"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 41-60": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चालीसवॉं अध्याय: श्लोक 33-60 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चालीसवॉं अध्याय: श्लोक 33-60 का हिन्दी अनुवाद </div>


वे इन्‍द्र कभी अनुलोम संकरका रुप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकरका। वे तोते, कौए, हंस, और कोयलके रुपमें भी दिखायी देते हैं। सिंह, व्‍याघ्र और हाथीके भी रुप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्‍यों और राजाओंके शरीर भी धारण कर लेते हैं। वे कभी हष्‍ट-पुष्‍ट कभी वातरोगसे भग्‍न शरीरवाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरुपिया और कभी गँवार बन जाते हैं। वे मक्‍खी और मच्‍छर आदिके रुप धारण करते हैं। विपुल ! कोई भी उन्‍हे पकड़ नहीं सकता। तात ! औरोंकी तो बात ही क्‍या है? जिन्‍होंने इस संसारको बनाया है वे विधाता भी उन्‍हें अपने काबू में नहीं कर सकते। अन्‍तर्धान हो जानेपर इन्‍द्र केवल ज्ञानदृष्टिसे दिखायी देते हैं। फिर वे वायुरुप होकर तुरंत ही देवराजके रुपमें प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्‍द्र सदा नये-नये रुप धारण करता और बदलता रहता है। भृगुश्रेष्‍ठ विपुल ! इसलिये तुम यत्‍नपूर्वक इस तनुमध्‍यमा रुचिकी रक्षा करना जिससे दुरात्‍मा देवराज इन्‍द्र यज्ञमें रखे हुए हविष्‍यको चाटनेकी इच्‍छावाले कुतेको भांति मेरी पत्‍नी रुचिका स्‍पर्श न कर सके।। भरतश्रेष्‍ठ! ऐसा कहकर महाभाग देवशर्मा मुनि यज्ञ करनेके लिये चले गये। गुरुकी बात सुनकर विपुल बड़ी चिन्‍तामें पड़ गये और महाबली देवराजसे उस स्‍त्रीकीबड़ी तत्‍परताके साथ रक्षा करने लगे। उन्‍होने मन-ही-मन सोचा, ‘मैं गुरुपत्‍नीकी रक्षाके लिये क्‍या कर सकता हूँ, क्‍योंकि वह देवराज इन्‍द्र मायावी होनेके साथ ही बड़ा दुर्धर्ष और पराक्रमी है। ‘कुटी या आश्रमके दरवाजोंको बंद करके भी पाकशासन इन्‍द्रका आना नहीं रोका जा सकता; क्‍योंकि वे कई प्रकारके रुप धारण करते हैं। सम्भव है, इन्‍द्र वायुका रुप धारण करके आये और गुरुपत्‍नीको दुषित कर डाले, इसलिये आज मैं रुचिके शरीरमे प्रवेश करके रहूँगा। ‘अथवा पुरुषार्थके द्वारा मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता; क्‍योंकि ऐश्‍वर्यवाली पाकशासन इन्‍द्र बहुरुपिया सुने जाते हैं। अत: योगबलका आश्रय लेकर ही मैं इन्‍द्रसे इसकी रक्षा करुँगा। ‘मैं गुरुपत्‍नीकी रक्षा करनेके लिये अपने सम्‍पूर्ण अंगोंसे इसके सम्‍पूर्ण अंगोंमें समा जाउँगा। यदि आज मेरे गुरुजी अपनी इस पत्‍नीको किसी पर-पुरुषद्वारा दुषित हुई देख लेंगे तो कुपित होकर मुझे निस्‍संदेह शाप दे देंगे; क्‍योंकि वे महा तपस्‍वी गुरु दिव्‍यज्ञानसे सम्‍पन्‍न हैं। ‘दूसरी युवतियोंकी तरह इस गुरुपत्निकी भी मनुष्‍योंद्वारा रक्षा नहीं की जा सकती; क्‍योंकि देवराज इन्‍द्र बड़े मायावी हैं। अहो! मैं बड़ी संशयजनित अवस्‍थामें पड़ गया। ‘यहां गुरुने जो आज्ञा दी हैं, उसका पालन मुझे अवश्‍य करना चाहिये। यदि मैं ऐसा कर सका तो मेरे द्वारा यह एक आश्‍चर्यजनक कार्य सम्‍पन्‍न