"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-20": अवतरणों में अंतर

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११:२७, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

अन्धत्व और पंगुत्व आदि नाना प्रकारके दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-20 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले दर्प और अहंकार से युक्त हो नाना प्रकार की अंट शंट बातें करते हैं, दूसरों की खूब हँसी उड़ाते हैं, लोभवश, उन्मत्त बना देने वाले भोगों द्वारा दूसरों को मोहित करते हैं, जो मूर्ख वृद्धों और गुरूजनों का व्यर्थ ही उपहास करते हैं तथा शास्त्रज्ञान में चतुर एवं प्रवीण होने पर भी सदा झूठ बोलते हैं, शोभने! ऐसे आचरण वाले मनुष्य पुनर्जन्म लेने पर उन्मत्तों और पिशाचों के समान भटकते फिरते हैं, इसमें संशय नहीं है।। उमा ने पूछा- भगवन्! कुछ मनुष्य संतानहीन होने के कारण अत्यन्त दुःखी रहते हैं। वे जहाँ-तहाँ से प्रयत्न करने पर भी संतानलाभ से वंचित ही रह जाते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताने की कृपा करे। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले समस्त प्राणियों के प्रति निर्दयता का बर्ताव करते हैं, मृगों और पक्षियों के भी बच्चों को मारकर खा जाते हैं, गुरू से द्वेष रखते, दूसरों के पुत्रों के दोष देखते हैं, पार्वण आदि श्राद्धों के द्वारा शास्त्रोक्त रीति से पितरों की पूजा नहीं करते, शोभने! ऐसे आचरण वाले जीव फिर जन्म लेने पर दीर्घकाल के पश्चात् मानवयोनि को पाकर संतानहीन तथा पुत्रशोक से संतप्त होते हैं, इसमें विचार करने की आवश्यकता नहीं है। उमा ने कहा- भगवन्! मनुष्यों में कुछ लोग अत्यन्त दुःखी दिखायी देते हैं। उने निवास स्थान में उद्वेग का वातावरण छाया रहता है। वे उद्विग्न रहकर संयमपूर्वक व्रत का पालन करते हैं। नित्य शोकमग्न तथा दुर्गतिग्रस्त रहते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले प्रतिदिन घूस लेते हैं, दूसरों को डराते और उनके मन में विकार उत्पन्न् कर देते हैं, अपने इच्छानुसार दरिद्रों का ऋण बढ़ाते हैं, जो कुत्तों से खेलते और वन में मृगों को त्रास पहुँचाते हैं, जहाँ-तहाँ प्राणियों की हिंसा करते हैं, जिनके घरों में पले कुत्ते व्यर्थ ही लोगों को डराते रहते हैं, प्रिये! ऐसे आचरण वाले मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होकर यमदण्ड से पीडि़त हो चिरकाल तक नरक में पड़े रहते हैं। फिर किसी प्रकार मनुष्य का जन्म पाकर अधिक दुःख से भरे हुए सैकड़ों बाधाओं से व्याप्त कुत्सिक देश में उत्पन्न हो वहाँ दुःखी, शोकमग्न और सब ओर से उद्विग्न बने रहते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! भगदेवता के नेत्र को नष्ट करने वाले महादेव! मनुष्यों में कुछ लोग कायर, नपुंसक और हिजड़े देखे जाते हैं, जो इस भूतल पर स्वयं तो नीच हैं ही, नीच कर्मों में तत्पर रहते और नीचों का ही साथ करते हैं। उनके नपुंसक होने में कौनसा कर्मविपाक कारण होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! मैं वह कारण तुम्हें बताता हूँ, सुनो! जो मनुष्य पहले भयंकर कर्म में तत्पर होकर पशु के पुरूषत्व का नाश करने अर्थात् पशुओं को बधिया करने के कार्य द्वारा जीवननिर्वाह करते और उसी में सुख मानते हैं, प्रिये! ऐसे आचरण वाले मनुष्य मृत्यु को पाकर यमदण्ड से दण्डित हो चिरकाल तक नरक में निवास करते हैं। यदि मनुष्य जन्म धारण करते हैं तो वैसे ही कायर, नपुंसक और हिजडे़ होते हैं। देवि! जैसे पुरूषों को कर्मजनित फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार स्त्रियों को भी अपने-अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यह विषय मैंने तुम्हें बता दिया। अब और क्या सुनना चाहाती हो?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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