"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 148 श्लोक 1-11": अवतरणों में अंतर

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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०५:१३, ६ जुलाई २०१५ का अवतरण

अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन के वध की प्रतिज्ञा करना, श्रीकृष्ण का अर्जुन का अर्जुन को बधाई देकर उन्हें रणभूमि का भयानक दृश्‍य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास ले जाना

धृतराष्टने पूछा- संजय ! अब पाण्डवपक्ष के और मेरे शूरवीर सैनिक पूर्वोक्त रूप से युद्ध के लिये उद्यत हो गये, तब भीमसेन ने क्या किया? यह मुझे बताओ।

संजय ने कहा- राजन ! रथहीन भीमसेन कर्ण के वाग्बाणों से पीडित हो अमर्ष के वशीभूत हो गये थे। वे अर्जुन से इस प्रकार बोले। धनंजय ! कर्ण ने तुम्हारे सामने ही मुझसे बांरबार कहा है कि अरे ! तू निमूछिया, मूर्ख, पेटू, अस्त्रविद्या को न जानने वाला, बालक और संग्रामभीरू है; अतः युद्ध न कर। भारत ! जो ऐसा कह दे, वह मेरा बध्य होता है। उसने मुझे ऐसा कह दिया। महाबाहु कुन्तीकुमार ! ऐसा कहने वाले के वध की यह प्रतिज्ञा मैंने तुम्हारे साथ ही की थी। यह कर्ण का वध जैसे मेरा कार्य हैं, वैसे ही तुम्हारा भी है, इसमें संशय नहीं है। नरश्रेष्ठ ! कर्ण के वध के लिये तुम मेरे इस कथन पर भी ध्यान दो। धनंजय ! जैसे भी मेरी वह प्रतिज्ञा सत्य हो सके, वैसा प्रयत्न करो। भीमसेन का यह वचन सुनकर अमित पराक्रमी अर्जुन युद्धस्‍थल में कर्ण के कुछ निकट जाकर उससे इस प्रकार बोले-। कर्ण ! कर्ण ! तेरी दृष्टि मिथ्या है। सूतपुत्र ! तू स्वयं ही अपनी प्रंशसा करता है। अधर्मबुद्धे ! मैं इस समय तुझसे जो कुछ कहता हूं, उसे सुन। राधानन्दन ! युद्ध में शूरवीरों के दो प्रकार के कर्म (परिणाम) देखे जाते हैं- जय और पराजय। यदि इन्द्र भी युद्ध करें तो उनके लिये भी वे दोनों परिणाम अनिश्चित हैं। (अर्थात यह निश्चित नहीं कि कब किस की विजय होगी और कब किसकी पराजय)। ओ निर्लज्ज कर्ण ! तू बार-बार युद्ध छोड़कर भाग जाता है, तो भी तुझ भागते हुए के प्रति भीमसेन ने कोई कटुवचन नहीं कहा। भीमसेनके इस माहात्म्य और उनके उत्‍तम कुल में जन्म लेने के कारण प्राप्त हुए अच्छे शील-स्वभाव को प्रत्यक्ष देख लें।। सूतपुत्र! फिर तूने भी पुनः युद्ध करके केवल एक ही बार दैवेच्छा से पाण्डुपुत्र वीरवर भीमसेन को रथहीन किया है। राधापुत्र! तूने भीम को कटूवचन सुनाकर अपने कुल के अनुरूप कार्य किया है।। ’नरश्रेष्ठ ! इस समय जो संकट तेरे सामने प्रस्तुत है, उसे तू नहीं जानता है। जैसे सियार जंगली व्याध्र आदि जन्तुओं की अवहेलना करे, उसी प्रकार तू भी क्षत्रिय समाज का अपमान कर रहा है। संग्राम भीमसेन का तो पैतृक कर्म है और तेरा काम तेरे कुल के अनुरूप रथ हांकना है। राधापुत्र ! मैं इस युद्ध के मुहाने पर सम्पूर्ण शस्त्रधारी योद्धाओं के बीच में तुझसे कहे देता हूं, तू अपने सारे कार्य सब प्रकार से पूर्ण कर ले। संग्राम में इन्द्र को भी एकान्ततः सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।। सात्यकि ने तुझे रथहीन करके मृत्यु के निकट पहुंचा दिया था । तेरी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो उठी थी, तो भी तू मेरा वध्य है यह जानकर उन्‍होंने तुझे जीतकर भी जीवित छोड़ दिया। परंतु तूने रणभूमि में युद्धपरायण महाबली भीमसेन को दैवेच्छा से किसी प्रकार रथहीन करके जो उनके प्रति कठोर बातें कही थी, यह तेरा महान अधर्म है। नीच मनुष्य वैसा कार्य करते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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