"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 95 श्लोक 17-28": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चनवतितमो अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चनवतितमो अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
ब्रह्मन। इसी कारण से मैंने आपका यह कार्य कुछ विलम्ब से पूरा किया। तपोधन। प्रभो मेरे इस बात पर ध्यान देकर आप क्रोध न करें। जमदग्नि ने कहा- रेणुके। जिसने तुझे कष्ट पहुंचाया है, उस उद्दीप्त किरणों वाले सूर्य को आज मैं अपने बाणों से, अपनी अस्त्राग्नि के तेज से गिरा दूंगा। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। ऐसा कहकर महर्षि जमदग्नि ने अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा खींची और बहुत-से बाण हाथ में लेकर सूर्य की ओर मुंह करके खड़े हो गये। जिस दिशा की ओर सूर्य जा रहे थे, उसी ओर उन्होंने भी अपना मुंह कर लिया | ब्रह्मन। इसी कारण से मैंने आपका यह कार्य कुछ विलम्ब से पूरा किया। तपोधन। प्रभो मेरे इस बात पर ध्यान देकर आप क्रोध न करें। जमदग्नि ने कहा- रेणुके। जिसने तुझे कष्ट पहुंचाया है, उस उद्दीप्त किरणों वाले सूर्य को आज मैं अपने बाणों से, अपनी अस्त्राग्नि के तेज से गिरा दूंगा। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। ऐसा कहकर महर्षि जमदग्नि ने अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा खींची और बहुत-से बाण हाथ में लेकर सूर्य की ओर मुंह करके खड़े हो गये। जिस दिशा की ओर सूर्य जा रहे थे, उसी ओर उन्होंने भी अपना मुंह कर लिया था। कुन्तीनन्दन। उन्हें युद्व के लिये तैयार देख सूर्यदेव ब्राम्हण का रूप धारण करके उनके पास आये ओर बोले- ‘ब्रह्मन्। सूर्य ने आपका क्या अपराध किया है? ‘सूर्यदेव तो आकाश में स्थित होकर अपनी किरणों द्वारा वसुधा का रस खींचते हैं और बरसात में पुनः उसे बरसा देते हैं । ‘विप्रवर। उसी वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, जो मनुष्यों के लिये सुखदायक है, अन्न ही प्राण है, यह बात वेद में भी बतायी गयी है। ‘ब्रह्मन्। अपने किरण समूह से घिरे हुए भगवान सूर्य बादलों में छिपकर सातों द्वीपों की पृथ्वी को वर्षा केजल से आप्लावित करते हैं। ‘उसी से नाना प्रकार की ओषधियां, लताऐं, पत्र-पुष्प, घास-पात, आदि उत्पन्न होते हैं। प्रभो। प्रायः सभी प्रकार के अन्न वर्षा के जल से उत्पन्न होते हैं। ‘जातकर्म, व्रत, उपनयन, विवाह, गोदान, यज्ञ, सम्पत्ति, शास्त्रीय दान, संयोग और धनसंग्रह आदि सारे कार्य अन्न से ही सम्पादित होते हैं। भृगुनन्दन। इस बात को आप भी अच्छी तरह जानते हैं।‘जितने सुन्दर पदार्थ हैं, अथवा जो भी उत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अन्न से ही प्रकट होते हैं। यह सब मैं ऐसी बात बता रहा हूं जो आप को पहले से ही विदित है। ‘विप्रवर।ब्रह्मर्षे। मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब आप भी जानते हैं। भला, सूर्य को गिराने से आपको क्या लाभ? अतः मैं प्रार्थनापूर्वक आपको प्रसन्न करना चाहता हूं (कृपया सूर्य को नष्ट करने का संकल्प छोड़ दीजिये)’। | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें छ्त्र और उपानहकी उत्पत्ति नामक पंचानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें छ्त्र और उपानहकी उत्पत्ति नामक पंचानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> |
१०:३७, ५ जुलाई २०१५ का अवतरण
पन्चनवतितमो (95) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
ब्रह्मन। इसी कारण से मैंने आपका यह कार्य कुछ विलम्ब से पूरा किया। तपोधन। प्रभो मेरे इस बात पर ध्यान देकर आप क्रोध न करें। जमदग्नि ने कहा- रेणुके। जिसने तुझे कष्ट पहुंचाया है, उस उद्दीप्त किरणों वाले सूर्य को आज मैं अपने बाणों से, अपनी अस्त्राग्नि के तेज से गिरा दूंगा। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। ऐसा कहकर महर्षि जमदग्नि ने अपने दिव्य धनुष की प्रत्यंचा खींची और बहुत-से बाण हाथ में लेकर सूर्य की ओर मुंह करके खड़े हो गये। जिस दिशा की ओर सूर्य जा रहे थे, उसी ओर उन्होंने भी अपना मुंह कर लिया था। कुन्तीनन्दन। उन्हें युद्व के लिये तैयार देख सूर्यदेव ब्राम्हण का रूप धारण करके उनके पास आये ओर बोले- ‘ब्रह्मन्। सूर्य ने आपका क्या अपराध किया है? ‘सूर्यदेव तो आकाश में स्थित होकर अपनी किरणों द्वारा वसुधा का रस खींचते हैं और बरसात में पुनः उसे बरसा देते हैं । ‘विप्रवर। उसी वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, जो मनुष्यों के लिये सुखदायक है, अन्न ही प्राण है, यह बात वेद में भी बतायी गयी है। ‘ब्रह्मन्। अपने किरण समूह से घिरे हुए भगवान सूर्य बादलों में छिपकर सातों द्वीपों की पृथ्वी को वर्षा केजल से आप्लावित करते हैं। ‘उसी से नाना प्रकार की ओषधियां, लताऐं, पत्र-पुष्प, घास-पात, आदि उत्पन्न होते हैं। प्रभो। प्रायः सभी प्रकार के अन्न वर्षा के जल से उत्पन्न होते हैं। ‘जातकर्म, व्रत, उपनयन, विवाह, गोदान, यज्ञ, सम्पत्ति, शास्त्रीय दान, संयोग और धनसंग्रह आदि सारे कार्य अन्न से ही सम्पादित होते हैं। भृगुनन्दन। इस बात को आप भी अच्छी तरह जानते हैं।‘जितने सुन्दर पदार्थ हैं, अथवा जो भी उत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अन्न से ही प्रकट होते हैं। यह सब मैं ऐसी बात बता रहा हूं जो आप को पहले से ही विदित है। ‘विप्रवर।ब्रह्मर्षे। मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब आप भी जानते हैं। भला, सूर्य को गिराने से आपको क्या लाभ? अतः मैं प्रार्थनापूर्वक आपको प्रसन्न करना चाहता हूं (कृपया सूर्य को नष्ट करने का संकल्प छोड़ दीजिये)’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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