"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-17": अवतरणों में अंतर

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११:२७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

अन्धत्व और पंगुत्व आदि नाना प्रकारके दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-17 का हिन्दी अनुवाद

उमा ने कहा- भगवन्! मेरी प्रीति बढ़ाने वाले देवदेवेश्वर! इस संसार में कुछ लोग जन्म से ही अन्धे दिखायी देते हैं और कुछ लोगों के जन्म लेने के पश्चात् उनकी आँखें नष्ट हो जाती हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! जो पूर्वजन्म में काम या स्वेच्छाचारवश पराये घरों में अपनी लोलुपता का परिचय देते हैं और परायी स्त्रियों पर अपनी दूषित दृष्टि डालते हैं तथा जो मनुष्य क्रोध और लोभ के वशीभूत होकर दूसरों को अन्धाबना देते हैं, अथवा रूपविषयक लक्षणों को जानकर उसका मिथ्या प्रदर्शन करते हैं। ऐसे आचारवाले मनुष्य मृत्यु को प्रापत होने पर यमदण्ड से दण्डित हो चिरकाल तक नरकों में पड़े रहते हैं। उसके बाद यदि वे मनुष्ययोनि में जन्म लेते हैं, तब स्वभावतः अन्धे होते हैं अथवा जन्म लेने के बाद अन्धे हो जाते हैं या सदा ही नेत्ररोग से पीडि़त रहते हैं। इस विषय में विचार करने की आवश्यकता नहीं है। उमा ने पूछा- प्रभो! कुछ मनुष्य सदा मुख के रोग से व्यथित रहते हैं, दाँत, कण्ठ और कपोलों के रोग से अत्यन्त कष्ट भोगते हैं, कुछ तो जन्म से ही रोगी होते हैं और कुछ जन्म लेने के बाद कारणवश उन रोगां के शिकार हो जाते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।। श्री महेश्वर ने कहा- देवि! एकाग्रचित्त होकर सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें सब कुछ बताता हूँ। जो कुवाक्य बोलने वाले मनुष्य अपनी जिह्वा से गुरूजनों या दूसरों के प्रति अत्यन्त, कड़वे, झूठे, रूखे तथा घोर वचन बोलते हैं, जो क्रोध के कारण दूसरों की जीभ काट लेते हैं अथवा जो कार्यवश प्रायः अधिकाधिक झूठ ही बोलते हैं, उनके जिह्वाप्रदेश में ही रोग होते हैं। जो परदोष और निन्दादियुक्त कुवचन सुनते हैं तथा जो दूसरों के कानों को हानि पहुँचाते हैं, वे दूसरे जन्म में कर्ण-सम्बन्धी नाना प्रकार के रोगों का कष्ट भोगते हैं। ऐसे ही लोगों को दन्तरोग, शिरोरोग, कर्णरोग तथा अन्य सभी मुखसम्बन्धी दोष अपनी करनी के फलरूप से प्राप्त होते हैं। उमा ने पूछा- देव! मनुष्यों में कुछ लोग सदा कुक्षि और पक्षसम्बन्धी दोषों तथा उदरसम्बन्धी रोगों से पीडि़त रहते हैं। कुछ लोगों के उदर में तीखे शूल से उठते हैं, जिनसे वे बहुत पीडि़त होते और दुःख में डूब जाते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! पहले जो मनुष्य काम और क्रोध के अत्यन्त वशीभूत हो दूसरों की परवा न करके केवल अपने ही लिये आहार जुटाते और खाते हैं, अभक्ष्य भोजन का दान करते हैं, विश्वस्त मनुष्यों को जहर दे देते हैं, न खाने योग्य वस्तुएँ खिला देते हैं, शौच और मंगलाचार से रहित होते हैं, शोभने! ऐसे आचरणवाले लोग पुनर्जन्म लेने पर किसी तरह मानव शरीर को पाकर उन्हीं रोगों से पीडि़त होते हैं। देवि! नाना प्रकार के रूपवाले उन रोगों से पीडि़त हो वे दुःख में निमग्न हो जाते हैं। पूर्वजन्म में जैसा किया था वैसा भोगते हैं।। उमा ने पूछा- देव! बहुत से मनुष्य प्रमेहसम्बन्धी रोगों से पीडि़त देखे जाते हैं, कितने ही पथरी और शर्करा (पेशाब से चीनी आना) आदि रोगों के शिकार हो जाते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताने की कृपा करें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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