"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-7": अवतरणों में अंतर

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==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
<h4 style="text-align:center;">संछेप में राजधर्म का वर्णन </h4>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: संछेप में राजधर्म का वर्णन भाग-7 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-7 का हिन्दी अनुवाद</div>


दूसरे चक्र के राजा के लिये दूसरे के राष्ट्र का विनाश करने पर जो पाप लागू होता है, वह समूचा पाप उस राजा को भी प्राप्त होता है, जिसका राज्य उसी की दुर्बलता के कारण शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। मामा, भानजा, माता, श्वशुर, गुरू तथा पिता- इनमें से प्रत्येक को छोड़कर यदि दूसरा कोई मनुष्य मारने की नीयत से आ जाय तो उसे (आततायी समझकर) मार डालना चाहिये। जो राजा अपने राष्ट्र की रक्षा के लिये युद्ध में जूझता हुआ शत्रुमण्डल के द्वारा मारा जाता है, उसे जो गति मिलती है, उसको श्रवण करो। वरारोहे! स्ंग्राम में मारा गया नरेश अप्सराओं से सेवित विमान पर आरूढ़ हो उस लोक से इन्द्रलोक में जाता है। सुन्दरि! उसके अंगों में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक वह इन्द्रलोक में सम्मानित होता है। यदि कदाचित् वह फिर मनुष्यलोक में आता है तो पुनः राजा या राजा के तुल्य ही शक्तिशाली पुरूष होता है। इसलिये राजा को यत्नपूर्वक अपने राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये। राजोचित व्यवहारों का पालन, गुप्तचरों की नियुक्ति, सदा सत्यप्रतिज्ञ होना, प्रमाद न करना, प्रसन्न रहना, व्यवसाय में अत्यन्त कुपित न होना, भृत्यवर्ग का भरण और वाहनों का पोषण करना, योद्धाओं का सत्कार करना और किये हुए कार्य में सफलता लाना- यह सब राजाओं का कर्तव्य है। ऐसा करने से उन्हें इहलोक और परलोक में भी श्रेय की प्राप्ति होती है।
दूसरे चक्र के राजा के लिये दूसरे के राष्ट्र का विनाश करने पर जो पाप लागू होता है, वह समूचा पाप उस राजा को भी प्राप्त होता है, जिसका राज्य उसी की दुर्बलता के कारण शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। मामा, भानजा, माता, श्वशुर, गुरू तथा पिता- इनमें से प्रत्येक को छोड़कर यदि दूसरा कोई मनुष्य मारने की नीयत से आ जाय तो उसे (आततायी समझकर) मार डालना चाहिये। जो राजा अपने राष्ट्र की रक्षा के लिये युद्ध में जूझता हुआ शत्रुमण्डल के द्वारा मारा जाता है, उसे जो गति मिलती है, उसको श्रवण करो। वरारोहे! स्ंग्राम में मारा गया नरेश अप्सराओं से सेवित विमान पर आरूढ़ हो उस लोक से इन्द्रलोक में जाता है। सुन्दरि! उसके अंगों में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक वह इन्द्रलोक में सम्मानित होता है। यदि कदाचित् वह फिर मनुष्यलोक में आता है तो पुनः राजा या राजा के तुल्य ही शक्तिशाली पुरूष होता है। इसलिये राजा को यत्नपूर्वक अपने राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये। राजोचित व्यवहारों का पालन, गुप्तचरों की नियुक्ति, सदा सत्यप्रतिज्ञ होना, प्रमाद न करना, प्रसन्न रहना, व्यवसाय में अत्यन्त कुपित न होना, भृत्यवर्ग का भरण और वाहनों का पोषण करना, योद्धाओं का सत्कार करना और किये हुए कार्य में सफलता लाना- यह सब राजाओं का कर्तव्य है। ऐसा करने से उन्हें इहलोक और परलोक में भी श्रेय की प्राप्ति होती है।

१०:४०, १४ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

संछेप में राजधर्म का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-7 का हिन्दी अनुवाद

दूसरे चक्र के राजा के लिये दूसरे के राष्ट्र का विनाश करने पर जो पाप लागू होता है, वह समूचा पाप उस राजा को भी प्राप्त होता है, जिसका राज्य उसी की दुर्बलता के कारण शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। मामा, भानजा, माता, श्वशुर, गुरू तथा पिता- इनमें से प्रत्येक को छोड़कर यदि दूसरा कोई मनुष्य मारने की नीयत से आ जाय तो उसे (आततायी समझकर) मार डालना चाहिये। जो राजा अपने राष्ट्र की रक्षा के लिये युद्ध में जूझता हुआ शत्रुमण्डल के द्वारा मारा जाता है, उसे जो गति मिलती है, उसको श्रवण करो। वरारोहे! स्ंग्राम में मारा गया नरेश अप्सराओं से सेवित विमान पर आरूढ़ हो उस लोक से इन्द्रलोक में जाता है। सुन्दरि! उसके अंगों में जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक वह इन्द्रलोक में सम्मानित होता है। यदि कदाचित् वह फिर मनुष्यलोक में आता है तो पुनः राजा या राजा के तुल्य ही शक्तिशाली पुरूष होता है। इसलिये राजा को यत्नपूर्वक अपने राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये। राजोचित व्यवहारों का पालन, गुप्तचरों की नियुक्ति, सदा सत्यप्रतिज्ञ होना, प्रमाद न करना, प्रसन्न रहना, व्यवसाय में अत्यन्त कुपित न होना, भृत्यवर्ग का भरण और वाहनों का पोषण करना, योद्धाओं का सत्कार करना और किये हुए कार्य में सफलता लाना- यह सब राजाओं का कर्तव्य है। ऐसा करने से उन्हें इहलोक और परलोक में भी श्रेय की प्राप्ति होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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