होगा। ‘अत: मुझे गुरुपत्‍नीके शरीरमें योगबलसे प्रवेश करना चाहिये। जिस प्रकार कमलके पतेपर पड़ी हुई जलकी बुँद उसपर निर्लिप्‍त भावसे स्थिर रहती है उसी प्रकार मैं भी अनासक्‍त भावसे गुरुपत्‍नीके भीतर निवास करुँगा। ‘मैं रजोगुणसे मुक्‍त हूँ, अत: मेरे द्वारा कोई अपराध नहीं हो सकता, जैसे राह चलनेवाला बटोही कभी किसी सूनी धर्मशालामें ठहर जाता है उसी प्रकार आज मैं सावधान होकर गुरुपत्‍नीके शरीर में निवास करुँगा। इसी तरह इसके शरीरमे मेरा निवास हो सकेगा’। पृथ्‍वीनाथ ! इस तरह धर्मपर दृष्टि डाल, सम्‍पूर्ण वेद-शास्‍त्रोंपर विचार करके अपनी तथा गुरुकी प्रचुर तपस्‍याको दृष्टिमें रखते हुए भृगुवंशी विपुलने गुरुपत्‍नीकी रक्षाके लिये अपने मनसे उपर्युक्‍त उपाय ही निश्चित किया और इसके लिये जो महान् प्रयत्‍न किया,वह बताता हूँ, सुनो-‘महा तपस्‍वी विपुल गुरुपत्‍नीके पास बैठ गये और पास ही बैठी हुई निर्दोष अंगोवाली उस रुचिको अनेक प्रकारकी कथा-वार्ता सुनाकर अपनी बातोंमें लुभाने लगे। ‘फिर अपने दोनों नेत्रोंको उन्‍होंने उसके नेत्रोंकी ओर लगाया और अपने नेत्रोंकी किरणोंको उसके नेत्रोकी किरणोंके साथ जोड़ दिया। फिर उसी मार्गसे आकाशमें प्रविष्‍ट होनेवाली वायुको भांति रुचिके शरीर में प्रवेश किया’। ‘वे लक्षणोंसे लक्ष्‍ाणोंमें और मुखके द्वारा मुखमें प्रविष्‍ट हो कोई चेष्‍टा न करते हुए स्थिर भावसे स्थित हो गये। उस समय अन्‍तर्हित हुए विपुल मुनि छायाके समान प्रतीत होते थे’ ‘विपुल गुरुपत्‍नीके शरीर को स्‍तम्भित करके उसकी रक्षामें संलग्‍न हो वहीं निवास करने लगे। परंतु रुचिको अपने शरीरमें उनके आनेका पता न चला। ‘राजन् ! जबतक महात्‍मा विपुलके गुरु यज्ञ पुरा करके अपने घर नहीं लौटे तबतक विपुल इसी प्रकार अपनी गुरुपत्‍नीकी रक्षा करते रहे’।
वे इन्‍द्र कभी अनुलोम संकर का रूप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकर का। वे तोते, कौए, हंस, और कोयल के रूप में भी दिखायी देते हैं। सिंह, व्‍याघ्र और हाथी के भी रूप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्‍यों और राजाओं के शरीर भी धारण कर लेते हैं। वे कभी हष्‍ट-पुष्‍ट कभी वातरोग से भग्‍न शरीरवाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरूपिया और कभी गँवार बन जाते हैं। वे मक्‍खी और मच्‍छर आदि के रूप भी धारण करते हैं। विपुल ! कोई भी उन्‍हें पकड़ नहीं सकता। तात ! औरों की तो बात ही क्‍या है? जिन्‍होंने इस संसार को बनाया है वे विधाता भी उन्‍हें अपने काबू में नहीं कर सकते। अन्‍तर्धान हो जाने पर इन्‍द्र केवल ज्ञानदृष्टि से दिखायी देते हैं। फिर वे वायु रूप होकर तुरंत ही देवराज के रूप में प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्‍द्र सदा नये-नये रूप धारण करता और बदलता रहता है। भृगुश्रेष्‍ठ विपुल ! इसलिये तुम यत्‍नपूर्वक इस तनुमध्‍यमा रुचि की रक्षा करना जिससे दुरात्‍मा देवराज इन्‍द्र यज्ञ में रखे हुए हविष्‍य को चाटने की इच्‍छावाले कुत्ते को भांति मेरी पत्‍नी रुचि का स्‍पर्श न कर सके।। भरतश्रेष्‍ठ! ऐसा कहकर महाभाग देव शर्मा मुनि यज्ञ करने के लिये चले गये। गुरु