"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 185 श्लोक 20-37": अवतरणों में अंतर
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०५:२८, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण
पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )
‘पंजानाथ! हमारे बहुत चेष्टा करने पर भी पाण्डु पुत्र अर्जुन ने जिस प्रकार तुम्हारी इस सेना का संहार कर डाला है, यह सब तो तुम्हारी आँखों के सामने ही है।’
संजय कहते हैं- राजन्! इस प्रकार अर्जुन की प्रशंसा करते हुए द्रोणाचार्य से उस समय आपके पुत्र ने कुपित होकर पुनः इस प्रकार कहा-। ‘आज मैं, दुःशासन, कर्ण और मेरे मामा शकुनि कौरव सेना को दो भागों में बाँटकर युद्ध में अर्जुन को मार डालेंगे। महाबाहो! आप चुपचाप खडे़ रहिये, क्योंकि अर्जुन सदा से ही आपके प्रिय शिष्य हैं’। दुर्योधन की यह बात सुनकर द्रोणाचार्य ने हँसते हुए से उसकी बात का अनुमोदन किया और ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसा कहकर वे राजा दुर्योधन से पुनः इस प्रकार बोले-। ‘नरेश्वर! अपने तेज से प्रज्वलित होने वाले क्षत्रि शिरोमणि गाण्डीवधारी अविनाशी अर्जुन को कौन क्षत्रिय मार सकता है? ‘हाथ में धनुष धारण किये हुए अर्जुन को न तो घनाध्यक्ष कुबेर, न इन्द्र, न यमराज, न जल के स्वामी वरूण और न असुर, नाग एवं राक्षस ही नष्ट कर सकते हैं। ‘भारत! तुम जो कुछ कह रहे हो, ऐसी बातें मूर्ख मनुष्य कहा करते हैं। भला, युद्ध में अर्जुन का सामना करके कौन कुशलपूर्वक घर को लौट सकता है ? ‘तुम निष्ठुर और पापपूर्ण विचार रखने वाले हो, अतः तुम्हारे मन में सब पर संदेह बना रहता है, इसीलिये तुम्हारे हित में ही तत्पर रहने वाले श्रेष्ठ पुरूषों को भी तुम ऐसी-ऐसी बातें सुनाने की इच्छा रखते हो। ‘तुम भी जाओ, अपने हित के लिये कुन्तीकुमार अर्जुन को शीघ्र ही मार डालो। तुम भी तो कुलीन क्षत्रिय हो। मैं आश करता हूँ, तुममें भी युद्ध करने की शक्ति है ही, फिर इन सम्पूर्ण निरपराध क्षत्रियों को क्यों व्यर्थ कटवाओगे ? ‘तुम इस वैर की जड़ हो, अतः स्वयं ही जाकर अर्जुन का सामना करो, गान्धारीनन्दन! ये कपटद्यूत के खिलाड़ी तुम्हारे मामा शकुनि भी बड़े बुद्धिमान् और क्षत्रियधर्म में तत्पर रहने वाले हैं। ये ही युद्ध में अर्जुन पर चढ़ाई करें। ‘ये पासे फेंकने में बड़े कुशल हैं। कुटिलता, शठता और धूर्तता तो इनमें कूट-कूटकर भरी है। ये जूए के खिलाड़ी तो हैं ही, छल-विद्या के भी अच्छे जानकर हैं। युद्ध में पाण्डवों को अवश्य जीत लेंगे। ‘दुर्योधन! तुमने एकान्तस्थान के समान भरी सभा में धृतराष्ट्र के सुनते हुए कर्ण के साथ अत्यन्त प्रसन्न से होकर मोहवश बारंबार बहुत जोर देकर यह बात कही है कि ‘तात! मै, कर्ण और भाई दुःशासन- ये तीन ही समरभूमि में एक साथ होकर पाण्डवों का वध कर डलेंगे।’ प्रत्येक सभा में ऐसी ही शेखी बघारते हुए तुम्हारी बात मैंने सुनी है।। ‘अपनी उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। उन सबके साथ सत्यवादी बनो। ये तुम्हारे शत्रु पाण्डुपुत्र अर्जुन निर्भय होकर सामने खड़े हैं। क्षत्रियधर्म की ओर दृष्टिपात करो। युद्ध में विजय की अपेक्षा अर्जुन के हाथ से तुम्हारा वध भी हो जाय तो वह तुम्हारे लिये प्रशंसा की बात होगी। ‘तुमने बहुत सा दान कर लिया, भोग भोग लिये, स्वाध्याय भी कर लिया और मनमाना ऐश्वर्य भी पा लिया। अब तुम कृतकृत्य और देवताओं, ऋषियों तथा पितरों के ऋण से मुक्त हो गये, अतः डरो मत। पाण्डु पुत्र अर्जुन के साथ युद्ध करो’। ऐसा कहकर द्रोणाचार्य समरभूमि में जिस ओर शत्रुओं की सेना थी, उधर ही लौट पडे़। तत्पश्चात् सेना के दो विभग करके उसी क्षण युद्ध आरम्भ हो गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत द्रोणवधपर्व में द्रोणाचार्य और दुर्योधन का सम्भाषण विषयक एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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