = लघु कासू [pKIn = logKIn]
सूचक | पी-कास | पी-एच सीमा | रंग अम्लीय विलयन से | क्षारीय विलयन में |
---|---|---|---|---|
मेथिल वायलेट | - | ०.२-३.२ | पीला | बैंगनी |
थायमोल ब्लू | १.७ | १.२-२.८ | लाल | पीला |
मेथिल ऑरेंज | ३.७ | ३.१-४.४ | लाल | पीला |
ब्रोमो फीनोल-ब्लू | ४.० | ३.०-४.६ | पीला | नीला |
मेथिल-रेड | ५.१ | ४.३-६.१ | लाल | पीला |
लिटमस | ६.५ | ५.५-७.५ | लाल | नीला |
फीनोल-रेड | ७.८ | ६.८-८.४ | पीला | लाल |
फिनोल्फ़्थेलिन | ९.७ | ८.३-१०.० | रंगहीन | लाल |
अगर किसी विलयन की सांद्रता, स (C) हो, अथवा सक्रियता क (a), हो, तो ताप पा (T), पर धातु इलेक्ट्रोड विभव, वि (E), निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया जाएगा :
वि = वि° + चित्र:Chemistry-46.gif स = वि° + चित्र:Chemistry-47.gif
वि° (E°) प्रामणिक विभव है, जबकि स, या क (C or a) का मान इकाई है।
विभवों के सापेक्ष मान के लिए मानक हाइड्रोजन के इलेक्ट्रोड (Standard Hydrogen Electrode) का विभव शून्य मान लिया गया है। यह प्रत्यावर्ती हाइड्रोजन-इलेक्ट्रोड का विभव है, जब १ वायुमंडल दाब का हाइड्रोजन एक इकाई हाइड्रोजन आयन सांद्रता के विलयन में शनै: शनै: प्रवाहित होता हो। इस इलेक्ट्रोड की अपेक्षा से अन्य इलेक्ट्रोडों का विभव, [जैसे ध+( M+) आयन के विलयन के संपर्क में धातु ध (M) का विभव] प्रदर्शित किया जाता है।
वि (E)
इस सेल का विभव वि (E) है।
अपचयोपचय (redox) तंत्रों का विभव - यदि कोई अभिक्रिया निम्न हो-
अपचित स्थिति = उपचित स्थिति + नइ (nE)
यहाँ इ (E) = इलेक्ट्रॉनिक आवेश तथा न (n) = इलेक्ट्रान की संख्या। ऐसे तंत्रों के विभव के लिए निम्न समीकरण उपयोगी है :
वि = वि°इले - चित्र:Chemistry-50.gif
E = E°el चित्र:Chemistry-51.gif
टीका टिप्पणी और संदर्भ