की बात सुनकर विपुल बड़ी चिन्‍ता में पड़ गये और महाबली देवराजसे उस स्‍त्री की बड़ी तत्‍परता के साथ रक्षा करने लगे। उन्‍होने मन-ही-मन सोचा, ‘मैं गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिये क्‍या कर सकता हूँ, क्‍योंकि वह देवराज इन्‍द्र मायावी होने के साथ ही बड़ा दुर्धर्ष और पराक्रमी है। ‘कुटी या आश्रम के दरवाजों को बंद करके भी पाकशासन इन्‍द्र का आना नहीं रोका जा सकता; क्‍योंकि वे कई प्रकार के रूप धारण करते हैं। सम्भव है, इन्‍द्र वायु का रूप धारण करके आये और गुरुपत्‍नी को दूषित कर डाले, इसलिये आज मैं रुचि के शरीर में प्रवेश करके रहूँगा। ‘अथवा पुरुषार्थ के द्वारा मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता; क्‍योंकि ऐश्‍वर्यवाली पाकशासन इन्‍द्र बहुरूपिया सुने जाते हैं। अत: योगबल का आश्रय लेकर ही मैं इन्‍द्र से इसकी रक्षा करूँगा। ‘मैं गुरुपत्‍नी की रक्षा करने के लिये अपने सम्‍पूर्ण अंगों से इसके सम्‍पूर्ण अंगों में समा जाऊँगा।' यदि आज मेरे गुरुजी अपनी इस पत्‍नी को किसी पर-पुरुषद्वारा दुषित हुई देख लेंगे तो कुपित होकर मुझे निस्‍संदेह शाप दे देंगे; क्‍योंकि वे महातपस्‍वी गुरु दिव्‍यज्ञान से सम्‍पन्‍न हैं। ‘दूसरी युवतियों की तरह इस गुरुपत्निकी भी मनुष्‍यों द्वारा रक्षा नहीं की जा सकती; क्‍योंकि देवराज इन्‍द्र बड़े मायावी हैं।' अहो! मैं बड़ी संशयजनित अवस्‍था में पड़ गया। ‘यहां गुरु ने जो आज्ञा दी है, उसका पालन मुझे अवश्‍य करना चाहिये। यदि मैं ऐसा कर सका तो मेरे द्वारा यह एक आश्‍चर्यजनक कार्य सम्‍पन्‍न होगा। ‘अत: मुझे गुरुपत्‍नी के शरीर में योगबल से प्रवेश करना चाहिये। जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद उस पर निर्लिप्‍त भाव से स्थिर रहती है उसी प्रकार मैं भी अनासक्‍त भाव से गुरुपत्‍नी के भीतर निवास करूँगा। ‘मैं रजोगुण से मुक्‍त हूँ, अत: मेरे द्वारा कोई अपराध नहीं हो सकता, जैसे राह चलने वाला बटोही कभी किसी सूनी धर्मशाला में ठहर जाता है उसी प्रकार आज मैं सावधान होकर गुरुपत्‍नी के शरीर में निवास करुँगा। इसी तरह इसके शरीर में मेरा निवास हो सकेगा।'  पृथ्‍वीनाथ ! इस तरह धर्म पर दृष्टि डाल, सम्‍पूर्ण वेद-शास्‍त्रों पर विचार करके अपनी तथा गुरु की प्रचुर तपस्‍या को दृष्टि में रखते हुए भृगुवंशी विपुल ने गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिये अपने मन से उपर्युक्‍त उपाय ही निश्चित किया और इसके लिये जो महान प्रयत्‍न किया,वह बताता हूँ, सुनो-‘महातपस्‍वी विपुल गुरुपत्‍नी के पास बैठ गये और पास ही बैठी हुई निर्दोष अंगों वाली उस रुचि को अनेक प्रकार की कथा-वार्ता सुनाकर अपनी बातों में लुभाने लगे। ‘फिर अपने दोनों नेत्रों को उन्‍होंने उसके नेत्रों की ओर लगाया और अपने नेत्रों की किरणों को उसके नेत्रों की किरणों के साथ जोड़ दिया। फिर उसी मार्ग से आकाश में प्रविष्‍ट होने वाली वायु को भांति रुचि के शरीर में प्रवेश किया।' ‘वे लक्षणों से लक्ष्‍ाणों में और मुख के द्वारा मुख में प्रविष्‍ट हो कोई चेष्‍टा न करते हुए स्थिर भाव से स्थित हो गये। उस समय अन्‍तर्हित हुए विपुल मुनि छाया के समान प्रतीत होते थे।' ‘विपुल गुरुपत्‍नी के शरीर को स्‍तम्भित करके उसकी रक्षा में संलग्‍न हो वहीं निवास करने लगे। परंतु रुचि को अपने शरीर में उनके आने का पता न चला। ‘राजन ! जब तक महात्‍मा विपुल के गुरु यज्ञ पूरा करके अपने घर नहीं लौटे तब तक विपुल इसी प्रकार अपनी गुरुपत्‍नी की रक्षा करते रहे।'


