"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 142 श्लोक 37-53": अवतरणों में अंतर

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==द्विचत्वारिंशदधिकशततमो (142) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )==
==द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय: श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय: श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद</div>



१०:५७, ५ जुलाई २०१५ का अवतरण

द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततमो अध्याय: श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद

दोनों ही वीर एक दूसरे के छिद्र (प्रहार करने के अवसर) पाने की इच्छा रखते हुए विचित्र रीति से उछलते-कूदते थे। दानों ही अपनी शिक्षा, फुर्ती तथा युद्ध -कौशल दिखाते हुए रणभूमि में एक दूसरे को खींच रहे थे। वे दोनों ही योद्धाओं में श्रेष्ठ थे। राजेन्द्र ! उस समय विश्राम करती हुई सम्पूर्ण सेनाओं के देखते देखते लगभग दो घड़ी तक एक दूसरे पर तलवारों से चोट करके दोनों ने दोनों की सौ चन्द्राकार चिन्हों से सुशोभित विचित्र ढालें काट डालीं। नरेश्वर ! फिर वे दोनों पुरुषसिंह भुजाओं द्वारा मल्ल-युद्ध करने लगे।। दानों के वक्षःस्थल चौड़े और भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्ल-युद्ध में कुशल थे और लोहे के परिधों के समान सुदृढ़ भुजाओं द्वारा एक दूसरे से गुथ गये थे। राजन ! उन दोनों के भुजाओं द्वारा आघात, निग्रह (हाथ पकड़ना) और प्रग्रह (गले में हाथ लगाना) आदि दांव उनकी शिक्षा और बल के अनुरूप प्रकट होकर समस्त योद्धाओं का हर्ष बढ़ा रहे थे। राजन् ! समरभूमि में जूझते हुए उन दोनों नरश्रेष्ठों के पारस्परिक आघात से प्रकट होने वाला महान शब्द वज्र और पर्वत के टकराने के समान भयंकर जान पड़ता था। जैसे दो हाथी दांतों के अग्रभाग से तथा दो सांड़ सींगों से लड़ते हैं, उसी प्रकार वे दोनों वीर कभी भुजपाशों से बांध कर, कभी सिरों की टक्कर लगाकर, कभी पैरों से खींच कर, कभी पैर में पैर लपेट कर, कभी तोमर-प्रहार के समान ताल ठोंक कर, कभी अंकुश गड़ाने के समान एक दूसरे को नोच कर, कभी पादबन्ध, उदरबन्ध, उद्भ्रमण, गत, प्रत्यागत, आक्षेप, पातन, उत्थान और संप्लुत आदि दावों का प्रदर्शन करते हुए वे दोनों महामनस्वी कुरु और सात्वतवंश के प्रमुख वीर परस्पर युद्ध कर रहे थे। भारत ! इस प्रकार वे दोनों महाबली वीर परस्पर जूझते हुए मल्ल-युद्ध की जो बत्तीस कलाएं हैं, उनका प्रदर्शन करने लगे। तद्न्तर जब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो जाने पर सात्यकि युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- पार्थ ! रण में समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ इस सात्यकि की ओर देखो। यह रथहीन होकर युद्ध कर रहा है। कुन्तीनन्दन ! देखो, सात्यकि शिथिल हो गया है। इसकी रक्षा करो। भारत ! पाण्डुनन्दन ! तुम्हारे पीछे-पीछे यह कौरव-सेना का व्यूह भेद कर भीतर घुस आया है और भरतवंश के प्रायः सभी महापराक्रमी योद्धाओं के साथ युद्ध कर चुका है। दुर्योधन की सेना में जो मुख्य योद्धा और प्रधान महारथी थे, वे सैकड़ों और हजारों की संख्या में इस वृष्णिवंशी वीर के हाथ से मारे गये हैं।अर्जुन ! यहां आता हुआ योद्धाओं में श्रेष्ठ सात्यकि बहुत थक गया है, तो भी उसके साथ युद्ध करने की इच्छा से यज्ञों में पर्याप्त दक्षिणा देने वाले भूरिश्रवा आये हैं। यह युद्ध समान योग्यता का नहीं है। राजन ! इसी समय क्रोध में भरे हुए रणदुर्मद भूरिश्रवाने उद्योग करके सात्यकि पर उसी प्रकार आघात किया, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त हाथी पर चोट करता है। नरेश्वर ! समरांगण में रथ पर बैठे हुए क्रोध भरे योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन वह युद्ध देख रहे थे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-पार्थ ! देखो, वृष्णि और अंधकवंश का वह श्रेष्ठ वीर भूरिश्रवा के वश में हो गया है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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