"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 82 श्लोक 1-27": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('==द्वयशीतितमो (82) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)== <d...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति ६: | पंक्ति ६: | ||
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। मैंने सुना है कि गौओं के गोबर में लक्ष्मी का निवास है; किंतु इस विषय में मुझे संदेह है, अतः इसके सम्बन्ध में यथार्थ बात सुनना चाहता हूं ।भीष्मजी ने कहा। भरतश्रेष्ठ।नरेश्वर। इस विषय में विज्ञ पुरूष गौर और लक्ष्मी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, लक्ष्मी ने मनोहर रूप धारण करके गौओं के झुण्ड में प्रवेश किया। उनके रूप वैभव को देखकर गौऐं आश्चर्य चकित हो उठीं। गौओं ने पूछा- देवी। तुम कौन हो और कहां से आयी हो? इस पृथ्वी पर तुम्हारे रूप की कहीं तुलना नहीं है। महाभागे। तुम्हारी इस रूप संपत्ति से हम लोग बड़े आश्चर्यमें पड़ गये हैं। इसलिये हम तुम्हारा परिचय जानना चहती हैं। तुम कौन हो कहां जाओगी? वरवणिनि। ये सारी बातें हमे ठीक-ठीक बताओ । लक्ष्मी बोली- गौओ। तुम्हारा कल्याण हो। मैं इस जगत में लक्ष्मी नाम से प्रसिद्व हूं। सारा जगत मेरी कामना करता है। मैंने दैत्यों का छोड़ दिया इसलिये वे सदा के लिये नष्ट हो गये हैं । मेरे ही आश्रम में रहने के कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, जल के अधिष्ठाता देवता वरूण और अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं। देवताओं तथा ऋषियों को मुझसे से अनुगृहीत होने पर ही सिद्वि मिलती है। गौओं। जिनके शरीर में प्रवेश नहीं करती वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग पाकर ही सुखद होते हैं; अतः सुखदायिनी गौओं। मुझे ऐसे ही प्रभाव से सम्पन्न समझो। मैं तुम सब लोगों के भीतर भी सदा निवास करना चाहती हूं और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूं। तुम लोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ। गौओं ने कहा- देवि। तुम चंचला हो। कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतों के साथ एक-सा सम्बन्ध है; इसलिये हम तुम्हें नहीं चाहती हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जहां आनन्दपूर्वक रह सको जाओ । हमारा शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुन्दर है। हमैं तुमसे क्या काम? तुम्हारी जहां इच्छो हो, चली जाओं। तुमने दर्शन दिया, इतने से ही हम कृतार्थ हो गयीं। लक्ष्मीजी ने कहा- गौओ। यह क्या बात है?क्या यही तुम्हारे लिये उचित है कि तुम मेरा अभिनन्दन नहीं करती? मैं सती-साध्वी हूं, दुर्लभ हूं। फिर भी इस समय तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करतीं? उत्तम व्रत का पालन करने वाली गौओं। लोक में जो यह प्रवाद चल रहा है कि ‘बिना वुलाये स्वयं किसी यहां जाने पर निश्चय ही अनादर होता है’ यह ठीक ही जान पड़ता है । देवता, दानव, गंधर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करते है। सौम्य स्वभाव वाली गौओं। यह तुम्हारा प्रभाव है कि में स्वयं तुम्हारे पास आयी हूं। अतः तुम मुझे यहां ग्रहण करो। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी में कहीं भी मैं अपमान पाने योग्य नहीं हूं। गौओं ने कहा देवी। हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं करती। केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं। वह भी इसलिये कि तुम्हारा चित्त चंचल है। तुम कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहतीं। इस विषय में बहुत बात करने से क्या लाभ? तुम जहां जाना चाहो चली जाओ। अनघे। हम सब लोगों का शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुंदर है; अतः तुमसे हमें क्या काम है। लक्ष्मी ने कहा- दूसरों को सम्मान देने वाली गौओं। तुम्हारे त्याग देने से मैं सम्पूर्ण जगत के लिये अवहेलित और उपेक्षित हो जाऊंगी, इसलिये मुझ पर कृपा करो। तुम महान सौभाग्यशालिनी और सबको शरण देने वाली हो। मैं भी तुम्हारी शरण में आयी हूं। तुम्हारी भक्त हूं। मुझ में कोई