"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 168 श्लोक 1-23": अवतरणों में अंतर

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११:३१, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

अष्टषष्ट्यधिकशततम (168) अध्याय: अनुशासनपर्व (भीष्‍मस्‍वर्गारोहण पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजी कहते हैं- शत्रुदमन जनमेजय! समस्त कौरवों से ऐसा कहकर कुरुश्रेष्ठ शान्तनुनन्दन भीष्मजी दो घड़ीतक चुपचाप पड़े रहे। तदनन्तर वे मनसहित प्राणवायु को क्रमश: भिन्न-भिन्न धारणाओं में स्थापित करने लगे। इस तरह यौगिक क्रिया द्वारा रोके हुए महात्मा भीष्मजी के प्राण क्रमश: ऊपर चढ़ने लगे। प्रभो! उस समय वहाँ एकत्र हुए सभी संत महात्माओं के बीच एक बड़े आश्चर्य की घटना घटी। व्यास आदिसब महर्षियों ने देखा कि योगयुक्त हुए शान्तनुनन्दन भीष्म के प्राण उनके जिस-जिस अंग को त्याग कर ऊपर उठते थे, उस-उस अंग के बाण अपने-आप निकल जाते और उनका घाव भर जाता था। नरेश्वर! इस प्रकार सबके देखते-देखते भीष्मजी का शरीर क्षणभर में बाणों से रहित हो गया। यह देखकर व्यास आदि समस्त मुनियों सहित भगवान श्रीकृष्ण आदि को बड़ा विस्मय हुआ। भीष्मजी ने अपने देह के सभी द्वारों को बंद करके प्राणों को सब ओर से रोक लिया था, इसलिये वह उनका मस्तक (ब्रह्मरन्ध्र) फोड़कर आकाश में चला गया। उस समय देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और साथ ही दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी। सिद्धों तथा ब्रह्मर्षियों को बड़ा हर्ष हुआ। वे भीष्म को साधुवाद देने लगे। जनेश्वर! भीष्मजी का प्राण उनके ब्रह्मन्ध्र से निकलकर बड़ी भारी उल्का की भाँति आकाश में उड़ा और क्षण भर में अन्तर्धान हो गया। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार भरतवंश का भार वहन करने वाले शान्तनुनन्दन राजा भीष्म काल के अधीन हुए। कुरुनन्दन! तदनन्तर बहुत-से काष्ठ और नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्य लेकर महात्मा पाण्डव, विदुर और युयुत्सु ने चिता तैयार की और शेष सब लोग अलग खड़े होकर देखते रहे। राजा युधिष्ठिर और परम बुद्धिमान विदुर इन दोनों ने रेशमी वस्त्रों और मालाओं से कुरुनन्दन गंगापुत्र भीष्म को आच्छादित किया और चिता पर सुलाया। उस समय युयुत्सु ने उनके ऊपर उत्तम छत्र लगाया और भीमसेन तथा अर्जुन श्वेत चँवर एवं व्यजन डुलाने लगे। माद्रीकुमार नकुल और सहदेव ने पगड़ी हाथ में लेकर भीष्म के मस्तक पर रखी। कौरवराज के रनिवास की स्त्रियाँ ताड़के पंखे हाथ में लेकर कुरुकुल धुरन्धर भीष्म के शव को सब ओर से हवा करने लगीं। तदनन्तर पाण्डवों ने विधिपूर्वक महात्मा भीष्म का पितृमेध कर्म सम्पन्न किया। अग्‍नि में बहुत-सी आहुतियाँ दी गयीं। साम-गान करने वाले ब्राह्मण साममन्त्रों का गान करने लगे तथा धृतराष्ट्र आदि ने चन्दन की लकड़ी, कालीचन्दन और सुगन्धित वस्तुओं से भीष्म के शरीर को आच्छादित करके उनकी चिता में आग लगा दी। फिर धृतराष्ट्र आदि सब कौरवों ने इस जलती हुई चिता की प्रदक्षिणा की। इस प्रकार कुरुश्रेष्ठ भीष्मजी का दाह-संस्कार करके समस्त कौरव अपनी स्त्रिायां को साथ लेकर ऋषि-मुनियों से सेवित परम पवित्र भागीरथी के तटपर गये। उनके साथ महर्षि व्यास, देवर्षि नारद, असित, भगवान श्रीकृष्ण तथा नगर निवासी मनुष्य भी पधारे थे। वहाँ पहुँचकर उन क्षत्रियशिरोमणियों और अन्य सब लोगों ने विधिपूर्वक महात्मा भीष्म को जलांजलि दी। उस समय कौरवों द्वारा अपने पुत्र भीष्म को जलांजली देने का कार्य पूरा हो जाने पर भगवती भागीरथी जल के ऊपर प्रकट हुई और शोक से विह्ल हो रोदन एवं विलाप करती हुई कौरवों से कहने लगी-‘निष्पाप पुत्रगण! मैं जो कहती हूं,उस बात को यथार्थ रूप से सुनो। भीष्म राजोचित सदाचार से सम्पन्न थे। वे उत्‍तमबुद्धि और श्रेष्ठ कुल से सम्पन्न थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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