"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 179 श्लोक 1-17": अवतरणों में अंतर
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०५:२७, ७ जुलाई २०१५ का अवतरण
एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
घटोत्कच का घोर युद्ध तथा कर्ण के द्वारा चलायी हुई इन्द्रप्रदत्त शक्ति से उसका वध
संजय कहते हैं- राजन्! राक्षस अलायुध का वध करके घटोत्कच मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ और वह आपकी सेना के सामने खड़ा हो नाना प्रकार से सिंहनाद करने लगा। महाराज! उसकी वह भयंकर गर्जना हाथियों को भी कँपा देने वाली थी। उसे सुनकर आपके योद्धाओं के मन में अत्यन्त दारूण भय समा गया। जिस समय महाबली घटोत्कच अलायुध के साथ उलझा हुआ था, उस समय उसे उस अवस्था में देखकर महाबाहु कर्ण ने पान्चालों पर धावा किया। उसने पूर्णतः खींचकर छोड़े गये झुकी हुई गाँठवाले दस-दस सुदृढ़ बाणों द्वारा धृष्टद्युम्न और शिखण्डी को घायल कर दिया। तत्पश्चात् उसने अच्छे-अच्छे नाराचों द्वारा युधामन्यु और उत्तमौजा को तथा अनेक बाणों से उदार महारथी सात्यकि को भी कम्पित कर दिया। नरेश्वर! वे सात्यकि आदि भी बायें-दायें बाण चला रहे थे। उस समय उन सबके धनुष भी मण्डलकार ही दिखायी देते थे। उस रात्रि के समय उनकी प्रत्यन्चा की टंकार तथा रथ के पहियों की घर्घराहट का शब्द वर्षाकाल के मेघों की गर्जना के समान भयंकर जान पड़ता था। राजन्! वह संग्राम वर्षाकालीन मेघ के समान प्रतीत होता था। प्रत्यन्चा की टंकार और पहियों की घर्घराहट का शब्द ही उस मेघ की गर्जना के समान था। धनुष ही विद्युन्मण्डल के समान प्रकाशित होता था और ध्वजा का अग्रभाग ही उस मेघ का उच्चतम शिखर था तथा बाण-समूहों की वृष्टि ही उसके द्वारा की जाने वाली वर्षा थी। नरेन्द्र! महान् पर्व के समान शक्तिशाली एवं अविचल रहने वाले शत्रुदलसंहारक सूर्य पुत्र कर्ण ने रणभूमि में उस अद्भुत बाण-वर्षा को नष्ट कर दिया। तत्पश्चात् आपके पुत्र के हित में तत्पर रहने वाले महामनस्वी वैकर्तन कर्ण ने समरागंण में सोने के विचित्र पंखों से युक्त एवं वज्रपात के तुल्य भयंकर, तुलनारहित तीखे बाणों द्वारा शत्रुओं का संहार आरम्भ किया। वैकर्तन कर्ण ने वहाँ शीर्घ ही किन्हीं की ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये, किन्हीं के शरीरों को बाणों से पीड़ित करके विदीर्ण कर डाला, किन्हीं के सारथि नष्ट कर दिये और किन्हीं के घोड़े मार डाले। योद्धालोग युद्ध में किसी तरह चैन न पाकर युधिष्ठिर की सेना में घुसने लगे। उन्हें तितर-बितर और युद्ध से विमुख हुआ देख घटोत्कच को बड़ा रोष हुआ। वह सुवर्ण एवं रत्नों से जटित होने के कारण विचित्र शोभायुक्त उत्तम रथ पर आरूढ़ हो सिंह के समान गर्जना करने लगा और वैकर्तन कर्ण के पास जाकर उसे वज्रतुल्य बाणों द्वारा बींधने लगा। वे दोनों कर्णी, नाराच, शिलीमुख, नालीक, दण्ड, असन, वत्सदन्त, वाराहर्ण, विपाठ, सींग तथा क्षुरप्रों की वर्षा करते हुए अपनी गर्जना से आकाश को गुँजाने लगे।। समरागंण में बाणधाराओं से भरा हुआ आकाश उन बाणों के सुवर्णमय पंखों की तिरछी दिशा में फैलने वाली देदीप्यमान प्रभाओं से ऐसी शोभा पा रहा था, मानो वह विचित्र पुष्पों वाली मनोहर मालाओं से अलंकृत हो। दोनों के ही चित्त एकाग्र थे, दोनों ही अनुपम प्रभावशाली थे और उत्तम अस्त्रों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचा रहे थे। उन दोनों वीरशिरोमणियों में से कोई भी युद्ध ममें अपनी विशेषता न दिखा सका। सूर्य पुत्र कर्ण और भीमकुमार घटोत्कच का वह अत्यन्त विचित्र एवं घमासान युद्ध आकाश में राहु और सूर्य के उनमत्त संग्राम सा प्रतीत होता था। उसकी कहीं तुलना नहीं थी। शस्त्रों के प्रहार से वह बड़ा भयंकर जान पड़ता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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