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्‍यानविषयक चालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्‍यानविषयक चालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।</div>


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 40 श्लोक 1-32|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 41 श्लोक 1-36}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 40 श्लोक 1-32|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 41 श्लोक 1-36}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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१०:४५, ९ जुलाई २०१५ का अवतरण

चालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चालीसवॉं अध्याय: श्लोक 33-60 का हिन्दी अनुवाद

वे इन्‍द्र कभी अनुलोम संकर का रूप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकर का। वे तोते, कौए, हंस, और कोयल के रूप में भी दिखायी देते हैं। सिंह, व्‍याघ्र और हाथी के भी रूप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्‍यों और राजाओं के शरीर भी धारण कर लेते हैं। वे कभी हष्‍ट-पुष्‍ट कभी वातरोग से भग्‍न शरीरवाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरूपिया और कभी गँवार बन जाते हैं। वे मक्‍खी और मच्‍छर आदि के रूप भी धारण करते हैं। विपुल ! कोई भी उन्‍हें पकड़ नहीं सकता। तात ! औरों की तो बात ही क्‍या है? जिन्‍होंने इस संसार को बनाया है वे विधाता भी उन्‍हें अपने काबू में नहीं कर सकते। अन्‍तर्धान हो जाने पर इन्‍द्र केवल ज्ञानदृष्टि से दिखायी देते हैं। फिर वे वायु रूप होकर तुरंत ही देवराज के रूप में प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्‍द्र सदा नये-नये रूप धारण करता और बदलता रहता है। भृगुश्रेष्‍ठ विपुल ! इसलिये तुम यत्‍नपूर्वक इस तनुमध्‍यमा रुचि की रक्षा करना जिससे दुरात्‍मा देवराज इन्‍द्र यज्ञ में रखे हुए हविष्‍य को चाटने की इच्‍छावाले कुत्ते को भांति मेरी पत्‍नी रुचि का स्‍पर्श न कर सके।। भरतश्रेष्‍ठ! ऐसा कहकर महाभाग देव शर्मा मुनि यज्ञ करने के लिये चले गये। गुरु की बात सुनकर विपुल बड़ी चिन्‍ता में पड़ गये और महाबली देवराजसे उस स्‍त्री की बड़ी तत्‍परता के साथ रक्षा करने लगे। उन्‍होने मन-ही-मन सोचा, ‘मैं गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिये क्‍या कर सकता हूँ, क्‍योंकि वह देवराज इन्‍द्र मायावी होने के साथ ही बड़ा दुर्धर्ष और पराक्रमी है। ‘कुटी या आश्रम के दरवाजों को बंद करके भी पाकशासन इन्‍द्र का आना नहीं रोका जा सकता; क्‍योंकि वे कई प्रकार के रूप धारण करते हैं। सम्भव है, इन्‍द्र वायु का रूप धारण करके आये और