"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 137-145": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 137-145 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 137-145 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
तपोधनों ! राजा वृषादर्भि ने इसे भेजा था, किंतु यह मेरे द्वारा मारी गयी। ब्राह्माणों। मैंने सोचा कि अग्नि से उत्पन्न यह दुष्ट पापिनी कृत्या कहीं आप लोगों की हिंसा न कर डाले; इसलिये मैं यहां आ गया। आप लोग मुझे इन्द्र समझें। आप लोगों ने जो लोभ का परित्याग किया है, इससे आपको वे अक्षय लोक प्राप्त हुए हैं, जो सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाले हैं। अतः ब्राह्माणों ! अब आप लोग यहां से उठें और शीघ्र उन लोकों में पदार्पण करें। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। इन्द्र की बात सुनकर महर्षियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने देवराज से ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर वे सब-के-सब देवेन्द्र के साथ ही स्वर्गलोक चले गये।इस प्रकार उन महात्माओं ने अत्यन्त भूखे होने पर और बड़े-बड़े लोगों के अनेक प्रकार के भोगों द्वारा लालच देने पर भी उस समय लोभ नहीं किया। इसी से उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। राजन ! इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सभी दशाओं में लोभ का त्याग करे, क्योंकि यह सबसे बड़ा धर्म है। अतः लोभ को अवश्य त्याग देना चाहिये। जो मनुष्य जन समुदाय में इस पवित्र चरित्र का कीर्तन करता है, वह धन एवं मनोवांछित वस्तु का भागी होता है और कभी संकट में नहीं पड़ता है।उसके ऊपर देवता, ऋषि ओर पितर सभी प्रसन्न होते हैं। वह मनुष्य इहलोक में यश, धर्म एवं धन का भागी होता है और मृत्यु के पश्चात उसे स्वर्गलोक सुलभ होता है। | |||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें मृणाली की चोरी का उपाख्यानविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें मृणाली की चोरी का उपाख्यानविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 124-136|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 1-13}} | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 124-136|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 1-13}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१२:१६, ७ जुलाई २०१५ का अवतरण
त्रिनवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
तपोधनों ! राजा वृषादर्भि ने इसे भेजा था, किंतु यह मेरे द्वारा मारी गयी। ब्राह्माणों। मैंने सोचा कि अग्नि से उत्पन्न यह दुष्ट पापिनी कृत्या कहीं आप लोगों की हिंसा न कर डाले; इसलिये मैं यहां आ गया। आप लोग मुझे इन्द्र समझें। आप लोगों ने जो लोभ का परित्याग किया है, इससे आपको वे अक्षय लोक प्राप्त हुए हैं, जो सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाले हैं। अतः ब्राह्माणों ! अब आप लोग यहां से उठें और शीघ्र उन लोकों में पदार्पण करें। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। इन्द्र की बात सुनकर महर्षियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने देवराज से ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर वे सब-के-सब देवेन्द्र के साथ ही स्वर्गलोक चले गये।इस प्रकार उन महात्माओं ने अत्यन्त भूखे होने पर और बड़े-बड़े लोगों के अनेक प्रकार के भोगों द्वारा लालच देने पर भी उस समय लोभ नहीं किया। इसी से उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। राजन ! इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सभी दशाओं में लोभ का त्याग करे, क्योंकि यह सबसे बड़ा धर्म है। अतः लोभ को अवश्य त्याग देना चाहिये। जो मनुष्य जन समुदाय में इस पवित्र चरित्र का कीर्तन करता है, वह धन एवं मनोवांछित वस्तु का भागी होता है और कभी संकट में नहीं पड़ता है।उसके ऊपर देवता, ऋषि ओर पितर सभी प्रसन्न होते हैं। वह मनुष्य इहलोक में यश, धर्म एवं धन का भागी होता है और मृत्यु के पश्चात उसे स्वर्गलोक सुलभ होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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