दोष भी नहीं है; अतः तुम मेरी रक्षा करो- मुझे अपना लो। गौओं। मैं तुमसे सम्मान चाहती हूं। तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। तुम्हारे किसी एक अंग में, नीचे के कुत्सित अंग में भी यदि स्थान मिल जाये तो मैं उसमें रहना चाहती हूं। निष्पाप गौओ। वास्तव में तुम्हारे अंगों में कही कोई कुत्सित स्थान नहीं दिखाई देता। तुम परम पुण्यमयी, पवित्र और सौभाग्यशालिनी हो। अतः मुझे आज्ञा दो। तुम्हारे शरीर में जहां मैं रह सकूं उसके लिये मुझे स्पष्ट बताओ। नरेश्वर। लक्ष्मी के ऐसा कहने पर करूणा और वात्सल्य की मूर्ति शुभस्वरूपा गौओं ने एक साथ मिलकर सलाह की; फिर सबने लक्ष्मी से कहा- शुभे।यशस्विनी अवश्य ही हमें तुम्हारा सम्मान करना चाहिये। तुम हमारे गोबर और मूत्र में निवास करो; क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुऐं परम पवित्र हैं। लक्ष्मी ने कहा- सुखदायिनी गौओ। धन्य भाग्य जो तुम लोगों ने मुझ पर कृपा पूर्ण प्रसाद प्रकट किया। ऐसा ही होगा- मैं तुम्हारे गोबर और मूत्र में ही निवास करूंगी। तुमने मेरा मान रख लिया, अतः तुम्हारा कल्याण हो । भरतनन्दन। इस प्रकार गौओं के साथ प्रतिज्ञा करके लक्ष्मी जी उनके देखते-देखते वहां से अन्तर्धान हो गयीं। बेटा। इस तरह मैंने तुमसे गोबर का महात्म्य बतलाया है। अब पुनः गौओं का महात्म्य बतला रहा हूं, सुनो। | युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। मैंने सुना है कि गौओं के गोबर में लक्ष्मी का निवास है; किंतु इस विषय में मुझे संदेह है, अतः इसके सम्बन्ध में यथार्थ बात सुनना चाहता हूं ।भीष्मजी ने कहा। भरतश्रेष्ठ।नरेश्वर। इस विषय में विज्ञ पुरूष गौर और लक्ष्मी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, लक्ष्मी ने मनोहर रूप धारण करके गौओं के झुण्ड में प्रवेश किया। उनके रूप वैभव को देखकर गौऐं आश्चर्य चकित हो उठीं। गौओं ने पूछा- देवी। तुम कौन हो और कहां से आयी हो? इस पृथ्वी पर तुम्हारे रूप की कहीं तुलना नहीं है। महाभागे। तुम्हारी इस रूप संपत्ति से हम लोग बड़े आश्चर्यमें पड़ गये हैं। इसलिये हम तुम्हारा परिचय जानना चहती हैं। तुम कौन हो कहां जाओगी? वरवणिनि। ये सारी बातें हमे ठीक-ठीक बताओ । लक्ष्मी बोली- गौओ। तुम्हारा कल्याण हो। मैं इस जगत में लक्ष्मी नाम से प्रसिद्व हूं। सारा जगत मेरी कामना करता है। मैंने दैत्यों का छोड़ दिया इसलिये वे सदा के लिये नष्ट हो गये हैं । मेरे ही आश्रम में रहने के कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, जल के अधिष्ठाता देवता वरूण और अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं। देवताओं तथा ऋषियों को मुझसे से अनुगृहीत होने पर ही सिद्वि मिलती है। गौओं। जिनके शरीर में प्रवेश नहीं करती वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग पाकर ही सुखद होते हैं; अतः सुखदायिनी गौओं। मुझे ऐसे ही प्रभाव से सम्पन्न समझो। मैं तुम सब लोगों के भीतर भी सदा निवास करना चाहती हूं और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूं। तुम लोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ। गौओं ने कहा- देवि। तुम चंचला हो। कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतों के साथ एक-सा सम्बन्ध है; इसलिये हम तुम्हें नहीं चाहती हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जहां आनन्दपूर्वक रह सको जाओ । हमारा शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुन्दर है। हमैं तुमसे क्या काम? तुम्हारी जहां इच्छो हो, चली जाओं। तुमने दर्शन दिया, इतने से ही हम कृतार्थ हो गयीं। लक्ष्मीजी ने कहा- गौओ। यह क्या बात है?क्या यही तुम्हारे लिये उचित है कि तुम मेरा अभिनन्दन नहीं करती? मैं सती-साध्वी हूं, दुर्लभ हूं। फिर भी इस समय तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करतीं? उत्तम व्रत का पालन करने वाली गौओं। लोक में जो यह प्रवाद चल रहा है कि ‘बिना वुलाये स्वयं किसी यहां जाने पर निश्चय ही अनादर होता है’ यह ठीक ही जान पड़ता है । देवता, दानव, गंधर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करते है। सौम्य स्वभाव वाली गौओं। यह तुम्हारा प्रभाव है कि में स्वयं तुम्हारे पास आयी हूं। अतः तुम मुझे यहां ग्रहण करो। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी में कहीं भी मैं अपमान पाने योग्य नहीं हूं। गौओं ने कहा देवी। हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं करती। केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं। वह भी इसलिये कि तुम्हारा चित्त चंचल है। तुम कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहतीं। इस विषय में बहुत बात करने से क्या लाभ? तुम जहां जाना चाहो चली जाओ। अनघे। हम सब लोगों का शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुंदर है; अतः तुमसे हमें क्या काम है। लक्ष्मी ने कहा- दूसरों को सम्मान देने वाली गौओं। तुम्हारे त्याग देने से मैं सम्पूर्ण जगत के लिये अवहेलित और उपेक्षित हो जाऊंगी, इसलिये मुझ पर कृपा करो। तुम महान सौभाग्यशालिनी और सबको शरण देने वाली हो। मैं भी तुम्हारी शरण में आयी हूं। तुम्हारी भक्त हूं। मुझ में कोई दोष भी नहीं है; अतः तुम मेरी रक्षा करो- मुझे अपना लो। गौओं। मैं तुमसे सम्मान चाहती हूं। तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। तुम्हारे किसी एक अंग में, नीचे के कुत्सित अंग में भी यदि स्थान मिल जाये तो मैं उसमें रहना चाहती हूं। निष्पाप गौओ। वास्तव में तुम्हारे अंगों में कही कोई कुत्सित स्थान नहीं दिखाई देता। तुम परम पुण्यमयी, पवित्र और सौभाग्यशालिनी हो। अतः मुझे आज्ञा दो। तुम्हारे शरीर में जहां मैं रह सकूं उसके लिये मुझे स्पष्ट बताओ। नरेश्वर। लक्ष्मी के ऐसा कहने पर करूणा और वात्सल्य की मूर्ति शुभस्वरूपा गौओं ने एक साथ मिलकर सलाह की; फिर सबने लक्ष्मी से कहा- शुभे।यशस्विनी अवश्य ही हमें तुम्हारा सम्मान करना चाहिये। तुम हमारे गोबर और मूत्र में निवास करो; क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुऐं परम पवित्र हैं। लक्ष्मी ने कहा- सुखदायिनी गौओ। धन्य भाग्य जो तुम लोगों ने मुझ पर कृपा पूर्ण प्रसाद प्रकट किया। ऐसा ही होगा- मैं तुम्हारे गोबर और मूत्र में ही निवास करूंगी। तुमने मेरा मान रख लिया, अतः तुम्हारा कल्याण हो । भरतनन्दन। इस प्रकार गौओं के साथ प्रतिज्ञा करके लक्ष्मी जी उनके देखते-देखते वहां से अन्तर्धान हो गयीं। बेटा। इस तरह मैंने तुमसे गोबर का महात्म्य बतलाया है। अब पुनः गौओं का महात्म्य बतला रहा हूं, सुनो। | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति का गोदान विषयक | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें गौओं की उत्पत्ति का गोदान विषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 83 श्लोक 1-24}} | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 83 श्लोक 1-24}} |
०५:२३, ५ जुलाई २०१५ का अवतरण
द्वयशीतितमो (82) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- लक्ष्मी और गौओं का संवाद तथा लक्ष्मी की प्रार्थना पर गौओं के द्वारा गोबर और मूत्र में लक्ष्मी को निवास के लिये स्थान दिया जाना
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। मैंने सुना है कि गौओं के गोबर में लक्ष्मी का निवास है; किंतु इस विषय में मुझे संदेह है, अतः इसके सम्बन्ध में यथार्थ बात सुनना चाहता हूं ।भीष्मजी ने कहा। भरतश्रेष्ठ।नरेश्वर। इस विषय में विज्ञ पुरूष गौर और लक्ष्मी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, लक्ष्मी ने मनोहर रूप धारण करके गौओं के झुण्ड में प्रवेश किया। उनके रूप वैभव को देखकर गौऐं आश्चर्य चकित हो उठीं। गौओं ने पूछा- देवी। तुम कौन हो और कहां से आयी हो? इस पृथ्वी पर तुम्हारे रूप की कहीं तुलना नहीं है। महाभागे। तुम्हारी इस रूप संपत्ति से हम लोग बड़े आश्चर्यमें पड़ गये हैं। इसलिये हम तुम्हारा परिचय जानना चहती हैं। तुम कौन हो कहां जाओगी? वरवणिनि। ये सारी बातें हमे ठीक-ठीक बताओ । लक्ष्मी बोली- गौओ। तुम्हारा कल्याण हो। मैं इस जगत में लक्ष्मी नाम से प्रसिद्व हूं। सारा जगत मेरी कामना करता है। मैंने दैत्यों का छोड़ दिया इसलिये वे सदा के लिये नष्ट हो गये हैं । मेरे ही आश्रम में रहने के कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, जल के अधिष्ठाता देवता वरूण और अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं। देवताओं तथा ऋषियों को मुझसे से अनुगृहीत होने पर ही सिद्वि मिलती है। गौओं। जिनके शरीर में प्रवेश नहीं करती वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग पाकर ही सुखद होते हैं; अतः सुखदायिनी गौओं। मुझे ऐसे ही प्रभाव से सम्पन्न समझो। मैं तुम सब लोगों के भीतर भी सदा निवास करना चाहती हूं और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूं। तुम लोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ। गौओं ने कहा- देवि। तुम चंचला हो। कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतों के साथ एक-सा सम्बन्ध है; इसलिये हम तुम्हें नहीं चाहती हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जहां आनन्दपूर्वक रह सको जाओ । हमारा शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुन्दर है। हमैं तुमसे क्या काम? तुम्हारी जहां इच्छो हो, चली जाओं। तुमने दर्शन दिया, इतने से ही हम कृतार्थ हो गयीं। लक्ष्मीजी ने कहा- गौओ। यह क्या बात है?क्या यही तुम्हारे लिये उचित है कि तुम मेरा अभिनन्दन नहीं करती? मैं सती-साध्वी हूं, दुर्लभ हूं। फिर भी इस समय तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करतीं? उत्तम व्रत का पालन करने वाली गौओं। लोक में जो यह प्रवाद चल रहा है कि ‘बिना वुलाये स्वयं किसी यहां जाने पर निश्चय ही अनादर होता है’ यह ठीक ही जान पड़ता है । देवता, दानव, गंधर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करते है। सौम्य स्वभाव वाली गौओं। यह तुम्हारा प्रभाव है कि में स्वयं तुम्हारे पास आयी हूं। अतः तुम मुझे यहां ग्रहण करो। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी में कहीं भी मैं अपमान पाने योग्य नहीं हूं। गौओं ने कहा देवी। हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं करती। केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं। वह भी इसलिये कि तुम्हारा चित्त चंचल है। तुम कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहतीं। इस विषय में बहुत बात करने से क्या लाभ? तुम जहां जाना चाहो चली जाओ। अनघे। हम सब लोगों का शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुंदर है; अतः तुमसे हमें क्या काम है। लक्ष्मी ने कहा- दूसरों को सम्मान देने वाली गौओं। तुम्हारे त्याग देने से मैं सम्पूर्ण जगत के लिये अवहेलित और उपेक्षित हो जाऊंगी, इसलिये मुझ पर कृपा करो। तुम महान सौभाग्यशालिनी और सबको शरण देने वाली हो। मैं भी तुम्हारी शरण में आयी हूं। तुम्हारी भक्त हूं। मुझ में कोई दोष भी नहीं है; अतः तुम मेरी रक्षा करो- मुझे अपना लो। गौओं। मैं तुमसे सम्मान चाहती हूं। तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। तुम्हारे किसी एक अंग में, नीचे के कुत्सित अंग में भी यदि स्थान मिल जाये तो मैं उसमें रहना चाहती हूं। निष्पाप गौओ। वास्तव में तुम्हारे अंगों में कही कोई कुत्सित स्थान नहीं दिखाई देता। तुम परम पुण्यमयी, पवित्र और सौभाग्यशालिनी हो। अतः मुझे आज्ञा दो। तुम्हारे शरीर में जहां मैं रह सकूं उसके लिये मुझे स्पष्ट बताओ। नरेश्वर। लक्ष्मी के ऐसा कहने पर करूणा और वात्सल्य की मूर्ति शुभस्वरूपा गौओं ने एक साथ मिलकर सलाह की; फिर सबने लक्ष्मी से कहा- शुभे।यशस्विनी अवश्य ही हमें तुम्हारा सम्मान करना चाहिये। तुम हमारे गोबर और मूत्र में निवास करो; क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुऐं परम पवित्र हैं। लक्ष्मी ने कहा- सुखदायिनी गौओ। धन्य भाग्य जो तुम लोगों ने मुझ पर कृपा पूर्ण प्रसाद प्रकट किया। ऐसा ही होगा- मैं तुम्हारे गोबर और मूत्र में ही निवास करूंगी। तुमने मेरा मान रख लिया, अतः तुम्हारा कल्याण हो । भरतनन्दन। इस प्रकार गौओं के साथ प्रतिज्ञा करके लक्ष्मी जी उनके देखते-देखते वहां से अन्तर्धान हो गयीं। बेटा। इस तरह मैंने तुमसे गोबर का महात्म्य बतलाया है। अब पुनः गौओं का महात्म्य बतला रहा हूं, सुनो।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|