गुरुपत्‍नी को दूषित कर डाले, इसलिये आज मैं रुचि के शरीर में प्रवेश करके रहूँगा। ‘अथवा पुरुषार्थ के द्वारा मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता; क्‍योंकि ऐश्‍वर्यवाली पाकशासन इन्‍द्र बहुरूपिया सुने जाते हैं। अत: योगबल का आश्रय लेकर ही मैं इन्‍द्र से इसकी रक्षा करूँगा। ‘मैं गुरुपत्‍नी की रक्षा करने के लिये अपने सम्‍पूर्ण अंगों से इसके सम्‍पूर्ण अंगों में समा जाऊँगा।' यदि आज मेरे गुरुजी अपनी इस पत्‍नी को किसी पर-पुरुषद्वारा दुषित हुई देख लेंगे तो कुपित होकर मुझे निस्‍संदेह शाप दे देंगे; क्‍योंकि वे महातपस्‍वी गुरु दिव्‍यज्ञान से सम्‍पन्‍न हैं। ‘दूसरी युवतियों की तरह इस गुरुपत्निकी भी मनुष्‍यों द्वारा रक्षा नहीं की जा सकती; क्‍योंकि देवराज इन्‍द्र बड़े मायावी हैं।' अहो! मैं बड़ी संशयजनित अवस्‍था में पड़ गया। ‘यहां गुरु ने जो आज्ञा दी है, उसका पालन मुझे अवश्‍य करना चाहिये। यदि मैं ऐसा कर सका तो मेरे द्वारा यह एक आश्‍चर्यजनक कार्य सम्‍पन्‍न होगा। ‘अत: मुझे गुरुपत्‍नी के शरीर में योगबल से प्रवेश करना चाहिये। जिस प्रकार कमल के पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद उस पर निर्लिप्‍त भाव से स्थिर रहती है उसी प्रकार मैं भी अनासक्‍त भाव से गुरुपत्‍नी के भीतर निवास करूँगा। ‘मैं रजोगुण से मुक्‍त हूँ, अत: मेरे द्वारा कोई अपराध नहीं हो सकता, जैसे राह चलने वाला बटोही कभी किसी सूनी धर्मशाला में ठहर जाता है उसी प्रकार आज मैं सावधान होकर गुरुपत्‍नी के शरीर में निवास करुँगा। इसी तरह इसके शरीर में मेरा निवास हो सकेगा।' पृथ्‍वीनाथ ! इस तरह धर्म पर दृष्टि डाल, सम्‍पूर्ण वेद-शास्‍त्रों पर विचार करके अपनी तथा गुरु की प्रचुर तपस्‍या को दृष्टि में रखते हुए भृगुवंशी विपुल ने गुरुपत्‍नी की रक्षा के लिये अपने मन से उपर्युक्‍त उपाय ही निश्चित किया और इसके लिये जो महान प्रयत्‍न किया,वह बताता हूँ, सुनो-‘महातपस्‍वी विपुल गुरुपत्‍नी के पास बैठ गये और पास ही बैठी हुई निर्दोष अंगों वाली उस रुचि को अनेक प्रकार की कथा-वार्ता सुनाकर अपनी बातों में लुभाने लगे। ‘फिर अपने दोनों नेत्रों को उन्‍होंने उसके नेत्रों की ओर लगाया और अपने नेत्रों की किरणों को उसके नेत्रों की किरणों के साथ जोड़ दिया। फिर उसी मार्ग से आकाश में प्रविष्‍ट होने वाली वायु को भांति रुचि के शरीर में प्रवेश किया।' ‘वे लक्षणों से लक्ष्‍ाणों में और मुख के द्वारा मुख में प्रविष्‍ट हो कोई चेष्‍टा न करते हुए स्थिर भाव से स्थित हो गये। उस समय अन्‍तर्हित हुए विपुल मुनि छाया के समान प्रतीत होते थे।' ‘विपुल गुरुपत्‍नी के शरीर को स्‍तम्भित करके उसकी रक्षा में संलग्‍न हो वहीं निवास करने लगे। परंतु रुचि को अपने शरीर में उनके आने का पता न चला। ‘राजन ! जब तक महात्‍मा विपुल के गुरु यज्ञ पूरा करके अपने घर नहीं लौटे तब तक विपुल इसी प्रकार अपनी गुरुपत्‍नी की रक्षा करते रहे।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्‍यानविषयक चालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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