"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 147 श्लोक 1-20": अवतरणों में अंतर
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१२:४६, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )
अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना, अर्जुन का खेद तथा कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय ! सव्यसाची अर्जुन के द्वारा वीर सिंधुराज के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? यह मुझे बताओ।
संजय ने कहा- भरतनन्दन ! सिंधुराज को अर्जुन के द्वारा रणभूमि में मारा गया देख शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अमर्ष के वशीभूत हो बाण की भारी वर्षा करके पाण्डुपुत्र अर्जुन को आच्छादित करने लगे। राजन ! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भी रथ पर बैठकर अर्जुन पर धावा किया। रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओं से आकर अर्जुन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार दो दिशाओं से होने वाली उस भारी बाण-वर्षा से पीडित हो रथियों में श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुन अत्यन्त व्यथित हो उठे। वे युद्धस्थल में गुरू तथा गुरूपुत्र का वध करना नहीं चाहते थे। अतः कुन्तीपुत्र धनंजय ने वहां अपने आचार्य का समान किया। उन्होंने अपने अस्त्रों द्वारा अश्रत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उनका वध करने की इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेग वाले बाण चलाये। अर्जुन के चलाये हुए उन बाणों की संख्या अधिक होने के कारण उनके द्वारा उन दोनों को भारी चोट पहुंची। वे बडी वेदना का अनुभव करने लगे। राजन ! कृपाचार्य अर्जुन के बाणों से पीड़ित हो मूर्छित हो गये और रथ के पिछले भाग में जा बैठे। अपने स्वामी को बाणों से पीड़ित एवं विहल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझकर सारथि रणभूमि से दूर हटा ले गया। महाराज ! युद्धस्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के अचेत होकर वहां से हट जाने पर अश्रत्थामा भी अर्जुन को छोड़कर दूसरे किसी रथी का सामना करने के लिये चला गया। कृपाचार्य को बाणों से एवं मूर्छित देखकर महाधनुर्धर कुन्तीकुमार अर्जुन दयावश रथ पर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे। उनके मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थी। वे दीनभाव से इस प्रकार कहने लगे-। जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधन का जन्म हुआ था, उस समय महाज्ञानी विदुरजी ने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्र से कहा था कि इस कुलांगार बालक को परलोक भेज दिया जाये, यही अच्छा होगा; क्योंकि इससे प्रधान-प्रधान कुरूवंशियों को महान भय उत्पन्न होगा। सत्यवादी विदुरजी का यह कथन आज सत्य हो रह है। दुर्योधन के ही कारण आज मैं अपने गुरू को शर-शय्या पर पड़ा देखता हूं। क्षत्रिय के आचार, बल और पुरूषार्थ को धिक्कार है। धिक्कार है। मेरे जैसा कौन पुरूष ब्राहाण एवं आचार्य से द्रोह करेगा ! ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरूवर द्रोणाचार्य के परम सखा कृप मेरे बाणों से पीड़ित हो रथ की बैठक में पडे़ है। मैंने इच्छा न रहते हुए भी उन्हें बाणों द्वारा अधिक चोट पहुंचायी है। वे रथ की बैठक में पडे़-पडे़ कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यन्त पीड़ित सा कर रहे हैं। मैंने पुत्रशोक से संतम, बाणों द्वारा पीड़ित तथा भारी दुरवस्था को प्राप्त होकर बहुसंख्यक बाणों द्वारा उन्हें अनेक बार चोट पहुंचायी है। निश्चय ही ये कृपाचार्य आहत होकर मुझे पुत्रवध की अपेक्षा भी अधिक शोक में डाल रहे हैं। श्री कृष्ण ! देखिये, वे अपने रथ पर कैसे सन्न और दीन होकर पडे़ है।
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