"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 35-51" के अवतरणों में अंतर
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०९:०९, ३ जुलाई २०१५ का अवतरण
एक सौ चौबीसवाँ अध्याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)
‘जो मनुष्य सत्पुरुषों की सम्मति का उल्लंघन करके दुष्टों के मत के अनुसार चलता है, उसके सुहृद उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख शोक के भागी होते हैं। ‘जो अपने मुख्यमंत्रियों को छोड़कर नीच प्रकृति के लोगों का सेवन करता है, वह भयंकर विपत्ति में फँसकर अपने उद्धार का कोई मार्ग नहीं देख पाता है ‘भारत ! जो दुष्ट पुरुषों का संग करनेवाला और मिथ्याचारी होकर अपने श्रेष्ठ सुहृदों की बात नहीं सुनता हिय, दूसरों को अपनाता और आत्मीयजनों से द्वेष रखता है, उसे यह पृथ्वी त्याग देती है। ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम उन वीर पांडवों से विरोध करके दूसरे अशिष्ट, असमर्थ और मूढ़ मनुष्यों से अपनी रक्षा चाहते हो। ‘इस भूतल पर तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो इंद्र के समान पराक्रमी एवं महारथी बंधु-बांधवों को त्याग कर दूसरों से अपनी रक्षा की आशा करेगा ? ‘तुमने जन्म से ही कुंतीपुत्रों के साथ सदा शठतापूर्ण बर्ताव किया है, परंतु वे इसके लिए कभी कुपित नहीं हुए हैं; क्योंकि पांडव धर्मात्मा हैं।‘तात महाबाहो ! यद्यपि तुमने अपने ही भाई पांडवों के साथ जन्म से ही छल कपट का बर्ताव किया है, तथापि वे यशस्वी पांडव तुम्हारे प्रति सदा सद्भाव ही रखते आए हैं। ‘भरतश्रेष्ठ ! तुम्हें भी अपने उन श्रेष्ठ बंधुओं के प्रति वैसा ही बर्ताव करना चाहिए। तुम क्रोध के वशीभूत न होओ। ‘भरतभूषण ! विद्वान् एवं बुद्धिमान पुरुषों का प्रत्येक कार्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की सिद्धि के अनुकूल ही होता है । यदि तीनों की सिद्धि असंभव हो तो बुद्धिमान मानव धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करते हैं। ‘प्रथक् प्रथक् स्थित हुए धर्म, अर्थ और काम में से किसी एक को चुनना हो तो धीर पुरुष धर्म का ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणी का मनुष्य कलह के कारणभूत अर्थ को ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणी का अज्ञानी पुरुष काम की ही पाना चाहता है। ‘जो अधम मनुष्य इंद्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर्म को छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायों से अर्थ और काम की लिप्सा में पड़कर नष्ट हो जाता है। ‘जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए; क्यूंकी अर्थ और काम कभी धर्म से प्रथक् नहीं होता है। ‘प्रजानाथ ! विद्वान पुरुष धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय बताते हैं । अत: जो धर्म के द्वारा अर्थ और काम को पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नति की दिशा में आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकों में लगी हुई आग बढ़ जाती है। ‘तात भरतश्रेष्ठ ! तुम समस्त राजाओं में विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्य को अनुचित उपाय से पाना चाहते हो। ‘राजन् ! जो उत्तम व्यवहार करनेवाले सत्पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भांति उस दुर्व्यवहार से अपने-आपको ही काटता है। ‘मनुष्य जिसका पराभाव न करना चाहे, उसकी बुद्धि का उच्छेद न करे । जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुष का मन कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत होता है । भरतनन्दन ! मनस्वी पुरुष को चाहिए की वह तीनों लोकों में किसी प्राकृत (निम्न श्रेणी के) पुरुष का भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पांडवों के अपमान की तो बात ही क्या है ? ईर्ष्याके वश में रहनेवाला मनुष्य किसी बात को ठीक से समझ नहीं पात। ‘भरतनन्दन ! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत किए हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न से हो जाते हैं । तात ! किसी भी दुष्ट मनुष्य का साथ करने की अपेक्षा पांडवों के साथ मेल मिलाप रखना तुम्हारे लिए विशेष कल्याणकारी है। ‘पांडवों से प्रेम रखने पर तुम सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ ! तुम पांडवों द्वारा स्थापित राज्य का उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हीं को पीछे करके अर्थात् उनकी अवहेलना करके दूसरों से अपनी रक्षा की आशा रखते हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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